श्रावण पूर्णिमा व रक्षाबंधन के दो पर्व हैं जो संयुक्त रूप से मनाए जाते हैं। यह उपासना और संकल्प का अद्भुत समन्वय है। पुरातन युग, महाभारत युग के पूर्व तथा महाभारत युग में भी श्रावणी पूर्णिमा और रक्षाबंधन पर्वों का धर्मग्रंथों में प्रामाणिक उल्लेख है।
सिर्फ 'श्रावणी' मात्र कहने से भी श्रावणी पूर्णिमा का बोध हो जाता है। ऐसी भी मान्यता है कि 'श्रवण' नक्षत्र की वजह से आदिकाल में श्रावणी पूर्णिमा का नामकरण संस्कार हुआ। अश्विनी से रेवती तक ज्योतिष के 27 नक्षत्रों में 'श्रवण' नक्षत्र 22वां है, जिसका स्वामी चंद्रमा है।
श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन श्रवण नक्षत्र हो तो उसे अत्यंत सुखद व फलदायी माना गया है। इसलिए श्रावण मास की अंतिम तिथि वाली श्रवण नक्षत्र युक्त पूर्णिमा को श्रावणी कहते हैं। इस दिन सब सत्पुरुष एवं ब्राह्मण लोग सप्तर्षियों का विधि-विधान से पूजन करते हैं और यज्ञोपवीतों कीभी पूजा-प्रतिष्ठा आदि की जाती है।
इस दिन उपासना-भक्ति करने से नवभक्ति का फल मिलता है, ऐसी मान्यता है। श्रावणी पूर्णिमा के बाद भाद्रपद मास शुरू हो जाता है। आदिकाल में श्रावणी के दिन गुरुकुलों में वेदों का पाठ किया जाता था और यही नए शिक्षा सत्र का प्रथम दिन हुआ करता था।
शिष्य गुरु के वचन के बजाए उसके कर्म से ज्यादा शिक्षा ग्रहण करता था क्योंकि उस काल में गुरु विद्यादान के लिए किसी के राजभवन या घर नहीं जाते थे। छात्रों को ही गुरुकुल में रहना पड़ता था। इस दिन श्रावणी कर्म या उपाकर्म किया जाता था।
जहाँ तक श्रावणी के दिन रक्षाबंधन पर्व का सवाल है, यह श्रावणी को होने वाला एक पर्व है। रक्षाबंधन को सलोनो नाम से भी पुकारा जाता है।
श्रावणी के दिन पवित्र सरोवर या नदी में स्नान करने के पश्चात सूर्यदेव को अर्घ्य देना इसके विधान का आवश्यक अंग रहा है। स्नान-ध्यान करने के पश्चात अपनी-अपनी शाखा का वैदिक पाठ किया जाता था। पंडित लोग पुराने जनेऊ का त्याग कर इस दिन नया जनेऊ धारण करते थे।
यदि नगरों-गाँवों के पास नदी न हो तो कुएं-बावड़ियों पर आराधना की जाती थी। बाद में जब सामाजिक विकास गतिशील हुआ, तब नगर के बाहर जाने के बजाए मंदिरों और पूजा स्थलों में यह कर्म होने लगा।श्रावणी की आराधना में पंचगव्य का पान जरूरी बताया गया है।
श्रावणी के ध्यान के दौरान ईश्वर के पंचकृत्यों का स्मरण किया जाता है। सृष्टि, स्थिति, संहार, विधान और अनुग्रह ईश्वर के पंचकर्म हैं। इसके बाद पंचगव्य को पीना उपासना का एक अंग था। इससे शरीर की शुद्धि होती है। इसमें घी, दूध, गोमूत्र, एक मात्रा में और दही तथा गोबर बराबर की मात्रा में होता है।
इस पंचगव्य से मूर्तियों को भी स्नान कराया जाता है। श्रावणी पूर्णिमा को रक्षाबंधन मनाने की परंपरा बाद में विकसित हुई। यज्ञोपवीत सूत्र बाँधते-बाँधते कालांतर में यह प्रथा रक्षा-सूत्र बाँधने में समाविष्ट हो गई होगी। प्रारंभ में रक्षाबंधन किसी महान त्याग और बलिदान से संबंधित था, जिसमें सामाजिक स्तर पर मित्रों व जजमानों को प्रतिबद्ध या प्रतिश्रुत करना था।
पुराणों में ऐसी भी मान्यता है कि महर्षि दुर्वासा ने ग्रहों के प्रकोप से बचने हेतु रक्षाबंधन की व्यवस्था दी थी। महाभारत युग में भगवान श्रीकृष्ण ने भी ऋषियों को पूज्य मानकर उनसे रक्षा-सूत्र बँधवाने को आवश्यक माना था ताकि ऋषियों के तप बल से भक्तों की रक्षा की जा सके।
यह भी विश्वास किया जाता है कि देवासुर संग्राम के युग में देवताओं की विजय से रक्षाबंधन का त्योहार शुरू हुआ। इसी देवासुर संग्राम के संबंध में एक और किंवदंती प्रसिद्ध है। जब देवताओं और असुरों का युद्ध हुआ तब देवताओं की विजय के बारे में कुछ संदेह होने लगा था।
इस युद्ध में इंद्र ने प्रमुखता से भाग लिया था। देवराज इंद्र की पत्नी इंद्राणी श्रावण पूर्णिमा के दिन गुरु बृहस्पति के पास गई थी तब उन्होंने विजय के लिए रक्षाबंधन बाँधने का सुझाव दिया था। इसका ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है। देवराज इंद्र जब राक्षसों से युद्ध करने चले तब उनकी पत्नी इंद्राणी ने इंद्र के हाथ में राई, हल्दी, सुपारी, दुर्वा, रोली, चावल व गुड़ रख रक्षाबंधन बाँधा था, जिससे इंद्र विजयी हुए थे।
पत्नी द्वारा भोजन पश्चात थोड़ा-सा गुड़ खिलाना भी रक्षा की भावना व्यक्त करता है। आज भी अनेक परिवारों में यह प्रथा प्रचलित है। इससे यह भी स्वयंसिद्ध होता है कि आदिकाल में रक्षाबंधन का पर्व भाई-बहन का ही पर्व नहीं था। इस पर्व का दायरा बहुत व्यापक था और सुरक्षा के संकल्प को लेकर पत्नियाँ भी अपने पतियों को रक्षा-सूत्र बाँधती थीं।
बाद में यह पर्व सिर्फ भाई-बहन तक सिमटकर रह गया। अनेक पुराणों में श्रावणी पूर्णिमा को रक्षाबंधन पर्व पुरोहितों द्वारा किया जाने वाला आशीर्वाद कर्म भी माना जाता है। ये ब्राह्मणों द्वारा यजमान के दाहिने हाथ में बाँधा जाता है।
रक्षाबंधन का एक मंत्र भी है, जो पंडित रक्षा-सूत्र बांधते समय पढ़ते हैं :
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे माचल माचलः॥
भविष्योत्तर पुराण में राजा बलि (श्रीरामचरित मानस के बालि नहीं) जिस रक्षाबंधन में बाँधे गए थे, उसकी कथा अक्सर उद्धृत की जाती है।
बलि के संबंध में विष्णु के पाँचवें अवतार (पहला अवतार मानवों में राम थे) वामन की कथा है कि बलि से संकल्प लेकर उन्होंने तीन कदमों में तीनों लोकों में सबकुछ नाप लिया था। वस्तुतः दो ही कदमों में वामन रूपी विष्णु ने सबकुछ नाप लिया था और फिर तीसरे कदम,जो बलि के सिर पर रखा था, उससे उसे पाताल लोक पहुँचा दिया था। लगता है रक्षाबंधन की परंपरा तब से किसी न किसी रूप में विद्यमान थी।
ऐतिहासिक कारणों से मध्ययुगीन भारत में रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाता था। शायद हमलावरों की वजह से महिलाओं के शील की रक्षा हेतु इस पर्व की महत्ता में इजाफा हुआ हो। तभी महिलाएँ सगे भाइयों या मुँहबोले भाइयों को रक्षासूत्र बाँधने लगीं। यह एक धर्म-बंधन था।
इस युग से रक्षाबंधन ज्यादातर भाई-बहन के लिए सिमटकर रह गया। भारत चूंकि मूलतः परंपरावादी, भावनात्मक एवं संवेदनशील राष्ट्र है, इसलिए सामाजिक स्तर पर सारे राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने के लिए रक्षाबंधन पर्व ने अहम भूमिका निभाई है।
इस दिन बहन तिलक-अक्षत लगाकर भाई की कलाई पर राखी बांधती है और फल-मिठाई खिलाती है। भाई भी श्रद्धा से अपने सामर्थ्य के अनुरूप बहन को वस्त्र, आभूषण, द्रव्य और अन्य वस्तुएँ भेंट करता है। हालाँकि भारत के अलग-अलग भागों में पूजा-विधान में थोड़ा-बहुत फर्क है,परंतु इस पर्व के भाव लगभग एक जैसे हैं।
अनेक स्थानों पर यह पर्व-त्योहार 'यम-द्वितीया' जैसा मनाया जाता है। यम द्वितीया से तात्पर्य भाईदूज जैसे त्योहार से है। महाराष्ट्र के अनेक भागों में श्रावणी-पूर्णिमा व रक्षाबंधन के दिन ऋग्वेद में उल्लेखित जलदेवता वरुण की आराधना की जाती है।