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हम भारत के लोग… जनता और सरकार एक दूसरे को देखते रहो, सिस्टम ऐसे ही तो चलता है

हम भारत के लोग… जनता और सरकार एक दूसरे को देखते रहो, सिस्टम ऐसे ही तो चलता है - We Indian, Indian system, Indian government
इस देश के चरित्र हनन के लिए सबसे ज़्यादा जिम्मेदार ख़ुद इस देश की जनता है। चाहे वो बाज़ारवाद के हाथ की कठपुतली बनने की बात हो या राजनीतिक दलों के तय एजेंडों का शिकार होने की बात हो।

अगर यह बात ग़लत है तो इस देश की कंपनियां अपनी सैंडो बनियान में 21 खूबियां बताकर उपभोक्ता को मूर्ख नहीं बना रही होती, और न ही बॉलीवुड के दो बड़े ‘महानायक’ दो रुपए की विमल को जुबां केसरी बताकर बेच रहे होते।

जिस देश में बाजार अपने विज्ञापन में लोगों को यह बताएं कि हमारा एयरकंडीशन एन्टी बैक्टीरियल और एन्टी वायरस है और हमारी बनियान में खुश्बू है वो बाजार इस देश की जनता को कितना मूर्ख समझती होगी और अब तक कितना मूर्ख बनाती आ रही होगी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।

इसी तरह सभी राजनीतिक दल कई सालों से स्कूल, अस्पताल, पर्यावरण, पेड़-पौधों और जीवन की बेसिक जरूरतों को बगैर अपने घोषणा-पत्र में शामिल किए अब तक जीतते आ रहे हैं। अपनी सरकारें बनाते आ रहे हैं और हम उनके झंडाबरदार होकर ही ख़ुश हैं।

अंदाजा लगाना बेहद मुश्किल नहीं है कि देश के कमर्शियल स्तर और राजनीतिक चरित्र को तय करने या गिराने में 'हम भारत' के लोगों का कितना योगदान है!

यहां आदमी तभी तक ईमानदार है जब तक उसे चोरी करते हुए पकड़ा न गया हो, या तब तक ही जब तक उसे बेईमानी करने का मौका न मिला हो।

70 साल की आज़ादी वाले इस महान देश के चरित्र को पिछले डेढ़ साल के कोरोना संक्रमण ने पूरी तरह उजागर कर दिया है। इन कुछ महीनों में ही हमारे राजनीतिक और सामाजिक चरित्र को नंगा कर दिया है, अब फूटे दीदे वाला भी यह साफ़-साफ़ देख सकता है कि कैसे हमनें रेमडीसीवीर की कालाबाज़ारी की, कैसे हवा बेची और कैसे परोपकार की संस्कृति वाले इस देश के लोगों ने श्मशानों को ठेके पर चलाया। कैसे सवर्ण का शव चिता पर जलाया और कैसे दलित को कचरे के ढेर पर जगह बेची गई।

कैसे सरकार ने इस संक्रमण को त्रासदी और हम भारतवासियों ने इसे सीजन में तब्‍दील कर दिया।

भारत की राजधानी और दुनिया का पावर सेंटर माने-जाने वाले दिल्‍ली में लोग सड़क पर बगैर इलाज के मर रहे हैं।
देश के तमाम शहरों में जीवन-रक्षक दवाओं के लिए लोग नेताओं के पैरों में अपना माथा रगड़ रहे हैं। ऑक्‍सीजन सिलेंडर कांधे पर ढो रहे हैं।

क्‍योंकि स्‍कूल, अस्‍पताल, रिसर्च सेंटर और लेबोरेटरीज की जगह प्रति‍माओं और मंदिरों के लिए अरबों फूंक दिए गए हैं।

धर्म, हिंदुत्व और विकास ने नाम पर मैंडेट हासिल करने वाली सरकार और लाचार  विपक्ष कैसे राजनीतिक मंच पर अपने- अपने कपड़े उतारकर नाच रहे हैं यह भी अंततः सामने आ ही गया।

...तो देश के इस चरित्र का प्रादुर्भाव कोई आजकल में नहीं हुआ, चरित्र हनन का यह विकास क्रम पिछले कई सालों से बल्कि आज़ादी के बाद से ही होता आ रहा है। राजीनीतिक गोरखधंधा कोई आज की बात नहीं, हमारा सामाजिक पतन कोई आज की बात नहीं, और अब बाज़ारवाद हमें ‘फिफ्टी परसेंट डिस्काउंट’ के साथ शिकार कर रहा है।

तो अब ऐसे में दोष किसे दें? सरकार को, विपक्ष को, चीन को, पाकिस्तान को या हम ही को जो कि सौ में से अस्सी बेईमान हैं? और फि‍र भी मेरा देश महान का भ्रम पाले बैठे हैं।

मेरे ख्याल से इतना काफ़ी है एक राष्ट्र के चरित्र का खाका खींचने के लिए। इसके लिए कोई रॉकेट साइंस तो लगना नहीं है।

तो ऐसे चरित्र वाले देश में अस्पताल न हो तो हैरत क्या? डॉक्टर, नर्स और मेडिकल स्टाफ न हो तो हैरत क्या? 21 खूबियों वाली बनियान बिक जाए तो हैरत क्या? देश के बड़े- बड़े कलाकार 2 रुपए की विमल को केसर बताकर बेचे तो हैरत क्या? स्वास्थ्य सेवाएं एक ऑर्गनाइज क्राइम हो और स्कूल- कोचिंग एज्‍युकेशन धंधा बन जाए तो आश्चर्य क्यों होना चाहिए?

थोक में लोग मरे, सड़क पर मरे, अस्पताल में मरे, इलाज के दौरान मरे, इलाज के पहले मरे, इलाज के बगैर मरे, शवों की कतारें लगें और श्मशान में चौबीस घण्टे जलती अखंड चिताओं से देश जगमगता रहे तो इसमें विस्मय क्या?

हम सभी ने ही तो यह सिस्‍टम बनाया है, हम सभी ने ही तो यह देश बनाया है। इसमें आश्‍चर्य कैसा?

हम सरकार के सामने नंगे खड़े हैं, सरकार हमारे सामने नंगी खड़ी है। एक दूसरे को देखते रहो, सिस्टम ऐसे ही तो चलता है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)
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