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Written By DW
Last Updated : शनिवार, 11 दिसंबर 2021 (16:52 IST)

पर्याप्त पवन ऊर्जा आखिर कहां से मिलेगी?

पर्याप्त पवन ऊर्जा आखिर कहां से मिलेगी? - Where will you get enough wind power?
रिपोर्ट : गेरो रुइटर
 
पवन और सौर ऊर्जा सस्ती, जलवायु अनुकूल और भविष्य की ऊर्जा आपूर्ति की प्रमुख स्रोत बनने की दिशा में हैं। लेकिन ऊर्जा उत्पादन इलाकों में अलग अलग हो सकता है। ऐसे में दोनों ऊर्जा स्रोत मिलेजुले ढंग से कहां उपयोगी हो सकते हैं?
 
आधुनिक पवन चक्कियां 25 साल पहले की तुलना में 20 गुना ज्यादा बिजली पैदा कर सकती हैं। वे और ऊंची और बड़ी हो गई हैं और उनके ब्लेड भी लंबे हैं। इन्वेस्टमेंट बैंक लजार्ड के मुताबिक नए संयंत्रों से पवन ऊर्जा उत्पादन में आज 2009 के मुकाबले 72 फीसदी कम लागत आती है। इसीलिए उसे धरती के सबसे सस्ते ऊर्जा स्रोतों में से एक माना जाता है। जर्मनी स्थित शोध संगठन, सौर ऊर्जा प्रणालियों के फ्राउनहोफर संस्थान के एक अध्ययन के मुताबिक तेज हवा वाले तटीय इलाकों की बिजली के लिए प्रति किलोवॉट घंटा 0.04 से 0.05 यूरो (0.05 से 0.06 डॉलर) की लागत आती है। जहां हवा कमजोर होती है उन इलाकों में उसकी लागत प्रति किलोवॉट घंटा 0.06-0.08 यूरो आती है। समंदर में लगे संयंत्रों में प्रति किलोवॉट प्रति घंटा की कीमत करीब 0.1 यूरो बैठती है क्योंकि वहां उन्हें लगाने और रखरखाव में ज्यादा लागत आती है।
 
तुलनात्मक लिहाज से देखें तो सौर ऊर्जा की कीमतों में भी बड़ी गिरावट आई है- 2009 से करीब 90 फीसदी- सौर ऊर्जा से मिलने वाली बिजली के उत्पादन में प्रति किलोवॉट घंटा 0.02-0.06 यूरो की लागत आती है। लेकिन दूसरे ऊर्जा स्रोतो के नए संयंत्र फिर भी और महंगे हैं। फॉसिल गैस से मिलने वाली प्रति किलोवॉट घंटा बिजली की कीमत करीब 0.11 यूरो आती है, कोयले से 0.16 यूरो और एटमी ऊर्जा से 0.14-0.19 यूरो। ऊर्जा से जुड़े शोधकर्ताओं का मानना है कि प्रौद्योगिकी के विकास के साथ, पवन और सौर ऊर्जा 2030 तक 20 से 50 फीसदी सस्ती हो जाएगी।
 
जलवायु निरपेक्षता के लिए कितनी पवन ऊर्जा चाहिए?
 
जानकार कहते हैं कि भविष्य में पवन और सौर ऊर्जा कुल वैश्विक ऊर्जा मांग का 95 फीसदी से ज्यादा कवर कर सकती हैं। लेकिन अलग अलग इलाकों में अलग-अलग संयोजन काम करते हैं। फिनलैंड की एलयूटी यूनिवर्सिटी में सोलर इकोनॉमी के प्रोफेसर क्रिस्टियान ब्रायर कहते हैं कि इसमें जलबिजली, बैटरियां, हाइड्रोजन और सिंथेटिक ईंधन बनाने वाले इलेक्ट्रोलाइजरों के अलावा और भी भंडारण और रूपांतरण प्रौद्योगिकियां शामिल हो सकती हैं। एनर्जी नाम के जर्नल में प्रकाशित उनकी टीम के अध्ययन ने पाया कि 76 फीसदी वैश्विक बिजली उत्पादन अगर सौर ऊर्जा से हो और 20 फीसदी पवन ऊर्जा से तो ये सबसे सस्ता पड़ेगा।
 
कम या हल्की धूप वाले इलाकों में पवन ऊर्जा की हिस्सेदारी ज्यादा हो जाएगी। जैसे रूस के उत्तरी हिस्सों में 90 फीसदी से ज्यादा, अमेरिका के मध्य पश्चिम में 81 फीसदी, उत्तरी चीन में करीब 72 फीसदी और मध्य और उत्तरी यूरोप के देशों जैसे पोलैंड, द नीदरलैंड्स, ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस में करीब 50 फीसदी पवन ऊर्जा चाहिए होगी। जर्मनी में पवन ऊर्जा की हिस्सेदारी 31 फीसदी की होगी। इन इलाकों में जहां धूप की चमक फीकी होती है और सर्दियों में बादल रहते हैं, वहां पवन ऊर्जा एक ज्यादा सस्ता विकल्प है। ब्रायर कहते हैं कि यूरोप में पवन ऊर्जा इसीलिए बिजली आपूर्ति की एक पुख्ता केंद्रीय स्तंभ है। अगर यूरोप में हमारे पास जब विशेष रूप से खिली हुई धूप भरे दिन नही होते हैं तो आमतौर पर तेज हवाओं वाले दिन रहते हैं, तो ये सब मिलकर बढ़िया काम करता है।
 
कौन सी पवन प्रौद्योगिकी सर्वश्रेष्ठ है?
 
विंड टरबाइनें यानी पवन चक्कियां 180 मीटर ऊंची होती हैं और उनके ब्लेड 80 मीटर लंबे होते हैं। जमीन पर ऐसी एक टरबाइन का आउटपुट 7,200 किलोवॉट तक का होता है और वो हर साल करीब 3 करोड़ प्रति किलोवॉट घंटा बिजली उत्पादन कर सकती है। जर्मनी के 16 हजार लोगों और भारत के एक लाख चालीस हजार लोगों की निजी बिजली जरूरतों को पूरा करने के लिए ये पर्याप्त मात्रा है। पवन चक्कियां समुद्र में खासतौर पर शक्तिशाली होती हैं जहां हवा ज्यादा ताकत और स्थिरता के साथ बहती है। पानी में लगी टरबाइनों का आउटपुट दस हजार किलोवॉट तक का होता है और कुछ ही साल में इसके 15 हजार किलोवॉट तक पहुंच जाने की संभावना भी रहती है। एक अच्छी लोकेशन में लगी अकेली टरबाइन, जर्मनी में करीब 40 हजार और भारत में करीब 3 लाख 70 हजार लोगों की बिजली जरूरत को पूरा करने में समर्थ हो सकती है।
 
लेकिन समुद्र तल पर बिजली के तार बिछाने और पवन चक्कियों के रखरखाव से जुड़ी पेचीदगी और लागत का मतलब है कि उनसे पैदा होने वाली बिजली, जमीन पर लगी टरबाइनों से मिलने वाली बिजली के मुकाबले दोगुना महंगी होगी। फिर भी दुनिया के सघन आबादी वाले इलाकों के समुद्रों में लगी पवन चक्कियां जलवायु निरपेक्ष ऊर्जा सप्लाई में उपयोगी भूमिका निभा सकती है। वैश्विक बिजली की करीब सात फीसदी मांग पवन ऊर्जा से पूरी हो रही है। पिछले साल 93 गीगावॉट क्षमता वाली नई टरबाइनें लगाई गई थीं। 2020 में कुल स्थापित क्षमता 743 गीगावॉट की थी। समुद्री टरबाइनों से 34 गीगावॉट बिजली मिलती है, इनमें से ज्यादातर पवन चक्कियां ब्रिटेन (10 गीगावॉट) चीन (8 गीगावॉट) और जर्मनी (8 गीगावॉट) के समुद्रों में लगी हैं।
 
क्या तैरती पवन चक्कियां मददगार हो सकती हैं?
 
अभी तक जमीन से दूर, पवन चक्कियां उथले पानी में ही लगाई गई हैं। जहां पानी की गहराई 50 मीटर तक होती है। टरबाइनें समुद्र तल में बनी नींव पर टिकी होती हैं। लेकिन दुनिया के कई तटों के पास पानी और ज्यादा गहरा है जिससे वहां पर नींव पर टिकी पवन चक्कियां कारगर नहीं रह सकती हैं। इसी कारण, तैरती पवन चक्कियों को अब बंदरगाहों पर पान्टूनों में भी रख दिया जाता है, फिर उन्हें समुद्र में खींचकर तल से लंबी चेनों से बांध दिया जाता है।
 
दुनिया की ऐसी पहली तैरती पवन चक्की स्कॉटलैंड के समुद्र तट पर 2017 में लगाई गई थी। और उसके बाद जापान, फ्रांस और पुर्तगाल में भी लगाई गईं। आज इन तमाम पवन चक्कियों के पास 0.1 गीगावॉट की कुल क्षमता है। द ग्लोबल ऑफशोर विंड रिपोर्ट का अनुमान है कि 2030 तक यूनिट की इन्स्टॉल्ड क्षमता 6.3 गीगावॉट हो जाएगी। लेकिन सबसे मजबूत वृद्धि देखने को मिलती रहेगी जमीनों पर लगी पवन चक्कियों से। एलयूटी यूनिवर्सिटी के अध्ययन के मुताबिक जलवायु निरपेक्ष ऊर्जा सप्लाई के लिए पवन ऊर्जा की वैश्विक क्षमता को दस गुना बढ़कर 8,039 गीगावॉट करना होगा और जर्मनी में इसे चौगुना यानी 244 गीगावॉट करना पड़ेगा।
 
सिंथेटिक ईंधन बनाने के लिए पवन ऊर्जा का उपयोग
 
पवन ऊर्जा, तेज हवा वाले इलाकों में खासतौर पर सस्ती होती है। लेकिन जब इस बिजली को सैकड़ों किलोमीटीर दूर ले जाना पड़ता है तो कीमत बढ़ती जाती है और खरीदार के लिए वो कीमत दोगुना भी हो सकती है। इसीलिए बिजली को लंबी दूरियों तक पहुंचाने की कवायद व्यर्थ मानी जाती है। अभी तक, दूरदराज के इलाकों में बिजली उत्पादन का फायदा तभी है जब उसका इस्तेमाल सीधे कथित रूप से ई-फ्यूल के उत्पादन में किया जाए। ये वो सिंथेटिक ईंधन हैं, जो भविष्य में पैराफीन, डीजल और पेट्रोल जैसे पेट्रोलियम उत्पादों और रसायन उद्योग की विशेष बुनियादी सामग्रियों की जगह लेंगे।
 
बिजली, पानी, कार्बन डाइऑक्साइड और हवा में मौजूद नाइट्रोजन के इलेक्ट्रोलिसिस यानी विद्युत अपघटन से उनका उत्पादन किया जाता है। ईंधनों को फिर टैंकरों, पाइपलाइनों या ट्रेनों के जरिए ले जाया जाता है। पहला वाणिज्यिक प्लांट इन दिनों दक्षिणी चिली में बनाया जा रहा है। वहां एक साझा प्रोजेक्ट के तहत पोर्श और सीमंस एनर्जी जैसी कंपनियां इलेक्ट्रोफ्यूल (ई-फ्यूल) यानी सिंथेटिक ईंधन बनाने के लिए तेज हवाओं के जरिए सस्ती बिजली पैदा करना चाहती हैं। 2026 तक उन्हें हर साल करीब 550 लीटर ई-फ्यूल मिलने की उम्मीद है।
 
ब्रायर कहते हैं कि पाटागोनिया में चल रहे प्रोजेक्ट के जरिए आप देख सकते हैं कि वैश्विक पैमाने पर क्या होगा। 10 साल में हर साल ऐसे दर्जनों प्रोजेक्ट हमें मशरूमों की तरह यहां-वहां उभरते दिखेंगे।
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