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अपने बच्चों को दीजिए शिक्षा के उचित संस्कार

अपने बच्चों को दीजिए शिक्षा के उचित संस्कार - Apne baccho ko dijiye shiksha ke uchit sanskar
कहीं किसी शायर ने ये पंक्तियां लिखीं, जो मुझे गहरे तक प्रभावित कर गईं-

 
'डिग्रियां तो तालीम के खर्चों की रसीदें हैं/ इल्म तो वह है जो किरदार में झलकता है', कितना बड़ा सच दो पंक्तियों में उकेर दिया है!
 
वास्तव में हम जो शिक्षा विभिन्न संस्थानों में शुल्क चुकाकर प्राप्त करते हैं, उसकी सार्थकता डिग्रियां पा लेने तक में समाप्त नहीं होती बल्कि वह पूर्ण तभी होती है, जब वह हमारे संपूर्ण व्यक्तित्व और आचरण से अभिव्यक्त हो।
 
हमने जो पढ़ा-सीखा, उसे परीक्षा कक्ष में लेखन की शक्ल में उतारकर उत्तीर्ण हो जाने का प्रमाण पत्र पा लेना उपलब्धि अवश्य है, लेकिन वह केवल एक व्यक्तिगत लाभ है। उसकी पूर्णता तब साकार होती है, जब हम अपने सर्वांग में उसका पालन करें, क्योंकि तब वह निजी दायरों से बाहर निकलकर समाज और राष्ट्र का उपकार करती है।
 
 
प्राय: सभी परिवारों में बच्चों को बेहतर भविष्य के लिए अध्ययन के प्रति निष्ठावान रहने की सीख दी जाती है और अधिकांश बच्चे इसका पालन करते भी हैं। यह सीख कतई बुरी नहीं है, किंतु इसके साथ-साथ उन्हें यह भी शिक्षा देते चलना चाहिए कि वे जो सीखें, उसे गुनें भी।
 
मात्र पढ़ना और पढ़कर उत्तीर्ण हो जाना लक्ष्य न हो बल्कि उसे आचरण में ले आना भी सतत चलता रहे। दूसरे शब्दों में कहें, तो किताबी शिक्षा न सिर्फ डिग्रियां पाने का साधन बने बल्कि संस्कार रोपने में भी सहायक हो।

 
वैसे भी शिक्षा सार्थक तभी मानी जाती है, जब वह एक मनुष्य को 'बेहतर मनुष्य' के रूप में तब्दील करे। इसलिए अत्यंत गंभीरता के साथ इस बात का ख्याल रखिए कि आपका बच्चा पुस्तकों के जरिए जो भी सीख रहा है, उसे मस्तिष्क के साथ-साथ अपने आचरण का हिस्सा भी बनाए।
 
वस्तुत: हम समाज में रहते हैं और समाज हमसे ही बनता या बिगड़ता है। जिस समाज के लोग सुशिक्षित व सुसंस्कारित होंगे, वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अवश्य ही उन्नति करेगा और इसके विपरीत स्थिति होने पर समाज का पतन सुनिश्चित है।

 
हम में से कोई भी यह नहीं चाहेगा कि उसकी संतति एक पतनशील समाज का हिस्सा बने। ऐसा न हो, इसके लिए हमको आज से ही प्रयासरत होना होगा। अपने बच्चों की बेहतर शिक्षा का प्रबंध करने के साथ-साथ उन्हें निरंतर उस शिक्षा के संस्कारों में भी ढालते चलिए ताकि उनका भविष्य सही अर्थों में उज्ज्वल बन सके और तब हमारी आत्मा में भी अपने अभिभावक होने के दायित्व को ठीक-ठीक ढंग से पूर्ण करने का सुकून होगा।