शनिवार, 13 सितम्बर 2025
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Written By WD

आजकल के बच्चे तौबा-तौबा

मम्मी मुझे खिलौना दिला दो वरना...

बच्चे
- नीतू पंजाबी

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प्रकृति की एक सबसे खूबसूरत और अनमोल देन है- 'हमारा सरल और निश्छल मन!' किंतु बाकी सारी प्राकृतिक वस्तुओं के साथ-साथ हमने इसके साथ भी बहुत अन्यायपूर्ण व्यवहार किया है। कुछ समय पहले तक बालपन में इसका सही स्वरूप जीवित रहता था और उस समय की ही लिखी हुई हैं ये पंक्तियाँ- 'बच्चे मन के सच्चे।'

किंतु पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव कहें या हमारे संस्कारों की कमजोर नींव कि आज एक छोटा बच्चा भी अपनी मनचाही वस्तु प्राप्त करने के लिए चालाकी या चाटुकारिता का प्रयोग करता है। इतना ही नहीं चूँकि वह जानता है कि वह अपने माता-पिता की कमजोरी है इसलिए उन्हें धमकी देने या उनका भावनात्मक शोषण करने से भी नहीं कतराता।

एक समय था जब किसी भूल के लिए बच्चे अपने माता-पिता की मार भी बिना किसी शिकायत के चुपचाप सह लेते थे। किंतु आज के बच्चों के पास खुद को बचाने के कई झूठे बहाने मौजूद होते हैं। मारना तो दूर आज तो माता-पिता अपने बच्चों को डाँटने में भी डरते हैं कि कहीं गुस्से में उनका बच्चा कुछ कर न बैठे।

अभी कुछ समय पहले एक समाचार पढ़ने में आया कि तीसरी कक्षा के एक बालक ने होमवर्क न करने पर माँ के डाँटने से आत्महत्या कर ली। ये कैसी पीढ़ी का निर्माण हो रहा है, जहाँ न तो रिश्तों के प्रति कोई सम्मान है और न ही भावनाओं के लिए हृदय में कोई स्थान।

अगर हम अपने भीतर झाँककर देखें तो पाएँगे कि बच्चों के इन बुरे संस्कारों की नींव हमने खुद डाली है। बच्चे हमारे सिखाने से नहीं सीखते बल्कि अपने स्वयं के अनुभव से सीखते हैं। अगर वे देखेंगे कि उनके पिता घर पर होते हुए भी फोन पर यह कहलवाते हैं कि वे घर पर नहीं हैं तो वे यह सीखेंगे कि समय आने पर झूठ का सहारा लिया जा सकता है।

जब वे अपनी मम्मी को कपड़े की दुकान पर पूरे पैसे देते और सब्जी वाले के साथ दो रुपए के लिए बहस करते देखेंगे तो उन्हें यही शिक्षा मिलेगी कि गरीबों का शोषण करने में बुराई नहीं है। अपने बूढ़े माता-पिता के साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार करते समय हम यह नहीं सोचते कि यही सब कुछ हमारे बच्चे हमें ब्याज सहित लौटाने वाले हैं।

हम अपनी महत्वाकांक्षाओं के दलदल में इस कदर धँस चुके हैं कि हमारे पास यह देखने का समय भी नहीं है कि हमारी भावी पीढ़ी कैसे विचारों और कैसे संस्कारों को आत्मसात कर रही है। हम उनके भीतर प्रेम और सदाचार की अपेक्षा महत्वाकांक्षा और स्वार्थसिद्धि के बीज बो रहे हैं। कल तक 'सादा जीवन और उच्च विचार' को अपनी प्रेरणा मानने वाले हम, आज 'स्वार्थी जीवन और कोई विचार नहीं' की धारणा का पालन कर रहे हैं।

एक बार एक छोटा बालक तालाब के किनारे बैठकर पानी में से केकड़े निकाल-निकालकर एक खुले बर्तन में भर रहा था। इस दृश्य को समीप बैठे एक व्यक्ति ने देखा तो उसने बालक से कहा कि तुम्हारे इस बर्तन का कोई ढक्कन तो है ही नहीं। ये सारे केकड़े तो बाहर निकल जाएँगे।

तब उस बच्चे ने जवाब दिया कि ये केकड़े कभी भी बाहर नहीं निकल सकते, क्योंकि जब भी कोई केकड़ा बाहर निकलने के लिए ऊपर चढ़ने का प्रयत्न करता है तो दूसरा उसकी टाँग पकड़कर उसे नीचे खींच लेता है और इस प्रकार एक भी केकड़ा ऊपर नहीं चढ़ पाता। आज हमारी स्थिति भी उन केकड़ों के समान है। आगे निकलने की होड़ में हम एक-दूसरे की टाँग खिंचाई में लगे हैं।

यहाँ तक कि धन और यश प्राप्ति के लिए किसी सच्चे और सरल हृदय इंसान को बेवकूफ बनाने से भी पीछे नहीं हटते बल्कि खुद को सच्चा बताने और किसी का विश्वास जीतने के लिए अपने मगरमच्छीय आँसू तक बहा देते हैं और यह सब करके हमें कभी अफसोस नहीं होता अपितु अपनी अक्लमंदी पर नाज करते हैं।

हम पुस्तकों में, पौराणिक ग्रंथों में यह पढ़ते हैं कि सृष्टि के कण-कण में ईश्वर का अंश होता है किंतु ऐसे छल, कपट और द्वेष से युक्त हृदय में कभी भी ईश्वर का निवास नहीं हो सकता। वह तो केवल एक सरल, निष्कपट और भावुक हृदय में निवास कर सकता है। इसलिए हमें चाहिए कि अपने सरल और पावन हृदय को अपनी महत्वाकांक्षाओं की भेंट न चढ़ने दें। इसे हरसंभव प्रयत्न कर जीवित रखने का प्रयास करें।