नई दिल्ली, चाय बागानों में कीटों का प्रकोप एक बड़ी चुनौती है, जिसके कारण बड़े पैमाने पर नुकसान उठाना पड़ता है। कीटनाशकों के छिड़काव से कीटों के प्रकोप को कुछ हद नियंत्रित किया जा सकता है, लेकिन रसायनों के संपर्क में आने से चाय की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। महामारी के दौरान लॉकडाउन के कारण कई चाय बागानों में कीटनाशकों का समय पर उपयोग नहीं किया जा सका, जिसके कारण प्रमुख चाय कंपनियों को कीटों के प्रकोप से लगभग 20 से 25 प्रतिशत फसल का नुकसान उठाना पड़ा था।
असम के जोरहाट में स्थित टोकलाई चाय अनुसंधान संस्थान के शोधकर्ताओं ने चाय बागानों को नुकसान पहुंचाने वाले उन कीटों के खिलाफ जैविक प्रहार की रणनीति तैयार की है, जो चाय की सबसे अच्छी मानी जाने वाली टहनियों को खाने के लिए जाना जाते हैं। चाय पर दुनिया के सबसे पुराने शोध केंद्रों में शुमार टोकलाई चाय अनुसंधान संस्थान ने हाल ही में संस्थान के प्रायोगिक उद्यानों में से एक में विशिष्ट मित्र कीटों का एक झुंड छोड़ा है। ये कीट लूपर और चाय के मच्छर जैसे हानिकारक कीटों को अपना शिकार बनाते हैं, जिन्हें इस क्षेत्र में चाय की झाड़ी का सबसे बड़ा दुश्मन माना जाता है।
टोकलाई चाय अनुसंधान संस्थान के निदेशक अज़रियाह बाबू ने कहा, "चाय के शत्रु कीटों को नष्ट करने के लिए रेडुविड (साइकेनस कॉलरिस) कीटों का प्रयोग किया जा रहा है। रेडुविड कीट शिकारी प्रकृति के होते हैं, और लूपर एवं चाय के मच्छरों को खाते हैं। हम मानते हैं कि चाय के कीटों के खिलाफ यह जैविक युद्ध भारत में चाय उद्योग के लिए एक दीर्घकालिक सफलता की कहानी होगी।"
पूर्व के अध्ययनों में चाय में हानिकारक कीटनाशक अवशेष पाये गए हैं, जिसके बाद भारत में चाय क्षेत्र से कीटनाशक ट्रेडमिल दूर करने का आग्रह किया गया, और पारिस्थितिक कृषि दृष्टिकोण अपनाने के लिए आह्वान किया गया। पिछले साल, अंतरराष्ट्रीय और घरेलू खरीदारों ने मान्य सीमा से अधिक कीटनाशकों और रसायनों की उपस्थिति के कारण भारत से चाय की कई खेपों को नकार दिया था।
अज़रियाह बाबू कहते हैं कि भारत में चाय की झाड़ियों में कीटों को नियंत्रित करने के लिए रेडुविड (साइकेनस कॉलरिस) कीटों से समर्थित जैविक विधि के उपयोग से कीट नियंत्रण के लिए उपयोग होने वाले रासायनिक कीटनाशकों का भार कम होगा। उन्होंने कहा कि रेडुविड कीड़े पहले चाय पारिस्थितिकी तंत्र का हिस्सा थे। लेकिन, चाय बागानों में कीटनाशकों के लगातार उपयोग से ये कीड़े लगभग गायब हो गए।
इस परियोजना का मूल उद्देश्य भारतीय चाय में कीटनाशकों के भार को कम करना और चाय बागानों के पारिस्थितिक तंत्र में सुधार करना है। इसके अंतर्गत पश्चिम बंगाल के डुआर्स और तराई क्षेत्रों से रेडुविड कीड़े एकत्र किए गए हैं, जिन्हें संस्थान की एक प्रयोगशाला में संवर्द्धित किया जा रहा है, और उनके व्यवहार का अवलोकन किया जा रहा है।
टोकलाई चाय अनुसंधान संस्थान में कार्यरत कीटविज्ञानी सोमनाथ रॉय कहते हैं, "एक वयस्क मादा रेडुविड कीट प्रति दिन लूपर के आठ लार्वा तक खा सकती है। टोकलाई में एक अन्य सफल प्रयोग में पाया गया है कि गेंदा, ग्लेडियोलस और डहलिया जैसे मौसमी फूल वाले पौधे अच्छे कीट विकर्षक हैं, विशेष रूप से उन कीटों के लिए जो चाय की पत्तियों को खाते हैं। इसीलिए, फूल के इन पौधों को चाय की झाड़ियों के बीच लगाया जा रहा है।”
चाय बागानों में इन मौसमी फूलों के पौधों को लगाने से न केवल कीटों को दूर करने में मदद मिलेगी, बल्कि चाय बागान मालिकों के लिए आय का एक अतिरिक्त स्रोत बन जाएगा। छोटे चाय उत्पादकों को इसका विशेष लाभ हो सकता है, जो सर्दियों के मौसम में इन फूलों को बेचकर अतिरिक्त आय अर्जित कर सकते हैं।
टोकलाई की योजना इस पहल में छोटे चाय उत्पादकों को शामिल करने की है, ताकि वे रेडुविड कीटों का संवर्द्धन कर सकें, जिसे वे बड़े बागानों को बेच सकें। छोटे चाय उत्पादक आज कुल उत्पादन का 50 प्रतिशत से अधिक का उत्पादन करने वाले भारतीय चाय उद्योग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रॉय ने कहा, "इन कीटों का पालन एवं संवर्द्धन आसान है, जो छोटे चाय उत्पादकों के लिए आय का एक अन्य स्रोत हो सकता है।"
रॉय बताते हैं कि कई कीड़े, जो चाय की पत्तियों के दुश्मन माने जाते हैं, वो स्थानीय मैना और चमगादड़ जैसी जीवों के लिए आम भोजन हैं। उन्होंने कहा, "हम चाय बागानों में ऐसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जहाँ हानिकारक कीटों को शिकार बनाने वाले पक्षी वापस लौट सकें, और शत्रु कीटों की आबादी पर लगाम लगा सकें। चाय की झाड़ियों के बीच फलों के पौधे लगाने से इन पक्षियों को बागानों की ओर आकर्षित करने में मदद मिल सकती है।"
सोमनाथ रॉय कहते हैं, "इस तरह की पहल से हमारी कोशिश चाय बागानों में ऐसा तंत्र विकसित करने की है, जिसमें हानिकारक तत्वों को नष्ट करने के लिए पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध प्राकृतिक अस्त्रों का उपयोग सुनिश्चित करने पर जोर दिया जा रहा है।"
(इंडिया साइंस वायर)
Edited By Navin Rangiyal