-सुनील खंडेलवाल
ग्राम छोटा-सा है, लेकिन बड़ा वैश्ष्टि्यूपूर्ण बना हुआ है। 4 कुल के लोग शादी-ब्याह में एक-दूसरे की लड़की ले-देकर खून के रिश्तेदार, संबंधी-समधी बने हुए हैं। यहां के लोग सभी मेहमानों की खातिरदारी तथा हृदयपूर्वक आवभगत करते हैं।
श्री शनिदेव की लोहा एवं पत्थरयुक्त दिखाई देने वाली, काले वर्ण वाली 5 फुट 9 इंच लंबी तथा 1 फुट 6 इंच चौड़ी मूर्ति जो आंगन में धूप, ठंडक तथा बरसात में रात-दिन खुले आकाश के नीचे है। इसके संदर्भ में स्थानीय बुजुर्गों से सुनने में मिला है कि लगभग 350 वर्षों पहले शिंगणापुर में मूसलधार, घमासान बारिश हुई। बारिश इतनी तेज थी कि सामने से कुछ स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था। खेती पूर्ण पानी तथा बाढ़ से बह रही थी। किसी ने सोचा भी नहीं था कि इतनी तेज बारिश होगी। शायद अब तक वहां इतनी बारिश नहीं हुई। फलस्वरूप इस छोटे से देहात के आसपास बाढ़ आई और गांव के बगल से 'पानसनाला' बहता था। प्रस्तुत श्याम वर्ण पत्थरनुमा श्री शनि भगवान की मूर्ति बहकर आई और पड़ोस के ही बेर के पेड़ से अटककर रुक गई।
वर्षा कम होते ही बाढ़ भी कम हुई, अत: कुछ लोग अपनी झोपड़ी से बाहर निकले। ईश्वर की कृपा से अच्छी बारिश हुई, कहकर संतुष्ट हुए। गांव में खेती के साथ-साथ पशुपालन भी व्यवसाय है अत: गायें, भैंसें आदि चराने के लिए कुछेक गोपाल चरवाहे मवेशी चराने के लिए 'पानस-नाला' के तट पर गए। वहां उन्हें बेर के पेड़ में से एक काले रंग की बड़ी शिला दृष्टिगोचर हुई। इसे देखते ही वे दांतों तले उंगली दबाने लगे कि इतनी बड़ी शिला यहां बहते-बहते कैसे अटक गई? एक दे दूसरे को दिखाया, करते-करते 4-5 गोपाल इकट्ठे हुए। बातचीत के बाद उन्होंने जिज्ञासावश अपनी लाठी की नोंक से शिला को स्पर्श किया, कुरेदते ही उस स्थान से टप्ऽऽऽटप्ऽऽऽ खून बहने लगा। फलस्वरूप वहां एक बड़ी चोट के कारण जख्मवश दिखाई दी। वह आघात स्पष्ट प्रतिबिम्बित हो रहा था। खून को बहते देखकर लड़के डरने लगे। कुछेक तो रक्तस्राव को देखकर भागने लगे थे। वे अपनी गायों को छोड़कर सकपकाते हुए भागकर गांव में आए। ग्राम में बु्जुर्ग तथा अभिभावक, माता-पिता पूछने लगे कि क्या हुआ? डरते क्यों हो? भागकर क्यों आए? अपनी गायें कहां हैं?
थोड़ी ही देर के बाद उन्होंने बड़ों को शिला का चमत्कार कथन किया। हकीकत सुनकर बड़े भी विस्मयचकित हुए। शिला के रक्तस्राव की खबर हवा की तरह सर्वत्र फैल गई। सारे लोग घर छोड़कर वह करिश्माई देखने पहुंच गए। प्रस्तुत चमत्कार को तो देखते ही रहे। सोचने लगे कि अब क्या किया जाए? शाम ढलते ही रात होने लगी थी। सब लोग वापस अपने घर चले गए कि कल सुबह कुछ करेंगे। प्रस्तुत निर्णय के साथ लोग रात में खा-पीकर सो गए। सोए तो सही, लेकिन प्रस्तुत अलौकिक घटना के कारण रातभर किसी को अच्छी नींद नहीं आई। कुछ लोग रतजगा करते रहे तो कुछेक अनिच्छा से आंखें बंद कर सोने जा रहे थे, तो कुछेक अलसाए हुए निद्रा की झपकी ले रहे थे कि...!
श्री शनिदेव स्वप्न दृष्टांत
अचानक उसी रजनी बेला में एक स्थानीय निवासी को थोड़ी-सी नींद आई और नींद में श्याम ने जो चमत्कार देखा था, उसी संदर्भ में सपने में उससे शनिदेव ने जो बातचीत की, उसका अंश इस प्रकार है- 'कल तुमने, गांव वालों ने, गोपालों ने जो कुछ देखा है, वह सब सच है।' 'आप कौन बोल रहे हैं?' 'भक्त, मैं साक्षात शनिदेव बोल रहा हूं। मुझे वहां से ले उठाइए और मेरी प्रतिष्ठापना कीजिए- इति शनि भगवान।'
दूसरे ही दिन उस भक्त ने गांव के लोगों को अपने सपने के बारे में कथन किया जिसे सुनकर लोग दंग हुए। उस भक्त के कहने पर गांव के लोग बैलगाड़ी लेकर मूर्ति के पास पहुंचे। जो बेर के पेड़ में अटकी हुई थी। मूर्ति को उठाकर बैलगाड़ी में चढ़ाने का प्रयास सभी का रहा, लेकिन वे कामयाब नहीं हुए। सभी निराश तथा हताश हुए। दिनभर प्रयत्न करने के बावजूद मूर्ति टस से मस नहीं हुई। अंत में मूर्ति गाड़ी में न चढ़ने के कारण लोग मायूस होकर अपने-अपने घर लौट आए।
तीसरे दिन फिर शनि भगवान ने अपने उसी भक्त के स्वप्न में आकर निवेदन किया कि बेटा, मैं उस स्थान से तभी उठूंगा, जो उठाने वाले रिश्ते में सगे मामा-भानजे हों। वे ही मुझे उठाकर कटी हुई बेर की डाली पर डालेंगे। दूसरा, जो बैल जोतेंगे, वे काले वर्ण के हों तथा वे भी रिश्ते में मामा-भानजे हो। भक्त की नींद खुली तो उसने पाया कि वह तो रात की नींद में रहा, सुबह उठकर उसने यह दृष्टांत गांव वालों को बताया और गांव वालों ने भी स्वप्न दृष्टांत के अनुसार ही किया।
तब कहीं मूर्ति कटी हुई बेर की डाली पर डाली गई। यह कितने ताज्जुब की बात रही कि जहां पहले मूर्ति को एकसाथ अनेक लोगों द्वारा उठाने का प्रयास रहा, लेकिन व्यर्थ। जब केवल दे सगे मामा-भानजे उठाने लगे तो वे सफल हुए।
मनुष्य स्वभाव या भक्त के एक स्वभाव की बात यहां देखने लायक है। जिस भक्त के सपने में शनिदेव आते रहे, उसने मन ही मन में उस मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा अपनी ही जमीन में करने की पूरी कोशिश की, लेकिन उस जमीन पर से मूर्ति जरा भी हिलने को तैयार नहीं थी। अत: आज जिस स्थान पर मूर्ति शोभायमान है, उसी स्थान पर आते ही हलचल हूई और मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा संपन्न हुई। प्रस्तुत चमत्कार के साक्षी तब गांव के सारे लोग थे। कई दिनों तक मूर्ति जमीन पर मामूली चबूतरे पर थी। अब जो चबूतरा दृष्टिगोचर हो रहा है, वह तब नहीं था। इसका भी एक किस्सा है- सोनई के एक भक्त हैं, श्री जवाहरमल, धनी होने के बावजूद उन्हें पुत्ररत्न नहीं था। अत: उन्होंने श्री शनिदेव से करबद्ध प्रार्थना की कि 'अगर मुझे बेटा हुआ तो मैं यहां एक सुंदर-सा चबूतरा बना दूंगा।' प्रकृति में ऐसा खेल हुआ। शनिभक्त जवाहरमल सेठ को कुछेक दिनों बाद पुत्र होने के संकेत प्राप्त हुए, तब उसने फौरन यहां चबूतरा बना दिया।
यहां यह गौरतलब कि जब चबूतरे का निर्माण चल रहा था, तब कुछेक भक्तों ने यह निवेदन किया कि अब काम चल ही रहा है तो क्यों न प्रस्तुत मूर्ति को पूरी नीचे से निकालकर अच्छा-सा चबूतरा बनाया जाए और फिर प्रतिष्ठित करें? जी हां, ना-नुकूर में कुछेक भक्तों ने अंदर खोदकर मूर्ति को पूरी निकालने की कोशिश की, लेकिन सारे हतबल हुए। नीचे काफी खुदाई की, फिर भी मूर्ति और भी नीचे दिखती रही, टस से मस नहीं हूई। महान आश्चर्य को देखकर सभी ने शनिदेव की पुन: प्रार्थना की कि हमें मार्गदर्शन करें। फिर एक भक्त को दृष्टांत हुआ जिसमें आदेश था कि केवल चबूतरा बनाओ, मुझे उठाने या हिलाने का प्रयत्न न करें।
फलस्वरूप मूर्ति के चारों ओर तीन फिट का चबूतरा बनवाया। अत: आज हमें श्री शनिदेव की मूर्ति जितनी ऊपर दिखाई देती है, उतनी नीचे भी है।