आज हमारे समाज में वृद्ध लोगों को दोयम दर्जे के व्यवहार का सामना करना पड़ रहा है। देश में तेजी से सामाजिक परिवर्तनों का दौर चालू है और इस कारण वृद्धों की समस्याएं विकराल रूप धारण कर रही हैं। इसका मुख्य कारण देश में उत्पादक एवं मृत्यु दर का घटना एवं राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जनसंख्या की गतिशीलता है। देश में जल्दी ही यह विषमता आने वाली है कि वृद्धजन, जो कि जनसंख्या का अनुत्पादक वर्ग है, वह शीघ्र ही उत्पादक वर्ग से बड़ा होने वाला है।
यद्यपि यह समस्या इतनी गंभीर नहीं है जितनी वृद्धों के समाज में समन्वय की समस्या है। वृद्धों के समाज में समन्वय न होने के 2 मुख्य कारण हैं- 1. उम्र बढ़ने से व्यक्तिगत परिवर्तन, 2. वर्तमान औद्योगिक समाज का अपने वृद्धों से व्यवहार का तरीका। जैसे-जैसे व्यक्ति वृद्ध होता जाता है, समाज में उसका स्थान एवं रोल बदलने लगता है।
21वीं सदी में वृद्धों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि होने की संभावना है। विकसित राष्ट्रों में स्वास्थ्य एवं समुचित चिकित्सीय सुविधा के चलते व्यक्ति अधिक वर्षों तक जीवित रहते हैं अत: वृद्धों की जनसंख्या विकासशील राष्ट्रों से ज्यादा विकसित राष्ट्रों में ज्यादा है।
भारत एवं चीन, जो कि विश्व की जनसंख्या का अधिकांश हिस्सा रखते हैं, इनमें भी बेहतर स्वास्थ्य एवं चिकित्सा सुविधा के चलते वृद्धों की जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में वृद्धजनों की संख्या 10.38 करोड़ है।
संस्कृतियों में वृद्धावस्था विद्वता एवं जीवन के अनुभवों का खजाना माना जाता रहा है लेकिन वर्तमान में यह अवांछनीय प्रक्रिया माना जाता है। परंपरागत रूप से हर संस्कृति में वृद्धों की देखभाल परिवार की जिम्मेदारी मानी जाती है लेकिन सामाजिक परिवर्तनों के चलते अब यह राज्य एवं स्वशासी संगठनों की भी जिम्मेवारी बन चुकी है।
भारतीय संस्कृति में वृद्धों को अत्यंत उच्च एवं आदर्श स्थान प्राप्त है। श्रवण कुमार ने अपने वृद्ध माता-पिता को कंधे पर बिठाकर संपूर्ण तीर्थयात्रा करवाई थीं। आज भी अधिकांश परिवारों में वृद्धों को ही परिवार का मुखिया माना जाता है।
कितनी विडंबना है कि पूरे परिवार पर बरगद की तरह छांव फैलाने वाला व्यक्ति वृद्धावस्था में अकेला, असहाय एवं बहिष्कृत जीवन जीता है। जीवनभर अपने मन, कर्म व वचन से रक्षा करने वाला, पौधों से पेड़ बनाने वाला व्यक्ति घर में एक कोने में उपेक्षित पड़ा रहता है या अस्पताल या वृद्धाश्रम में अपनी मौत की प्रतीक्षा करता है। आधुनिक उपभोक्ता संस्कृति एवं सामाजिक मूल्यों के क्षरण की यह परिणति है।
आज के वैश्विक समाज में वृद्धों को अनुत्पादक, दूसरों पर आश्रित, सामाजिक स्वतंत्रता से दूर अपने परिवार एवं आश्रितों से उपेक्षित एवं युवा लोगों पर भार की दृष्टि से देखा जाता है। जब तक हम वृद्धजनों की कीमत नहीं समझेंगे, उस उम्र की पीड़ा का अहसास नहीं करेंगे, तब तक हमारी सारी अच्छाइयां बनावटी होंगी।
वृद्धों के सम्मान हेतु जनचेतना जगाना होगा। वृद्धों की बेहतरी के लिए विशेष योजनाओं का क्रियान्वयन जरूरी है। हमें निम्न तरीकों से वृद्धों के सम्मान में वृद्धि करनी होगी।
1. बहुसंस्कृति जागरूकता पर हमें ध्यान देना होगा।
2. वृद्धों को काम के बदले ज्यादा पैसा मिलना चाहिए, इस संबंध में सरकारों को नए नियम बनाने होंगे।
3. वृद्धों को अधिमान्यता देने में वृद्धों की समस्याएं सुलझ सकती हैं। नौकरियों में जहां बुद्धि एवं सोच की आवश्यकता हैं, वहां वृद्धों को लाभ देना चाहिए।
4. परिवार एवं राज्यों को वृद्धजनों की सतत देखभाल करनी होगी। जहां पर उनके अधिकारों का हनन हो रहा हो, वहां कड़ी कार्रवाई की आवश्यकता है।
5. वृद्धों को समाज में प्रमुखता मिलनी चाहिए ताकि उनके जीवन को सार्थकता का एहसास हो। उनकी सामाजिक कार्यों में संलिप्तता एवं सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव उनके जीवन को नई स्फूर्ति प्रदान करेगा।
6. परिवार के निर्णयों में वृद्ध लोगों को शामिल करें ताकि उन्हें अपनी महत्ता का अहसास बना रहे।
7. वृद्ध व्यक्तियों को उनके मानसिक, शारीरिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य की देखभाल की पूर्ण सुविधा मिलनी चाहिए ताकि वे मानसिक, शारीरिक एवं भावनात्मक रूप से स्वस्थ रहें।
8. वृद्ध व्यक्तियों को उनकी ऊर्जा के साथ शिक्षा, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं मनोरंजन के स्रोतों को अपनाने की पूर्ण सुविधा मिलनी चाहिए जिससे कि उनमें परिपूर्णता का बोध हो।
9. वृद्ध लोगों को पूर्ण सम्मान एवं सुरक्षा की गारंटी मिलनी चाहिए ताकि वे मानसिक एवं शारीरिक शोषण से बच सकें।
10. परिवार के वृद्धजनों को भावनात्मक एवं मनोवैज्ञानिक सहायता की अत्यंत आवश्यकता होती है ताकि वे अकेलेपन या अवसाद की स्थति में न आ पाएं।
11. वृद्ध लोगों को आर्थिक स्वतंत्रता बहुत जरूरी है। उनके पास पर्याप्त पैसा होना जरूरी है ताकि उनमें असुरक्षा की भावना समाप्त हो जाए एवं वे अपनी जरूरतों के मुताबिक खर्च कर सकें।
वृद्धजनों के अधिकार
हमारे संविधान में वृद्धजनों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की गई है। वृद्धजनों के संवैधानिक एवं कानूनी अधिकारों की व्याख्या निम्नानुसार है-
1. संवैधानिक अधिकार- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 24 की सूची 3 एवं धारा 6 में वृद्ध लोगों के अधिकारों की चर्चा की गई है। इसमें कार्य की दशाओं, भविष्यनिधि, अशक्तता तथा वृद्धावस्था पेंशन की चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त राजसूची के मद संख्या 9 एवं समवर्ती सूची की मद संख्या 20, 23 एवं 24 में पेंशन, सामाजिक सुरक्षा तथा सामाजिक बीमा के अधिकार दिए गए हैं।
राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत के अनुच्छेद 41 के अनुसार राज्य अपनी आर्थिक क्षमता एवं विकास की सीमाओं के भीतर वृद्धजनों के रोजगार, शिक्षा, बीमारी एवं विकलांगता की स्थिति में सार्वजनिक सहायता के अधिकार को सुरक्षित करेगा एवं इसके लिए कारगर प्रावधान बनाएगा।
2. कानूनी अधिकार- माता-पिता की देखभाल करना हर व्यक्ति की नैतिक जिम्मेदारी है किंतु विभिन्न सामाजिक व्यवस्थाओं में इसके लिए अलग-अलग जिम्मेदारियां कानून ने निर्धारित की हैं।
(i) हिन्दू कानून- साधनविहीन माता-पिता अपने भरण-पोषण के लिए साधन-संपन्न बच्चों पर दावा प्रस्तुत कर सकते हैं। इस अधिकार को कानून आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 125 (1) (डी) तथा हिन्दू दत्तक भरण-पोषण अधिनियम 1956 की धारा 20 (1 एवं 3) द्वारा मान्यता दी गई है। इस धारा से स्पष्ट है कि अभिभावकों के भरण-पोषण की जिम्मेदारी पुत्रों के साथ-साथ पुत्रियों की भी है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस धारा के अंतर्गत सिर्फ वे ही अभिभावक आते हैं, जो भरण-पोषण करने में आर्थिक रूप से असमर्थ हैं।
(ii) मुस्लिम कानून- तैयबजी के अनुसार माता-पिता या दादा-दादी आर्थिक विपन्नताओं की स्थिति में हनाफी नियम के अनुसार अपने पुत्र-पुत्रियों या नाती-नातिनों से भरण-पोषण की मांग कर सकते हैं एवं ये अपने माता-पिता की सहायता के लिए बाध्य हैं।
(iii) ईसाई एवं पारसी कानून- ईसाई एवं पारसियों के अभिभावकों के भरण-पोषण के लिए कोई व्यक्तिगत कानून नहीं हैं। जो अभिभावक भरण-पोषण चाहते हैं, वे आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत भरण-पोषण की मांग कर सकते हैं।
आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 एक धर्मनिरपेक्ष कानून है तथा ये सभी धर्मों एवं समुदायों पर लागू होता है। इस संहिता के तहत धारा 125 (1) में प्रावधान है कि जो माता-पिता अपने भरण-पोषण में असमर्थ हैं, यदि उनके पुत्र या पुत्रियां उनके भरण-पोषण से इंकार करते हैं तो प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को अपने माता-पिता के भरण-पोषण के इंकार के प्रमाण के आधार पर मासिक भत्ता देने के आदेश दे सकता है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सर्वप्रथम संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में वृद्धजनों की समस्याओं पर अर्जेंटीना में 1948 में चर्चा हुई थी। 16 दिसंबर 1991 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में प्रस्ताव पारित कर वृद्धजनों के हित में 18 सिद्धांतों को अधिमान्य किया गया जिन्हें 5 भागों में बांटा गया है- 1. स्वतंत्रता, 2. भागीदारी, 3. देखभाल, 4. स्वपूर्णता, 5. सम्मान। संयुक्त राष्ट्र संघ में 1999 को 1 अक्टूबर को 'अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस' मनाने का संकल्प पारित किया गया।
वृद्धों की समस्याओं को लेकर हर फोरम पर अभिव्यक्ति की जरूरत है। सामाजिक, राजनीतिक एवं भूमंडलीय स्तर पर गंभीरता से इन्हें सुलझाने का प्रयास किया जाना चाहिए। हमें वृद्धों के प्रति सही दृष्टिकोण, वृद्धों की जरूरतों एवं उनके जीवन को ध्यान में रखकर सही निर्णय लेने की आवश्यकता है। ऐसे सामाजिक तंत्र को विकसित करना होगा, जो वृद्धों की देखभाल बिना एक-दूसरे पर आक्षेप लगाकर कर सके।
हमें समाज में यह चेतना जगानी होगी कि वृद्ध हमारी जिम्मेदारी नहीं, आवश्यकता हैं। वे जीवन के अनुभवों के खजाने हैं जिन्हें सहेजकर रखना हर समाज एवं संस्कृति का धर्म एवं नैतिक जवाबदारी है।