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Last Modified: बुधवार, 12 जून 2019 (10:50 IST)

मंदिर ने बचा लिए लुप्त होते कछुए

मंदिर ने बचा लिए लुप्त होते कछुए | Turtle
सांकेतिक तस्वीर

असम में कछुए का मांस बड़े शौक से खाया जाता था। लोगों के शौक और प्राकृतिक आवासों में कमी के चलते कछुओं की एक प्रजाति विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई। लेकिन एक मंदिर के तालाब में कछुए बिना किसी डर के बड़े आराम से रह रहे हैं।
 
 
एक वक्त पर लुप्त हो चुके ब्लैक सॉफ्टशैल टर्टल (कछुए) सदियों बाद भारत के एक मंदिर में फिर से नजर आने लगे हैं। विलुप्ति की कगार से वापस लाने का श्रेय मंदिर प्रशासन और प्रकृति प्रेमियों को जाता है। भारत का पूर्वोत्तर राज्य असम एक जमाने में मीठे पानी में रहने वाले कछुओं का गढ़ हुआ करता था। लेकिन प्राकृतिक आवास की कमी और बतौर एक खास डिश इन्हें खाए जाने के चलते इनकी संख्या लगातार घटती गई। असम में कछुए का मांस स्थानीय स्तर पर काफी लोकप्रिय हुआ करता था।
 
 
साल 2002 में इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने काले कछुओं को विलुप्त घोषित कर दिया, वहीं भारतीय सॉफ्टशैल कछुओं और भारतीय पीकॉक कछुओं को संकट की स्थिति में माना। लेकिन असम में हजो तीर्थस्थल पर स्थित हयाग्रिवा माधव मंदिर का तालाब इन कछुओं के लिए सुरक्षित स्वर्ग साबित हुआ। मंदिर के तालाब में रहने वाले कछुओं को लोग पवित्रता के चलते शिकार नहीं करते और ना ही उन्हें नुकसान पहुंचाते हैं।
 
 
संरक्षण समूह गुड अर्थ में काम करने वाले जयादित्य पुरकायस्थ बताते हैं कि मंदिर के तालाब में बहुत सारे कछुए हैं। इस समूह ने मंदिर प्रशासन के साथ मिलकर एक ब्रीडिंग प्रोग्राम भी तैयार किया है। जयादित्य ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया, "कछुओं की संख्या असम में लगातार घट रही थी। हमें महसूस हुआ कि हमें इस प्रजाति को लुप्त होने से बचाने के लिए कुछ करना चाहिए।"
 
 
जनवरी 2019 में इनकी संस्था ने मंदिर के तालाब में पले-बढ़े करीब 35 कछुओं के पहले बैच को एक वन्य जीव अभ्यारण में दिया। 35 कछुओं के समूह में 16 ब्लैक सॉफ्टशैल कछुए भी थे। पर्यावरणविद रहे प्रणव मालाकर आज मंदिर में तालाब की देखरेख करते हैं और उन्हें कछुओं के लिए काम करना अच्छा लगता है। मालाकर बताते हैं, "पहले मैं कछुओं का ख्याल रखता था क्योंकि मैं उन्हें पसंद करता था, लेकिन अब मैं गुड अर्थ के साथ जुड़ गया हूं तो उनकी देखरेख करना मेरी जिम्मेदारी है।" मालाकर बताते हैं, "अब कोई कछुओं को नुकसान नहीं पहुंचाता क्योंकि लोग इन्हें भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं। मैं यहीं पला-बढ़ा और मैंने अपने बचपन से कछुओं को देखा है। लोग इनका आदर और सम्मान करते हैं।"
 
 
अब मालाकर रेत में दिए गए कछुओं के अंडों को इनक्यूबेटर में रखते हैं। इस प्रोजेक्ट की सफलता के बाद गुड अर्थ संस्था ने ऐसे 18 अन्य तालाबों की पहचान की है जो इस काम के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं। हालांकि काम इतना आसान नहीं है और इसकी अपनी चुनौतियां भी हैं।
 
 
कार्यकर्ता बताते हैं कि गुवाहाटी के बाहर से मंदिर आने वाले लोग कई बार ब्रेड और अन्य खाना कछुओं के लिए फेंक देते हैं। ऐसा खाना कछुओं को बहुत पसंद आता है। पुरकायस्थ के मुताबिक, "इस तरह का खाना तालाब में रहने वाले कछुओं के अंदर जैविक बदलाव ला रहा है। अब वे खाना ढूंढने की अपनी प्रवृत्ति को भूल रहे हैं और बैठ कर खाने लगे हैं।"
 
 
एए/आईबी (एएफपी)
 
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