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Last Modified: शनिवार, 23 जुलाई 2022 (12:38 IST)

राष्ट्रपति की शाही बग्घी की कहानी, जिसे भारत ने पाकिस्तान से टॉस में जीता था

राष्ट्रपति की शाही बग्घी की कहानी, जिसे भारत ने पाकिस्तान से टॉस में जीता था The story of Indian presidents royal carriage  The story of Indian presidents royal carriage - The story of Indian presidents royal carriage
प्रथमेश व्यास

राष्ट्रपति चुनाव 2022 में एनडीए की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू ने बड़े अंतर के साथ जीत हासिल की है। 25 जुलाई, सोमवार को वह राष्ट्रपति पद की शपथ लेंगी। कहा जा रहा है कि इस कार्यक्रम में उन्हें एक शाही बग्घी में बैठाकर समारोह स्थल तक ले जाया जा सकता है। भारत के राष्ट्रपति भवन के इतिहास में इस शाही बग्घी की कहानी बड़ी ही रोचक और महत्वपूर्ण हैं। इसे भारत ने पाकिस्तान से टॉस में जीता था। आइए विस्तार से जानते हैं राष्ट्रपति भवन की शाही बग्घी की कहानी...
 
बंटवारे से जुड़ा बग्घी का इतिहास:
15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ और भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ। उस वक्त दोनों मुल्कों के बीच जमीन, सेना से लेकर हर चीज के बंटवारे के लिए नियम तय किए जा रहे थे। दोनों देशों के बीच बंटवारे की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए प्रतिनिधियों नई नियुक्ति की गई। भारत के प्रतिनिधि थे एच. एम. पटेल वहीं पाकिस्तान की ओर से चौधरी मोहम्मद अली को प्रतिनिधि बनाया गया। हर चीज का बंटवारा जनसंख्या के आधार पर हुआ। उदाहरण के तौर पर राष्ट्रपति के अंगरक्षकों (Bodyguards) को 2:1 के अनुपात में बांटा गया। अब बारी आई राष्ट्रपति की बाघी की, जिसको अपने देश ले जाने के लिए दोनों देशों के प्रतिनिधियों के बीच बहस छिड़ गई। 
 
टॉस ने चुना बग्घी का सही हकदार:
समस्या को उलझता देख अंगरक्षकों के चीफ कमांडेंट ने एक युक्ति खोज निकाली, जिसपर दोनों प्रतिनिधियों ने सहमति जाहिर की। कमांडेंट ने बग्घी के सही हकदार का चुनाव करने के लिए सिक्का उछलने का फैसला किया। ये टॉस राष्ट्रपति बॉडीगार्ड रेजिमेंट के कमांडेंट लेफ्टिनेंट कर्नल ठाकुर गोविन्द सिंह और पाकिस्तान के साहबजादे याकूब खान के बीच हुआ। टॉस भारत ने जीता और ये आलिशान बग्घी सदा के लिए भारत की हो गई। 
 
प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने किया पहली बार उपयोग:
बरतानिया हुकूमत के दौरान यह बग्घी वायसराय को मिली थी। आजादी के बाद इसका इस्तेमाल खास मौकों पर राष्ट्रपति को लाने ले जाने के लिए किया जाने लगा। पहली बार इसका उपयोग भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 1950 में गणतंत्र दिवस के मौके पर किया था। इसके बाद कई राष्ट्रपतियों को उनके भवन से गणतंत्र दिवस के कार्यम्रम स्थल तक लाने के लिए इस बग्घी का इस्तेमाल किया जाने लगा। राष्ट्रपति अपने 330 एकड़ में फैले भवन में भी इसी से चलते हैं। 
 
यूं ही नहीं कहते 'महामहीम' की बग्घी:
काले रंग की इस शाही बग्घी के ऊपर सोने की परत चढ़ी हुई है और इसे खींचने के लिए खास किस्म में घोड़ों का चयन किया जाता है। आजादी के पहले इसे 6 ऑस्ट्रेलियाई घोड़ों से खिंचवाया जाता था। लेकिन, अब इसे सिर्फ 4 ही घोड़े खींचते हैं। इस पर भारत के राष्ट्रीय चिह्न को भी अंकित किया गया है। 
 
इंदिरा गांधी की हत्या से बदले बग्घी के नियम:
1984 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या उनके ही दो अंगरक्षकों द्वारा कर दी गई, जिसके बाद राष्ट्रपति की सुरक्षा को देखते हुए बग्घी की जगह बुलेटप्रूफ गाड़ियों का इस्तेमाल किया जाने लगा। लगभग 30 साल इस बग्घी का इस्तेमाल नहीं किया गया। लेकिन, समय-समय पर इसकी उचित देखभाल जरूर होती रही। हालांकि, कभी-कभार 2002 से 2007 तक भारत के राष्ट्रपति रहे डॉ. एपीजे अब्दुल कलम राष्ट्रपति भवन परिसर में घूमने के लिए बग्घी का इस्तेमाल कर लिया करते थे। 
 
जब पहली बार बग्घी में बैठे दो राष्ट्रपति:
2014 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने एक बार फिर बग्घी का इस्तेमाल शुरू किया। मुखर्जी बीटिंग रिट्रीट कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए इस बग्घी पर सवार होकर पहुंचे थे। इसके बाद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इसका इस्तेमाल किया। इतिहास में पहली बार देश ने इस बग्घी पर दो राष्ट्रपतियों को बैठते देखा। कोविंद के शपथ ग्रहण समारोह में पूर्व राष्ट्रपति बग्घी की बाईं ओर जबकि रामनाथ कोविंद दाईं ओर बैठकर राष्ट्रपति भवन पहुंचे। कहा जा रहा है कि देश की नवनिर्वाचित राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू भी 25 जुलाई को आयोजित अपने शपथ ग्रहण समारोह में इसी शाही बग्घी में बैठकर पहुचेंगी।
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