नक्सलवाद : आंदोलन या संगठित गिरोह...
-वेबदुनिया
नक्सलियों के 'खूनी खेल' से लगभग पूरा देश त्रस्त है। मई माह में छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले की दरभा घाटी में हुए भीषण आतंकवादी हमले की घटना आज भी सबको दहशत से भर देती है। इस हमले में वरिष्ठ कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल समेत करीब 30 लोगों की मौत हो गई थी।इसी हमले में गंभीर रूप से घायल हुए पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल का भी बाद में उपचार के दौरान निधन हो गया। नक्सली आए दिन हमलों को अंजाम देकर आम आदमी और सुरक्षाकर्मियों को मौत के घाट उतार देते हैं। सरकार के कड़े बयानों के बाद भी ये हमले जारी रहते हैं। यह कायरता नहीं तो और क्या है? क्या यह सत्ता का लालच नहीं है? मगर इसकी कीमत जनता क्यों चुकाए? एक पवित्र उद्देश्य के लिए शुरू हुआ यह आंदोलन अब अपराधियों का एक संगठित गिरोह बन चुका है। आखिर कैसे शुरू हुआ यह नक्सली आंदोलन और अब इसकी स्थिति क्या है?
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कोर्ट ने 1967 में बंगाल के एक गांव नक्सलवाड़ी के आदिवासी किसान को अपनी जमीन पर कब्जा कर लेने का आदेश दिया, लेकिन जमींदार ने कोर्ट के आदेश को धता बताकर अपने नौकरों से किसान पर हमला करवा दिया। हमले में बुरी तरह घायल किसान की हालत देखकर गांववालों ने जमींदार को सबक सिखाने का फैसला किया। गांव वालों ने एक साथ मिलकर जमींदार के घर पर हमला कर उसकी हत्या कर दी। उसके कब्जे में जिन किसानों की जमीनें अवैध रूप से थीं, उन्हें गांव वालों ने वापस ले लिया। उस समय माओवादी इतने ताकतवर नहीं थे कि वे जमींदारों और सरकार से जुड़े लोगों व प्रशासन पर हमला कर दें, लेकिन इस उदाहरण ने उन्हें नई राह दिखाई। उन्होंने गांव-गांब जाकर लोगों को कहा कि अपने हक के लिए बंदूक उठा लो। अपनी जमीनें पाने और शोषण की गुलामी से मुक्ति के लिए गांव वालों ने मिलकर सम्पन्न वर्ग के लोगों की हत्याएं करना शुरू कर दिया। देखते ही देखते किसानों, आदिवासियों का यह संघर्ष बिहार, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में फैल गया। शोषण के खिलाफ जंग से रंगदारी तक... आगे पढ़ें...
अब तो ये जंगली इलाकों में ट्रेनों का भी अपहरण कर लेते हैं। जंगल में जितनी खदानें, उत्पादक इकाइयां, बिजलीघर और सरकारी विभागों के दफ्तर हैं, उन सभी से इनके पास पैसा पहुंचता है। जंगल में वनोपज और तेंदू पत्ता के कारोबारी इन्हें नियमित तौर पर रकम देते हैं। मोटे तौर पर माना जाता है कि प्रतिवर्ष उनके पास 1200 करोड़ की राशि पहुंचती है। कुछ नक्सल बहुल इलाके ऐसे हैं, जिनमें पुलिस के जवान भी गश्त करने नहीं आते हैं। वरन पुलिस और सुरक्षाबलों के हथियार इन तक जरूर पहुंच जाते हैं। जंगल में खदानों के लिए जो विस्फोटक सरकारी तौर पर उपलब्ध कराया जाता है, उसका काफी बड़ा हिस्सा इनके काम आता है और ये जंगल में अपना एकछत्र राज्य कायम रखने के लिए बारुदी सुरंग बिछा देते हैं। अब तो राज्य सरकारें इनके सामने असहाय सिद्ध होती हैं। कुछ समय पहले माओवादियों ने उड़ीसा और छत्तीसगढ़ से एक-एक कलेक्टर का अपहरण कर लिया था, राज्य सरकारों को झख मारकर इनकी मांगों को मानना पड़ा तब जाकर दो जिला अधिकारियों को छुड़ाया जा सका। सोचिए कि नक्सल प्रभावित राज्यों में जब जिले के शीर्ष अधिकारियों की सुरक्षा का यह हाल है तो छोटे मोटे अफसर, कर्मचारी क्या करते होंगे? नरसंहार का सिलसिला जारी, क्या चाहती हैं सरकार..? अगले पेज पर....
भारतीय जवानों ने अपनी बहादुरी का लोहा सारी दुनिया में मनवाया है लेकिन पता नहीं किन कारणों से केन्द्र सरकार को नक्सलियों के खिलाफ सेना का उपयोग करने से डर लगता है। जम्मू-कश्मीर, पूर्वोत्तर भारत तथा कई संवेदनशील क्षेत्रों में सेना को तैनात किया गया है। भारतीय जवानों ने ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार, बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम और करगिल में पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध में अपना जौहर दिखाया है लेकिन 1967 से सक्रिय नक्सलियों का प्रभाव क्षेत्र और उनका आतंक नए-नए क्षेत्रों में लगातार फैल रहा है। ऐसा लगता है कि मानो नक्सली ही राज्य सरकारों का विस्तार हों। नक्सलियों के हाथों निर्दोष ग्रामीणों, आदिवासियों और किसानों की ही हत्या नहीं होती है वरन इन्होंने हजारों की संख्या में पुलिसकर्मियों को मौत के घाट उतारा है। सुरक्षाबलों के जवानों की बारूदी सुरंगों बिछाकर हत्याएं की हैं। लेकिन समझ में नहीं आता कि सरकार में बैठे राजनीतिज्ञ और उच्च पदस्थ अधिकारी इतने काहिल और निकम्मे क्यों हैं? निरपराध लोगों और सुरक्षाकर्मियों की मौत का जिम्मेदार कौन... आगे पढ़ें...
राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के सामने तो वोट लेने का लालच हो सकता है, लेकिन निष्पक्ष और ईमानदार अधिकारी क्यों सख्त उपाय करने का दबाव नहीं बनाते हैं। वे अपने अधिकारों का अधिकाधिक और युक्तिसंगत इस्तेमाल क्यों नहीं करते हैं? इनके सफाए पर पिछले दस वर्षों में 5 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। जबकि बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान युद्ध पर 4 हजार करोड़ का खर्च आया था। पिछले पांच वर्ष के दौरान नक्सलियों ने 9224 वारदातें की हैं। नक्सलियों ने 2008 में 490, 2009 में 591, 2010 में 720, 2011 में 469 और 2012 में 300 निपराध लोगों की हत्याएं कीं। इसी तरह नक्सलियों के हाथों 2008 में 231 जवानों, 2009 में 317, 2010 में 285, 2011 में 142 और 2012 में 114 पुलिस, अर्द्धसैनिक बलों के जवान मारे गए। नक्सली, गरीब आदिवासियों, किसानों को उनका हक दिलाने के नाम पर हत्याएं करने के लिए उकसाते रहे हैं। इनमें गरीबों का हक दिलाने वाले शामिल नहीं हैं वरन पूरी तरह से अपराधी मानसिकता वाले विकृत दिमाग के लोग हैं जो कि जंगलों से आदिवासियों की लड़कियों को जबरन अपने संगठन में शामिल कर उनसे बलात्कार करते हैं। छोटे-छोटे लड़को के हाथों में हथियार देकर उनका ह्यूमन शील्ड की तरह इस्तेमाल करते हैं।
बर्बर और अय्याश हैं नक्सलवादी... आगे पढ़ें...
ऐसा बिलकुल नहीं लगता है कि ये लोग किसी उद्देश्य के लिए लड़ रहे हैं वरन इनकी वास्तविकता से समझा जा सकता है कि ये सर्वाधिक संगठित अपराधियों की फौज चला रहे हैं जिसमें सबसे निचले स्तर के कार्यकर्ता को ही अपना सब कुछ गंवाना पड़ता है, जबकि इनके बड़े नेता शहरों में रहकर, छिपकर अय्याशियां करते हैं। कुछेक दशक पहले तक नक्सली पुलिसकर्मी या सुरक्षा बलों के लोगों की हत्याएं नहीं करते थे, लेकिन अब ये सारे हमले इतनी नृशंसतापूर्वक करते हैं कि शवों के साथ भी बर्बरता करना नहीं छोड़ते। कभी-कभी तो यह लगता है कि ये नक्सली न होकर पाकिस्तान या चीन के सैनिक हैं जोकि भारत के सैनिकों को डराने के लिए इतनी जघन्यता से कृत्य करते हैं। गांवों में अपनी कंगारू कोर्ट लगाकर ये किसी को भी पुलिस का मुखबिर करार देकर मार डालते हैं। पहले यह जंगलों में छिपकर ही अपने कामों को अंजाम देते थे लेकिन अब ये राज्य सरकारों को सीधी चुतौती देने की स्थिति में आ गए हैं। जहां-जहां जंगल हैं तो वहां की यही सरकार और माई बाप हैं क्योंकि वहां लोकतांत्रिक तरीके से चुनी सरकार का कहीं कोई वजूद नहीं होता है। हाल में छत्तीसगढ़ में नेताओं की रैली पर हमला यह दर्शाता है कि वे अपने खिलाफ खड़े होने वाली किसी भी ताकत को समाप्त करने को तैयार हैं। नक्सलियों का एक रैली पर हाल का हमला ' गोली का जवाब गोली से देने के लिए सलवा जुडूम को खड़ा करने का नतीजा' था, यह नक्सलियों की खीझ का परिणाम था। वे चाहते हैं कि उन पर किसी प्रकार का कोई अंकुश नहीं हो वे बिना किसी डर के जंगल में अपनी सरकार चला सकें। अपराधियों का सबसे संगठित गिरोह... आगे पढ़ें...
बंगाल के एक छोटे से गांव नक्सलवाड़ी से शुरू हुई हिंसा की आग में आज देश का एक बड़ा हिस्सा जल रहा है। यह आग उन इलाकों में लगी है जहां पर जंगलों में निरीह और विपन्न आदिवासी रहते हैं, किसान रहते हैं। बड़ी हैरत की बात है कि हिंसा की एक घटना को दो कथित वामपंथी विचारकों - चारु मजूमदार और कानु सान्याल- ने जन विद्रोह की विचारधारा का नाम दिया और अब यह विद्रोह एक सशस्त्र गृह युद्ध का रूप ले चुका है। यह हमारी सामूहिक नाकामी और विशेष रूप से उन सत्तासीन नेताओं की देन रही है जोकि किसी भी तरह से कुर्सी पर बने रहना चाहते थे और उसके लिए वे नक्सलियों, हत्यारों के गिरोहों, माफिया सरगनाओं, स्थानीय गुंडों और तस्करों तक से मदद लेना ठीक समझते हैं। इसके बाद कुम्भकर्गी नींद में बने रहने वाला प्रशासन है जोकि गांधीजी के बंदरों की तरह से न तो कुछ बुरा देखता, न सुनता है और न ही कुछ करता है।
विदेशी ताकतों से भी हैं इनकी साठगांठ... आगे पढ़ें...
इन रक्त पिपासुओं को चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों से हथियार मिलते हैं, पैसे मिलते हैं जिनके बल पर वे देश के दुश्मनों का काम आसान करते हैं। लेकिन फिर भी इन कथित माओवादियों (जैसेकि माओवाद का एकमात्र उद्देश्य हत्याएं ही करना हो) को हमारे देश के मीडिया के एक वर्ग और तथाकथित बुद्धिजीवियों से जितना समर्थन मिला उतना तो शायद माओ के चीन में भी हिंसा करने वाले ऐसे माओवादी गिरोहों को नहीं मिल सकता था। पर जब से नक्सलियों की क्रूरता और जघन्यता की कहानियां सामने आने लगी हैं तब से इन बुद्धिजीवियों को शिकायत होने लगी है। यह ऐसी बीमारी है जोकि देश के महानगरों में एक हाई प्रोफाइल फैशन की तरह फैली और महाश्वेता देवी, अरुंधति रॉय जैसी लेखिकाओं को भी इनसे हमदर्दी रही है। इतनी हिंसा और नृशंसता करने के बाद इन्हें क्यों देशद्रोही नहीं समझा जाता है? जब देशद्रोहियों का सफाया करने के लिए पुलिस, अर्द्धसैनिक बल और सेना तैनात की जा सकती है तो क्या नक्सली 'होली काउ' हैं जिन्हें मारने से हम बहुत बड़े पाप के भागी बन जाएंगे।
इंदिरा गांधी से सबक ले लें हमारे कर्णधार... आगे पढ़ें...
इस संबंध में याद रखा जाना चाहिए कि 1968 में इंदिरा गांधी ने नक्सलियों की बीमारी को जड़ से मिटाने के लिए बंगाल में सेना तैनात की थी। इसी तरह 1971 में सेना ने नक्सलियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की थी। वर्ष 1992 में आंध्रप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री एन. जनार्दन रेड्डी ने नक्सली संगठन, पीपुल्स वार ग्रुप, पर प्रतिबंध लगाया था और सुरक्षा बलों से कहा था कि नक्सलियों की गोली का जवाब गोली से दें। तब जाकर कहीं गोलियों को भाषा समझने वाले नक्सलियों को लगा कि वे एक राज्य सरकार से जीत नहीं सकते। इसी तरह कुछ वर्ष पहले छत्तीसगढ़ में मिजो और नगा सैनिकों को तैनात किया गया जिससे इनकी हिंसा पर रोक लगी। लेकिन ये कुछेक गिने चुने उदाहरण ही हैं, वरना ज्यादातर मामलों में राज्य और केन्द्र की सरकारों ने ऐसा रुख अपनाया जिससे नक्सलियों के हौसले बढ़े ही हैं। राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार की कायरता के चलते नक्सलियों ने जब चाहा तब पुलिसकर्मियों का अपहरण कर लिया, जब चाहा तब उनकी हत्या कर दी। छत्तीसगढ़ और उड़ीसा जैसे राज्यों में तो उन्होंने कलेक्टरों जैसे अधिकारियों को बंधक बनाकर अपनी मांगें मनवा लीं। सरकारों के घुटने टेक देने के और भी कई उदाहरण हैं। बिहार के जहानाबाद में वर्ष 2005 में जेल तोड़कर अपने सैकड़ों साथियों को नक्सलियों ने ऐसे छुड़ाया मानो वे जेल में पिकनिक मनाने आए हों। उड़ीसा में नक्सली कार्रवाई में एंटी नक्सल फोर्स ग्रेहाउंड्स की नाव पर हमला किया था, जिस हमले में 38 जवानों की मौत हुई थी, लेकिन नक्सली हत्याएं कर फिर जंगलों में लौट गए थे। कैसे पहुंचेगी सरकार के बहरे कानों तक आवाज... आगे पढ़ें...
झारखंड में सीआरपीएफ के एक जवान का पेट चीरकर बम रख दिया गया था लेकिन सरकार की कान पर जूं भी नहीं रेंगी। छत्तीसगढ़ में सलवा जुड़ूम संगठन के जरिए इनकी मनमानी पर रोक लगा दी गई लेकिन कार्रवाई स्थायी और निर्णायक तौर पर नहीं चल सकी। कारण? राजनीतिक दखलंदाजी पर राज्य और केन्द्र का नपुंसक रवैया। वह भी तब जब नक्सलियों की वारदातों में साल दर साल सैकड़ों पुलिसकर्मी और इतनी ही संख्या में निर्दोष नागरिक मारे जाते रहे हैं।यह बात सभी जानते हैं कि नक्सलवाद कोई विचार या विचारधारा नहीं आपराधिक मनोवृत्ति वाले लोगों के सबसे संगठित गिरोह का नाम है जोकि आम लोगों की हत्याएं करते हैं, उन्हें हथियार उठाने के लिए मजबूर करते हैं, आदिवासी लड़कियों का शोषण करते हैं और वे सभी आपराधिक काम करते हैं जोकि अपराधी गिरोह करते हैं। तब इनमें और अन्य अपराधियों में अंतर क्यों किया जाता है? सम्पन्न लोगों के परिजनों का अपहरण कर फिरौती की रकम लेने के बाद भी हत्या कर देते हैं। ये लोग जिन आदिवासी, गरीब किसानों का मसीहा होने का ढोंग करते हैं, उनकी हत्याएँ करने में जरा भी संकोच नहीं करते हैं। पुलिसकर्मियों या सुरक्षाबलों से जुड़े लोगों की हत्याएं करना इनका जुनून है। इनकी हर वारदात के बाद कोई समिति जांच करती है और सदैव की तरह से इस पर कोई अमल होने की बजाय रिपोर्ट को ही ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। जिन राज्यों में इनका प्रभाव है, उनमें वे तय करते हैं कि आदिवासियों को किसे वोट देना है, हालांकि वे खुद बैलट नहीं वरन बुलेट की ताकत पर भरोसा करते हैं। ऐसे हालातों में अगर राजनीतिक लाभ के लिए आंध्र के दिवंगत मुख्यमंत्री नंदमूरि तारक रामाराव ने इन्हें सच्चा देशभक्त कह दिया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मनमोहन सिंह कहते हैं कि नक्सली भी अपने ही लोग हैं और हम उनसे बातचीत करने के लिए तैयार हैं। इस तरह की स्थिति को देखते हुए नक्सली अगर भारत को 'बनाना रिपब्लिक' समझते हों तो यह उनकी गलती नहीं वरन हमारी कायरता का परिणाम है।