शुक्रवार, 29 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. साहित्य
  3. मेरा ब्लॉग
  4. Only the letter of the public can break the silence of the Prime Minister

जनता की चिट्ठी ही तुड़वा सकती है पीएम की चुप्पी!

जनता की चिट्ठी ही तुड़वा सकती है पीएम की चुप्पी! - Only the letter of the public can break the silence of the Prime Minister
देश में चल रही धार्मिक हिंसा और नफ़रत की राजनीति के ख़िलाफ़ कुछ सेवानिवृत्त नौकरशाहों और अन्य जानी-मानी हस्तियों के द्वारा प्रधानमंत्री के नाम खुली चिट्ठी लिखकर उनसे अपील की गई है कि वे अपनी चुप्पी तोड़कर तुरंत हस्तक्षेप करें पर मोदी इन पत्र-लेखकों को उपकृत नहीं कर रहे हैं।देश के कामकाज में किसी समय प्रतिष्ठित पदों पर कार्य करते हुए उल्लेखनीय भूमिका निभाने वाले इन महत्वपूर्ण लोगों की चिंताओं का भी अगर प्रधानमंत्री संज्ञान नहीं लेना चाहते हैं तो समझ लिया जाना चाहिए कि उसके पीछे कोई बड़ा कारण या असमर्थता है और नागरिकों को उससे परिचित होने की तात्कालिक रूप से कोई आवश्यकता नहीं है।

कोई एक सौ आठ सेवानिवृत्त नौकरशाहों (ब्यूरोक्रेट्स) ने जब भाजपा शासित राज्यों में पनप रही ‘नफ़रत की राजनीति’ को ख़त्म करने के लिए खुली चिट्ठी के ज़रिए पीएम से अपनी गहरी चुप्पी को तोड़ने का निवेदन किया होगा तब उन्हें इस बात की आशंका नहीं रही होगी कि मोदी उनकी बात का कोई संज्ञान नहीं लेंगे।चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वालों में कई या कुछ नौकरशाहों ने तो अपनी सेवा-निवृत्ति के पहले वर्तमान सरकार के साथ भी काम किया है।

उल्लेख किया जा सकता है कि 108 नौकरशाहों द्वारा लिखी गई उक्त चिट्ठी पर पीएम ने तो अपनी खामोशी नहीं तोड़ी पर सरकार के समर्थन में उसका जवाब आठ पूर्व न्यायाधीशों, 97 पूर्व नौकरशाहों और सशस्त्र बलों के 92 पूर्व अधिकारियों की ओर से दे दिया गया।कुल 197 लोगों के इस समूह ने आरोप लगा दिया कि 108 लोगों की चिट्ठी राजनीति से प्रेरित और सरकार के ख़िलाफ़ चलाए जाने वाले अभियान का हिस्सा थी।

पिछले साल के आख़िर में उत्तराखंड की धार्मिक नगरी हरिद्वार में आयोजित हुई विवादास्पद ‘धर्म संसद’ में कतिपय ‘साधु-संतों’ की ओर से मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंदुओं द्वारा हथियार उठाने की ज़रूरत के उत्तेजक आह्वान के तत्काल बाद भी इसी तरह से राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायाधीश को चिट्ठियां लिखी गईं थीं पर कोई नतीजा नहीं निकला।सुप्रीम कोर्ट के 76 वकीलों ने एनवी रमना को पत्र लिखकर हरिद्वार में दिए गए नफ़रती भाषणों का संज्ञान लेने का अनुरोध किया था।पत्र में कहा गया था कि पुलिस कार्रवाई न होने पर त्वरित न्यायिक हस्तक्षेप ज़रूरी हो जाता है।

इसी दौरान सशस्त्र बलों के पांच पूर्व प्रमुखों और सौ से अधिक अन्य प्रमुख लोगों ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मांग की थी कि सरकार, संसद और सुप्रीम कोर्ट तत्काल प्रभाव से कार्रवाई करते हुए देश की एकता और अखंडता की रक्षा करे।कहना होगा कि इन तमाम चिट्ठियों और चिंताओं के कोई उल्लेखनीय परिणाम नहीं निकले।हरिद्वार के बाद भी धर्म संसदों या धर्म परिषदों के आयोजन होते रहे और अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रती हिंसा वाले उद्बोधन भी जारी रहे।

सेवानिवृत्त नौकरशाहों, राजनयिकों, विधिवेत्ताओं और सशस्त्र सेनाओं के पूर्व प्रमुखों की चिंताओं के विपरीत जो लोग सत्ता के नज़दीक हैं उनका मानना है कि नफ़रत की राजनीति के आरोप अगर वास्तव में सही हैं तो प्रधानमंत्री को चिट्ठियां नागरिकों के द्वारा लिखी जानी चाहिए और वे ऐसा नहीं कर रहे हैं।

सत्ता-समर्थकों का तर्क है कि जो कुछ चल रहा है उसके प्रति बहुसंख्य नागरिकों में अगर प्रत्यक्ष तौर पर कोई नाराज़गी नहीं है तो फिर उन मुट्ठीभर लोगों के विरोध की परवाह क्यों की जानी चाहिए जिन्हें न तो कोई चुनाव लड़ना है और न ही कभी जनता के बीच जाना है? दांव पर तो उन लोगों का भविष्य लगा हुआ जिन्हें हर पांच साल में वोट मांगने जनता के पास जाना पड़ता है।जो लोग नफ़रत की राजनीति को मुद्दा बनाकर विरोध कर रहे हैं जनता के बीच उनकी कोई पहचान नहीं है।जनता जिन चेहरों को पहचानती है वे बिलकुल अलग हैं।

दूसरा यह भी कि ‘नफ़रत की राजनीति’ अगर सत्ता को मज़बूत करने में मदद करती हो तो उन राजनेताओं को उसका इस्तेमाल करने से क्यों परहेज़ करना चाहिए जिनका कि साध्य की प्राप्ति के लिए साधनों की शुद्धता के सिद्धांत में कोड़ी भर यक़ीन नहीं है?

इस सच्चाई की तह तक जाना भी ज़रूरी है कि हरेक सत्ता परिवर्तन के साथ हुकूमतें नौकरशाहों और संवैधानिक संस्थानों के शीर्ष पदों पर पहले से तैनात योग्य और ईमानदार लोगों को सिर्फ़ इसलिए बदल देती हैं कि उनकी धार्मिक-वैचारिक निष्ठाओं को वे अपने एजेंडे के क्रियान्वयन के लिए संदेहास्पद मानती हैं।इसीलिए ऐसा होता है कि नफ़रत की राजनीति के ख़िलाफ़ चिट्ठी लिखने वाले नौकरशाह, 'जो कुछ चल रहा है उसमें ग़लत कुछ भी नहीं है' कहने वाले नौकरशाहों से अलग हो जाते हैं।इसे यूं भी देख सकते हैं कि नफ़रत की राजनीति ने नागरिकों को ऊपर से नीचे तक बांट दिया है।

नफ़रत की राजनीति को सफल करने की ज़रूरी शर्त ही यही है कि सत्ता के एकाधिकारवाद की रक्षा में नागरिक ही एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़े हो जाएं या कर दिए जाएं और सरकार चुप्पी साधे रहे, वह किसी के भी पक्ष में खड़ी नज़र नहीं आए यानी जो नौकरशाह नफ़रत की राजनीति को लेकर चिंता जता रहे हैं उन्हें भी वह चुनौती नहीं दे और जो उसके बचाव में वक्तव्य दे रहे हैं उनकी भी पीठ नहीं थपथपाए।

प्रधानमंत्री ने अपने इर्दगिर्द जिस तिलिस्म को खड़ा कर लिया है उसकी ताक़त ही यही है कि वे बड़ी से बड़ी घटना पर भी अपनी खामोशी को टूटने या भंग नहीं होने देते।खामोशी के टूटते ही तिलिस्म भी भरभराकर गिर पड़ेगा।मुमकिन है हरिद्वार की तरह की और भी कई धर्म संसदें देश में आयोजित हों जिनमें नफ़रत की राजनीति को किसी निर्णायक बिंदु पर पहुंचाने के प्रयास किए जाएं और नौकरशाहों के समूह भी इसी तरह विरोध में चिट्ठियां भी लिखते रहें।

होगा यही कि हरेक बार प्रधानमंत्री या सत्ता की ओर से वे लोग ही सामने आकर जवाब देंगे जिनका कि सवालों या शिकायतों से कोई संबंध नहीं होगा।प्रधानमंत्री की खामोशी उस दिन निश्चित ही टूट जाएगी जिस दिन नफ़रत की राजनीति को लेकर नागरिक भी उन्हें चिट्ठियां लिखने की हिम्मत जुटा लेंगे। अतः प्रधानमंत्री की खामोशी तुड़वाने के लिए नौकरशाहों को पहले जनता के पास जाकर उसकी चुप्पी को तुड़वाना पड़ेगा।(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)
ये भी पढ़ें
पेट का भार ज्यादा बढ़ा तो समझ लीजिए आप खतरे में - डॉ. बंशी साबू