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विश्व की सबसे आदर्श नारी सीता माता

विश्व की सबसे आदर्श नारी सीता माता - Goddess Sita Story
त्रेतायुग में श्री राम पर वाल्मीकि जी द्वारा रचित महाकाव्य रामायण यूं तो कई आदर्श व महान पात्रों के विषय में वर्णित अनुपम ग्रंथ है। परंतु उसमें सीता जी का आदर्श पात्र कई स्थानों पर श्री राम जी से भी बढ़कर हो जाता है।
 
सीता जी का जन्म फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी पर मिथिला (बिहार) में हुआ था। वे अपने पिता राजा जनक को स्वर्ण पेटी में हल हांकने के दौरान मिली थी। सीताजी को देखते ही राजा जनक को वे देवी स्वरूप, निर्मल, कमललोचनी, नयनाभिराम सुकन्या लगी। उन्होंने उस कन्या का पालन-पोषण अपनी पुत्री के रूप में करने का निर्णय लिया। सीता जी के पदार्पण से जो राज्य सूखे से ग्रस्त था उसमें मेघ हर्षित हो बसर पड़ें। राज्य में हरियाली छा गई जैसे लक्ष्मी ने मिथिला में अपने चरण स्वयं रख दिए हो। राजा जनक ने सीता जी को बहुत स्नेह दिया। साथ ही शिक्षा, कला-कौशल, संस्कार देकर एक विदुषी, वीरांगना, आज्ञाकारी बालिका बनाया।
 
सीता जी को विदुषी गार्गी से वेद-पुराणों का ज्ञान मिला था। उनकी वीरता का प्रमाण था कि वे शिव धनुष ना केवल उठा लेती थी बल्कि उस पर प्रत्यंचा भी चढ़ा देती थी। यहीं से राजा जनक को आकाशवाणी द्वारा आदेश हुआ था कि जो भी यह शिव धनुष उठाकर प्रत्यंचा चढ़ा देगा, वहीं सीता जी के समान गुणों से युक्त होगा व उनका वरण कर पाएगा। 
 
इसी के साथ सीता जी बाल्यावस्था से ही बहुत सुंदर चित्र उकेरती थी जो आज भी मधुबनी के नाम से जगप्रसिद्ध लोक चित्रकला है। वे राजकाज में रूचि लेती थी तो दूसरी ओर अपनी माय के साथ गृहकार्यों को भी दक्षता से सिखती थी। यह सब उनके आदर्श पुत्री होने का प्रमाण है।
 
सीता जी का राम जी से स्वयंवर हुआ। उससे पहले उन्होंने पार्वती जी की पूजा कर अपने लिए आदर्श पति की प्रार्थना की। जो बताता है कि सीता जी एक आस्तिक, धर्मपरायण व लोक-रिवाजों का अनुसरण करने वाली कन्या रही। वे अपनी बहन के साथ, दोनों चचेरी बहनों से भी अत्यंत स्नेह रखती थी। वे अपनी बहनों की प्रिय रही। जब उनके साथ उन तीनों का विवाह भी अयोध्या में तय किया गया तो वे अत्यंत प्रफुल्लित हो गई थी। यह बताता है कि राम अगर आदर्श भाई थे, तो सीता जी भी एक आदर्श बहन रही। 
 
अयोध्या में जब वे बहू बनकर पहुंची तो कुछ माह ही ससुराल में रही और रामजी को माता कैकयी द्वारा वनवास दे दिया गया। यहां उनके चरित्र में हम देखते है कि वे साधारण पुत्रवधु की तरह, इस बात का प्रतिकार कर गृह युद्ध में लिप्त हो सकती थी, परंतु उन्होंने सहर्ष पति के संग वनवास जाना स्वीकार किया। 
 
भगवान राम ने उन्हें समझाया भी कि तुम्हारा कर्तव्य सास-ससुर की सेवा है तो वे बोली कि पति सेवा भी तो कर्तव्य है। यहां मेरी तीनों बहनें हैं पर वहां आपके साथ कोई नहीं होगा और मैं विवाह के समय ही हर परिस्थिति में आपका साथ निभाने का वचन ले चुकी हूं। और वे महलों के सुख छोड़ वनवास की ओर भगवा धारण कर चल दी। वह उस समय अलंकृत रही क्योंकि अलंकार सौभाग्य की निशानी है और पति के साथ ही नारी का सौभाग्य है। जो यह भी बताता है कि सीता जी परंपराओं का मान करती थी।
 
फिर क्रमशः उनके जीवन में वन प्रस्थान के समय सरयू नदी पार करते हुए रामजी ने केवट को पारिश्रमिक देने की चाह की और सीता जी ने बिना राम जी के कहे ही अपनी मुद्रिका केवट की ओर बढ़ा दी। जो पति-पत्नी के सुंदर तालमेल को दर्शाता है। तदुपरांत निषादराज के गांव में पहुंचना, वहां स्त्रियों द्वारा पति का नाम पूछना और सीता जी का रामजी की जगह देवर लक्ष्मण का परिचय देकर बता देना कि वे राम जी उनके पति है। यहां समझ आता है कि वे कितनी बुद्धिमान और समाज में पति का मान रखने वाली स्त्री थी।
 
इसके बाद भी जब वनवास में चलते रहने कारण उनका कंठ सूखा, पैरों में कांटे चुभे तो भी उन्होंने पीड़ा ना बताते हुए राम जी को यही कहां कि स्वामी आपने पर्णकुटी बनाने के लिए कौन-सा स्थान चुना है? यहां दर्शनीय रहा कि महलों में पली-बढ़ी स्त्री ने कितनी सहनशीलता व धैर्य रखा।
 
वनवास के दौरान भी वह अपने आपको कौशल कार्यों, पर्यावरण संरक्षण, पशु-पक्षियों की सेवा के कार्यों में लगाए रखती थी। जो उनके पर्यावरण प्रेमी होने का प्रमाण है।
वनवास में लक्ष्मण जी ने रावण की बहन शूर्पणखा की नाक काटी थी, पर रावण की कोपभाजक सीता जी बनी। लक्ष्मण रेखा को पार करना भी यही था कि द्वार पर आया कोई भिक्षुक, साधु-संत खाली हाथ ना लौटे। 
 
जब सीताजी छल से हरण की गई तो भी वे एक-एक गहनों को रास्ते में उतारती धरा पर गिराती गई ताकि रामजी को उन्हें खोजने में परेशानी ना आए। जो उनकी तीव्र बुद्धि का भी परिचायक था। वे लंका में पहुंच कर भी स्वर्ण लंका में नहीं रही बल्कि वे वनवासी जीवन का अनुसरण करने के लिए अशोक वाटिका में ही रही।

वहां रावण ने उन्हें अनेक प्रलोभन दिए पर वे किसी भी लोभ में नहीं आई, बल्कि वहां वे एक तिनके से बात करते हुए रावण को राम जी के शौर्य का बखान कर विश्वास जता देती थी कि रावण तुम तुच्छ हो और मेरे पति तुम्हारा नाश करने और मुझे लेने जरूर आएंगे। वे चाहती तो रावण को अपने सतीत्व से पराजित कर सकती थी, पर उन्होंने उदाहरण दिया कि विवाह के बाद पति ही पत्नी का रक्षक होता है। साथ ही राम जी की प्रतीक्षा अशोक वाटिका में कर उनकी वीरता और प्रेम में प्रतीक्षा का मान रखा।
 
सीताजी को रावण ने बंधक बनाया था, तब वहां पर उनकी रक्षा के लिए अनेक राक्षसी थी। उनमें राक्षसी त्रिजटा सीता जी के सुव्यवहार के कारण उनसे पुत्री की तरह व्यवहार करती थी। वहीं जब सीता जी, हनुमान जी से मिली तो राम मुद्रिका देख विश्वास से भर गई और उन्होंने हनुमान जी को अशोक वाटिका से भूखे लौटने नहीं दिया। जो मां का वात्सल्य दर्शाता है।
 
जब रामजी ने रावण को पराजित किया तो रावण की लंका में रहने के कारण सीता माता का अग्नि परीक्षा देकर अपने आपको पवित्र प्रमाणित करना, उनके सतीत्व, पतिव्रत का दृष्टांत है। वे विरोध कर सकती थी कि देवर लक्ष्मण के नाक काट देने के कारण मैंने इतने कष्ट भोगे है। परंतु उन्होंने सहर्षता से अग्नि परीक्षा दी। 
अयोध्या लौटकर वे कुछ ही दिनों महारानी रही। फिर प्रजा के एक रजक के कारण गर्भवती सीताजी पुनः त्याग दी गई। यहां रामजी का वनवास चौदह वर्ष में समाप्त हो गया, परंतु सीताजी का वनवास राजमहल में विवाह होने के बाद भी आजीवन बना रहा कहना नितांत सत्य बात होगी। 
 
इसी वनवास में गुरु वाल्मीकि जी के आश्रम में वे पुत्रीवत रही। उन्होंने अपने दोनों संस्कारी पुत्रों लव-कुश को आश्रम में ही जन्म दिया। वे चाहती तो इस समय पिता के घर मिथिला भी जा सकती थी पर उन्होंने इस वनवास में स्वावलंबी रहकर अपने बच्चों को शिक्षित, सुआचरण युक्त किया और जब रामजी द्वारा लव-कुश को अपना उत्तराधिकारी मान लिया गया तो वे पति पर क्रोध करे बिना ही धरती मां में समा गई। सीता जी चाहती तो यहां से पुनः राजभवन में लौट सकती थी, पर वे धन के सुख को संतुष्टि नहीं मानती थी।
 
आज के समय में हम देखते है, तो पाते है कि आमजन लोभग्रस्त, दंभी बन, छोटी-छोटी बातों में अपना धैर्य खो बैठते है। वहीं सीता जी का चरित्र इतने संघर्षों में भी शुद्ध, सरल, सात्विक, शिक्षित-कलाओं से युक्त, संस्कारों, समझदारी, समन्वय, शालीनता, सुदृढ़ता, सहृदयता से परिपूर्ण रहा। उन्होंने विषम से विषम परिस्थिति में धैर्य नहीं खोया। वे त्याग, पति के मान व पतिव्रत का पालन जीवनपर्यंत करती रही। वे अपने कर्तव्यों का पूर्ण निर्वहन करने के कारण संपूर्ण नारी के रूप में गौरवान्वित है। उनका जीवन चरित्र युगों-युगों तक प्रेरणा देता रहेगा। जानकी प्राकट्योत्सव की अनंत शुभकामनाएं।  

Goddess Janaki Sita