1.3 मिलियन घरेलू और 54 मिलियन सरकारी शौचालय बनाने वाले डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने भारत में कैसे खड़ी की ये क्रांति
- सुलभ इंटरनेशनल संगठन से 275 करोड़ रुपए का साम्राज्य खड़ा हुआ
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सुलभ इंटरनेशनल संगठन में 60,000 लोग काम करते हैं
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डॉ. बिंदेश्वर पाठक ने भारत में 1.3 मिलियन घरेलू और 54 मिलियन सरकारी शौचालय बनाए
भारत में मैला ढोना न सिर्फ देश के लिए एक दाग की तरह था, बल्कि लोगों के लिए अभिशाप भी था। लेकिन डॉ बिंदेश्वर पाठक ने शौचालय बनाकर देश में एक क्रांति ला दी। अपने पूरे जीवन में अथक प्रयास से डॉ बिंदेश्वर पाठक ने 1.3 मिलियन घरेलू और 54 मिलियन सरकारी शौचालय बनाने की बेहरतरीन मिसाल पेश की। देशभर में सुलभ इंटरनेशनल के करीब 8500 शौचालय और स्नानघर हैं। सुलभ इंटरनेशनल के शौचालय के प्रयोग के लिए 5 रुपये और स्नान के लिए 10 रुपए लिए जाते हैं, जबकि कई जगहों पर इन्हें सामुदायिक प्रयोग के लिए मुफ़्त भी रखा गया है। इस क्रांति के जनक पद्मभूषण डॉ. बिंदेश्वर पाठक का मंगलवार को निधन हो गया।
कैसे बदल दिया गरीबों-वंचितों का जीवन : दरअसल, डॉ. बिंदेश्वर पाठक को मुख्य रूप से भारत में सुलभ शौचालय का जनक माना जाता है। शौचालय क्रांति की मदद से गरीबों और वंचितों के जीवन में बदलाव लाने डॉ बिंदेश्वर पहले शख्स थे। सुलभ शौचालय के जनक होने के साथ ही वे इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन के संस्थापक भी थे। पद्मभूषण से सम्मानित बिंदेश्वर पाठक ने 1970 के दशक में सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विसेज की नींव रखी थी। अपने इसी अभियान की मदद से उन्होंने पूरे देश में बस अड्डों, रेलवे स्टेशन और दूसरी सार्वजनिक जगहों पर शौचालय बनाए। मंगलवार को उन्होंने सुलभ इंटरेशनल के मुख्यालय में तिरंगा फहराया था। इसके ठीक बाद उनकी तबीयत खराब हो गई। उन्हें एम्स ले जाया गया, जहां उनका निधन हो गया।
कौन थे डॉ पाठक : 2 अप्रैल 1043 में जन्मे डॉ. पाठक ने 1970 में सुलभ इंटरनेशन की स्थापना की थी। उन्होंने 54 मिलियन सरकारी शौचालय बनवाए। यह एक उपलब्धि है। हालांकि, सुलभ इंटरनेशनल एक सामाजिक संगठन था। सुलभ इंटरनेशनल में उन्होंने दो देसी फ्लश टॉयलेट विकसित किए।
कितने शौचालय बनवाए : एक समय था जब शौचालय जैसी कोई सुविधा देश में थी ही नहीं, लेकिन डॉ पाठक ने इसे क्रांति बना दिया। उनके प्रयासों के चलते ही पूरे देश में सुलभ शौचालय का एक नेटवर्क खड़ा हो गया। अपने पूरे जीवन में डॉ बिंदेश्वर पाठक ने 1.3 मिलियन घरेलू शौचालय और 54 मिलियन सरकारी शौचाल बनवाए। बिंदेश्वर पाठक सुलभ इंटरनेशनल संगठन से करीब 275 करोड़ रुपए से अधिक का साम्राज्य खड़ा कर दिया। इनके संगठन में 60,000 लोग काम करते हैं।
खत्म की मैला ढोने की प्रथा, विधवाओं का पुनर्वास किया : इतना ही नहीं, डॉ बिंदेश्वर पाठक का मैला ढोने की प्रथा को खत्म करने के साथ ही विधवाओं के पुर्नवास में बेहद अहम योगदान है। उन्होंने संगठन सुलभ ने वृंदावन, वाराणसी और उत्तराखंड की करीब 2,000 से ज्यादा विधवा महिलाओं के पुनर्वास के लिए काम किया। ये संगठन उनकी देखभाल भी कर रहा है। वहीं, सिर पर मैला ढोने की दुष्परंपरा को खत्म करने के लिए सुलभ संगठन ने बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सुलभ ने न सिर्फ सिर पर मैला ढोने वाले समाज के सैकड़ों लोगों को इस अभिशाप से बाहर निकाला, बल्कि मुख्य धारा में उन्हें लाने को लेकर भी काम कर रहा है। उन्होंने सूखे शौचालयों को साफ करने वाले हाथ से लेकर मैला ढोने वालों के अधिकारों के लिए अथक प्रयास किए और उनका जीवन बदला।
9 कमरों का घर, शौचालय एक भी नहीं : बिंदेश्वर पाठक का जन्म 2 अप्रैल 1943 को बिहार के वैशाली डिस्ट्रिक्ट में हुआ था। उनका बचपन बेहद संघर्ष में रहा। उनके घर में 9 कमरे थे, लेकिन शौचालय एक भी नहीं था। ऐसे में परिवार के सभी सदस्यों को शौच करने के लिए खेतों में जाना पड़ता था। उन्होंने प्रारंभिक पढ़ाई गांव में ही की। इसके बाद वे आगे की पढ़ाई करने के लिए बनारस चले गए। उन्होंने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी से समाज शास्त्र में ग्रेजुएशन की पढ़ाई की। इसके बाद वे पटना आ गए। पटना आने के बाद उन्होंने पटना यूनिवर्सिटी से मास्टर और पीएचडी की डिग्री पूरी की।
मां और गांधी की प्रेरणा से बदला जीवन : डॉ. पाठक महात्मा गांधी से प्रेरित थे। भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता और सुलभ शौचालय जैसी सस्ती तकनीक के जनक डॉ. बिंदेश्वर पाठक को प्रतिष्ठित निक्की एशिया पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उन्हें यह पुरस्कार संस्कृति और समुदाय श्रेणी के लिए दिया गया था। गांधी के साथ ही पाठक अपनी मां से काफी प्रभावित थे। उनका कहना था- मेरी ने मुझे हमेशा दूसरों की मदद करना सिखाया। मां की सीख थी कि मैंने कभी भी किसी से बदले में कोई अपेक्षा नहीं की। मैंने उनसे किसी की मदद के बदले में कुछ भी नहीं मांगा, क्योंकि इंसान अपने लिए नहीं बल्कि दूसरों के लिए पैदा होता है।
Edited By navin rangiyal