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21 फरवरी : अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विशेष

21 फरवरी : अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विशेष - International Language Day 2023
International Language Day 
 
मातृभाषा का अर्थ है मातृ की भाषा अर्थात वह भाषा जो बालक अपनी माता से सीखता है। बाल्यकाल से ही मातृभाषा में बोलने और सुनने के कारण व्यक्ति अपनी भाषा में निपुण हो जाता है। मातृभाषा किसी भी व्यक्ति की पहचान होती है। मातृभाषा का जीवन में अत्यंत महत्व होता है। कोई भी व्यक्ति अपनी मातृभाषा में अपने विचारों को सरलता से व्यक्त करने में सक्षम होता है, क्योंकि व्यक्ति सदैव अपनी मातृभाषा में ही विचार करता है। इसलिए उसे अपनी मातृभाषा में कोई भी विषय समझने में सुगमता होती है, जबकि किसी अन्य भाषा में उसे कठिनाई का सामना करना पड़ता है। 
 
मातृभाषा व्यक्ति के सर्वांगीण विकास की आधारशिला है वह व्यक्ति को उसकी संस्कृति से जोड़ने में सक्षम होती है। मातृभाषा द्वारा व्यक्ति को अपनी मूल संस्कृति एवं संस्कारों का ज्ञान होता है। मातृभाषा द्वारा व्यक्ति अपने समाज से भी जुड़ा रहता है। उदाहरण के लिए- यदि किसी की मातृभाषा भोजपुरी है, तो वह व्यक्ति उन लोगों से मिलकर अपनत्व का अनुभव करेगा, जो भोजपुरी बोलते हैं। लोग अपने दैनिक जीवन में अपनी मातृभाषा ही बोलते हैं। मातृभाषा के लिए कहा गया है कि 'कोस-कोस पर पानी बदले, तीन कोस पर वाणी' अर्थात 'पीने वाला पानी का स्वाद एक कोस की दूरी पर बदल जाता है। साथ ही मातृभाषा तीन कोस की दूरी पर बदलती है।' 
 
लोग बचपन में स्थानीय भाषा में कहानियां-कथाएं सुनते हैं, जो उन्हें जीवन में सदैव याद रहती हैं। स्थानीय बोलचाल व्यक्ति को स्थान विशेष से जोड़कर रखती है। मातृभाषा का चिंतन हमें हमारे मूल्यों से जोड़ता है। मातृभाषा व्यक्ति के मानसिक विकास के लिए बहुत आवश्यक है। मातृभाषा में ही विचारों का प्रवाह हो सकता है, जो किसी अन्य भाषा में संभव नहीं है। 
 
भारत ही नहीं, अपितु विश्व भर के विद्वान भी मातृभाषा में शिक्षा प्रदान किए जाने को महत्व देते हैं। शिक्षा शास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों का मत है कि मातृभाषा में सोचने से, विचार करने से, चिंतन मनन करने से बालकों में बुद्धि तीक्ष्ण होकर कार्य करती है। संवाद की सुगम भाषा मातृभाषा है। मातृभाषा व्यक्ति के आत्मिक लगाव, विश्वास मूल्य और संबंध मूल्य को मजबूत करती है। 
 
सर सीवी रमन के अनुसार- हमें विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में देनी चाहिए, अन्यथा विज्ञान एक छद्म कुलीनता और अहंकारभरी गतिविधि बनकर रह जाएगा। और ऐसे में विज्ञान के क्षेत्र में आम लोग कार्य नहीं कर पाएंगे।'
 
भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनुसार- 'निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटन न हिय के सूल।' अर्थात मातृभाषा की उन्नति के बिना किसी भी समाज की उन्नति संभव नहीं है तथा अपनी भाषा के ज्ञान के बिना मन की पीड़ा को दूर करना भी कठिन है। 
 
सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित गिरधर शर्मा के अनुसार- 'विचारों का परिपक्व होना भी तभी संभव होता है, जब शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो।' 
 
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी मातृभाषा के महत्व से भली-भांति परिचित थे। वे कहते थे कि- 'मनुष्य के मानसिक विकास के लिए मातृभाषा उतनी ही जरूरी है, जितना की बच्चे के शारीरिक विकास के लिए माता का दूध। बालक पहला पाठ अपनी माता से ही पढ़ता हैं, इसलिए उसके मानसिक विकास के लिए उसके ऊपर मातृभाषा के अतिरिक्त कोई दूसरी भाषा लादना मैं मातृभूमि के विरुद्ध पाप समझता हूं।'
 
नेल्सन मंडेला के अनुसार- 'यदि आप किसी से ऐसी भाषा में बात करते हैं जो उसे समझ में आती है तो वह उसके मस्तिष्क तक पहुंचती है, परन्तु यदि आप उससे उसकी मातृभाषा में बात करते हैं तो बात उसके हृदय तक पहुंचती है।'
 
ब्रिघम यंग के अनुसार 'हमें अपने बच्चों को पहले उनकी मातृभाषा में समुचित शिक्षा देनी चाहिए, उसके पश्चात ही उन्हें उच्च शिक्षा की किसी भी शाखा में जाना चाहिए।'  
 
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट से भी यह सिद्ध होता है कि अपनी मातृभाषा में चिकित्सा एवं विज्ञान आदि विषयों में पढ़ाई करवाने वाले देशों में चिकित्सा एवं स्वास्थ्य व्यवस्था बहुत अच्छी स्थिति में है। देश के पड़ोसी देश चीन, रूस, जर्मनी, फ्रांस एवं जापान आदि देश अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। ये सभी देश लगभग प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी हैं एवं उन्नति के शिखर को छू रहे हैं। 
 
इन सभी देशों ने अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्रदान करके ही सफलता प्राप्त की है। यदि स्वतंत्रता के पश्चात हमारे देश में भी क्षेत्रीय भाषाओं में चिकित्सा, विज्ञान एवं तकनीकी शिक्षा प्रदान की जाती तो आज भारत भी उन्नति के शिखर पर होता। परन्तु अब भी समय है।  
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी देश की क्षेत्रीय भाषाओं को प्रोत्साहित कर रहे हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्थानीय भाषाओं को अत्यंत महत्व दिया जा रहा है। देश में हिंदी में चिकित्सा की पढ़ाई प्रारंभ होना भी इसी दिशा में उठाया हुआ एक कदम है। आशा है कि इस से देश में बड़ा सकारात्मक परिवर्तन आएगा। लाखों छात्र अपनी भाषा में अध्ययन कर सकेंगे तथा उनके लिए कई नए अवसरों के द्वार भी खुलेंगे।
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि मां और मातृभाषा मिलकर जीवन को मजबूती प्रदान करते हैं तथा कोई भी इंसान अपनी मां एवं मातृभाषा को न छोड़ सकता है और न ही इनके बिना उन्नति कर सकता है। मैं तो मातृभाषा के लिए यही कहूंगा कि जैसे हमारे जीवन को हमारी मां गढ़ती है, वैसे ही मातृभाषा भी हमारे जीवन को गढ़ती है। मां और मातृभाषा दोनों मिलकर जीवन के आधार को मजबूत बनाते हैं, चिरंजीव बनाते हैं। जैसे हम अपनी मां को नहीं छोड़ सकते, वैसे ही अपनी मातृभाषा को भी नहीं छोड़ सकते। 
 
मुझे बरसों पहले अमेरिका में एक बार एक तेलुगू परिवार में जाना हुआ और मुझे एक बहुत खुशी का दृश्य वहां देखने को मिला। उन्होंने मुझे बताया कि हम लोगों ने परिवार में नियम बनाया है कि कितना ही काम क्यों न हो, लेकिन अगर हम शहर के बाहर नहीं हैं तो परिवार के सभी सदस्य भोजन की मेज पर बैठकर तेलुगू भाषा बोलेंगे। जो बच्चे वहां पैदा हुए थे, उनके लिए भी ये नियम था। अपनी मातृभाषा के प्रति ये प्रेम देखकर इस परिवार से मैं बहुत प्रभावित हुआ था। 
 
प्रधानमंत्री ने कहा कि आजादी के 75 साल बाद भी कुछ लोग ऐसे द्वंद्व हैं, जिसके कारण उन्हें अपनी भाषा, अपने पहनावे, अपने खान-पान को लेकर संकोच होता है, जबकि विश्व में कहीं और ऐसा नहीं है। मातृभाषा को गर्व के साथ बोला जाना चाहिए और हमारा देश तो भाषाओं के मामले में इतना समृद्ध है कि उसकी तुलना ही नहीं हो सकती। हमारी भाषाओं की सबसे बड़ी खूबसूरती ये है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक, कच्छ से कोहिमा तक सैंकड़ों भाषाएं, हजारों बोलियां एक दूसरे से अलग लेकिन एक दूसरे में रची-बसी हैं। हमारी भाषा अनेक, लेकिन भाव एक है।
 
भाषा, केवल अभिव्यक्ति का ही माध्यम नहीं, बल्कि भाषा समाज की संस्कृति और विरासत को भी सहेजने का काम करती है। हमारे यहां भाषा की अपनी खूबियां हैं, मातृभाषा का अपना विज्ञान है। इस विज्ञान को समझते हुए ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्थानीय भाषा में पढ़ाई पर जोर दिया गया है। आज देखने को मिल रहा है कि बच्चे अपनी मातृभाषा में गिनती नहीं करते, अपितु अंग्रेजी में गणना करते हैं। अंग्रेजी का ज्ञान भी प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि यह भी समय की मांग है। किन्तु अपनी मातृभाषा को तुच्छ समझना उचित नहीं है।
 
माता-पिता भी बच्चों को अपनी मातृभाषा की बजाय अंग्रेजी में बात करते हुए देखकर प्रसन्न होते हैं। वे अपने बच्चों को इसके लिए प्रोत्साहित करते हैं। ऐसा करने से बच्चे भी अंग्रेजी को उच्च मानने लगते हैं। उन्हें अपनी मातृभाषा तुच्छ लगने लगती है। इस प्रकार वे अपनी संस्कृति से भी दूर होने लगते हैं। उन्हें अंग्रेजी के साथ-साथ पश्चिमी सभ्यता अच्छी लगने लगती है। वे स्वयं को श्रेष्ठ समझने लगते हैं तथा उन्हें अपनी लोकभाषा अर्थात मातृभाषा में बात करने वाले लोग तुच्छ लगने लगते हैं।  
 
 
हमारे विशाल भारत देश में अनेक भाषाएं हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 121 भाषाएं हैं तथा 1369 मातृभाषा हैं। वर्ष 2001 की जनगणना की तुलना में वर्ष 2011 में हिंदी को अपनी मातृभाषा की बताने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है। वर्ष 2001 में 43.03 प्रतिशत लोगों ने हिंदी को अपनी मातृभाषा बताया था, जबकि वर्ष 2011 में 43.6 प्रतिशत लोगों ने हिंदी को अपनी मातृभाषा बताया। देश की सूचीबद्ध भाषाओं में संस्कृत सबसे कम बोली जाने वाली भाषा बनी हुई है। मात्र 24821 लोगों ने संस्कृत को अपनी मातृभाषा बताया। गैर सूचीबद्ध भाषाओं में अंग्रेजी को लगभग 2.6 लाख लोगों ने अपनी मातृभाषा बताया। इसमें लगभग 1.60 लाख लोग महाराष्ट्र के हैं। 
 
मातृभाषा के महत्व के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए प्रतिवर्ष 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन ने सर्वप्रथम 17 नवंबर 1999 को प्रतिवर्ष 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस मनाने की घोषणा की थी। उसके पश्चात वर्ष 2000 से विश्व भर में प्रतिवर्ष 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है।

संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन के अनुसार मातृभाषा को बढ़ावा देने से न केवल सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषी शिक्षा को बढ़ावा मिलता है, अपितु जातीय परंपराओं और भाषा विज्ञान पर भी अधिक ध्यान पैदा होता है। इसके अतिरिक्त मान्यता समझ, संवाद और सहिष्णुता के आधार पर एकता को बढ़ावा देती है।
 
(लेखक-मीडिया शिक्षक एवं राजनीतिक विश्लेषक है)