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Written By WD Feature Desk
Last Updated : सोमवार, 18 नवंबर 2024 (11:44 IST)

जलेसं के मासिक रचना पाठ में शब्दों में जीवन पर परिचर्चा

जलेसं के मासिक रचना पाठ में शब्दों में जीवन पर परिचर्चा - Janwadi Lekhak Sangh Indore rachana paath 134
इन्दौर। जनवादी लेखक संघ, इंदौर इकाई द्वारा मासिक रचना पाठ के 134 वें क्रम में शब्दों में जीवन का आयोजन किया गया जिसमें आमंत्रित रचनाकारों ने विभिन्न विषयों पर अपने विचार रखे। इन विषयों में सिनेमा, नदी, शास्त्रीय संगीत, पत्रकारिता और नाटक विषय शामिल थे।
 
डॉ. रमेश चन्द्र ने सिनेमा पर अपने आलेख का पाठ किया जिसमें उन्होंने राज कपूर के सिनेमा में पात्रों और उनके अभिनय के बारे में बात की। वरिष्ठ चिंतक सुरेश उपाध्याय ने नदी पर अपने दो आलेखों का पाठ किया। उन्होंने इंदौर की तीन नदियों कान्ह, सरस्वती और चंद्रभागा का ज़िक्र किया कि वे किस प्रकार से स्वच्छता के अभाव और अतिक्रमण के चलते नालों में तब्दील हो गई हैं। जैसे कि और नदियां भी हो रही हैं। उन्होंने कहा कि यदि सही प्रयास किए जाएँ तो जितना खर्च प्रोजेक्ट किया जाता है उससे कम खर्चे और समय में नदियों स्वच्छ हो सकती हैं, ज़रूरत बस इच्छाशक्ति की है। नदियों का पुनर्जीवन ही मानव जीवन को सुरक्षित कर सकता है। वरिष्ठ साहित्यकार अश्विनी कुमार दुबे ने शास्त्रीय संगीत को लेकर अपने विचार प्रकट किया। शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा कि इंदौर में सांस्कृतिक कार्यक्रमों में संगीत,  नाटक और साहित्य के बेहद महत्वपूर्ण कार्यक्रम होते हैं। संगीत में इंदौर घराना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है जिसके सबसे पहले कलाकारों में उस्ताद रज्जब अली खाँ साहब थे जिन्होंने लता मंगेशकर और हृदयनाथ मंगेशकर तक को सिखाने से मना कर दिया था। फिर उनके शिष्य हुए उस्ताद अमीर खाँ साहब और इसके बाद मामा मजूमदार और पंडित गोकुलोत्सव महाराज से होते हुए यह यात्रा वर्तमान कलाकारों तक आती है। इंदौर घराने के विकास का ज़िक्र करते हुए उन्होंने रेखांकित किया कि इंदौर घराने का संगीत एक किस्म का रूहानी संगीत है।
नाटक पर विचार रखते हुए वरिष्ठ साहित्यकार और रंगकर्मी रजनी रमण शर्मा ने रंग निर्देशक या नाटक के निर्देशक के दायित्वों के बारे में बातचीत की। उन्होंने कहा कि पहले नाटक कम्पनी हुआ करती थी तो प्रकाश, ध्वनि, वेशभूषा, नाटक संपत्ति और संगीत आदि सब का दायित्व कंपनी मालिक का हुआ करता था। समय के साथ रंग निर्देशक नाटकों में शामिल हुए और महत्वपूर्ण होते चले गए। अब ये सारा ज़िम्मा रंग निर्देशक का होता है। और नाटक में इन सबका सृजनात्मक रूप से उपयोग करके वह एक नई सृष्टि गढ़ सकता है। अब नाटक के सफल मंचन का दारोमदार रंग निर्देशक की सृजनात्मक क्षमता पर निर्भर करता है इसलिए शो देखने के लिए भी लोग निर्देशक का नाम देख कर जाते हैं जो उसके स्वतंत्र और महत्वपूर्ण अस्तित्व को साबित करता है। वरिष्ठ पत्रकार कीर्ति राणा ने पत्रकारिता के विकास क्रम और उसके बदलते हुए स्वरूप को लेकर अपने महत्वपूर्ण विचार साझा किए। उन्होंने रेखांकित किया कि आजादी के पहले पत्रकारिता मिशन थी और उसके बाद कमीशन। अब पत्रकारिता में संपादक नहीं बल्कि यूनिट हेड या मालिक का महत्व है जो तय करते हैं कि कौनसी खबर छपेगी और कौनसी नहीं। अब तो शोक समाचार की सूचना भी विज्ञापन की तरह छपती है जबकि पहले अखबार का एक व्यक्ति यह जानकारी एकत्रित करता था। हालांकि आजादी के आंदोलन जेपी आंदोलन के समय अखबारों ने अपने तेवर दिखाए थे किंतु अब ख़बर प्रेस से प्रेस्टिट्यूड तक आ पहुँची है। इसलिए अब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ यानी पत्रकारिता अब धराशायी हो चुका है। अब वही छपता है जो चाहा जाता है। 
 
वक्तव्यों के बाद संध्या गंगराड़े ने अपने विचार रखते हुए कहा कि कविता और लघुकथा तो बहुत से सुनने को मिल जाते हैं लेकिन वैचारिक रूप से समृद्ध करने के लिए ऐसी चर्चाएं ज़रूरी हैं। कार्यक्रम में चुन्नीलाल वाधवानी, प्रदीप मिश्र, वीरेंद्र सहित अन्य साहित्यकार उपस्थित थे। संचालन प्रदीप कान्त ने किया और आभार देवेंद्र रिणवा ने। 
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