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Written By DW
Last Modified: रविवार, 3 अगस्त 2025 (08:10 IST)

क्या चीन में बन रहे विशाल बांध से भारत को होगा बड़ा नुकसान?

चीन 'यारलुंग सांग्पो' नदी पर एक विशाल बांध बना रहा है। इससे भारत में चिंता पैदा हो गई है। क्या चीन, नदी के पानी को भारत के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल कर सकता है?

dam on india china border
मुरली कृष्णन (नई दिल्ली से)
चीन, पूर्वोत्तर भारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश के साथ लगी विवादित सीमा के पास 'यारलुंग सांग्पो' नदी पर एक विशाल बांध बना रहा है। अरुणाचल प्रदेश पर बीजिंग भी दावा करता है। बांध का निर्माण जुलाई 2025 में शुरू हुआ।
 
इस बांध का निर्माण कार्य चीनी प्रधानमंत्री ली केचियांग की मौजूदगी में आयोजित एक समारोह में शुरू हुआ। 'यारलुंग सांग्पो' नदी जब चीन से अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करती है, तो उसे सियांग कहा जाता है। असम में यह ब्रह्मपुत्र कहलाती है। 
 
इस बांध के निर्माण की वजह से भारत में चिंता पैदा हो गई है। कारण यह है कि इससे न सिर्फ पर्यावरण को खतरा है, बल्कि चीन को भारत के पूर्वोत्तर इलाके और बांग्लादेश की ओर पानी के बहाव को नियंत्रित करने का एक जरिया भी मिल सकता है।
 
170 अरब डॉलर की अनुमानित लागत वाली इस जलविद्युत परियोजना का लक्ष्य सालाना 300 अरब किलोवॉट घंटे बिजली पैदा करना है। इससे चीन के अन्य हिस्सों में बिजली पहुंचेगी और तिब्बत में भी बिजली की मांग पूरी की जाएगी। यह परियोजना चीन में स्थित दुनिया के अब तक के सबसे बड़े बांध 'थ्री गॉर्जेस डैम' से तीन गुना बड़ी है।
 
कुछ विशेषज्ञों और पूर्व राजनयिकों का मानना है कि यह बांध भारत और चीन के बीच तनाव को फिर से बढ़ा सकता है। जबकि हाल ही में दोनों देशों के बीच सीमा संबंधी चिंताओं में कुछ सुधार के संकेत मिले हैं।
 
भारत और चीन के बीच लंबे समय से सीमा विवाद
भारत और चीन, दोनों देशों ने एक-दूसरे पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के पास के क्षेत्र पर कब्जा करने की कोशिश का आरोप लगाया है। भारत का कहना है कि यह सीमा 3,488 किलोमीटर लंबी है, जबकि चीन इसे इससे कम मानता है।
 
वर्षों के तनाव के बाद, दोनों देशों ने संबंधों को सामान्य बनाने के लिए नए सिरे से प्रयास शुरू किए हैं। जनवरी 2025 में, दोनों पक्ष लगभग पांच वर्षों के बाद उड़ानें फिर से शुरू करने पर सहमत हुए। इसके तीन महीने बाद, भारत और चीन के विशेष प्रतिनिधियों ने तीर्थयात्राओं और सीमा के जरिए व्यापार को फिर शुरू करके आगे बढ़ने का फैसला किया।
 
इस सबके बीच यह बांध परियोजना एक नई बड़ी चिंता का कारण बन रही है। इससे पर्यावरण में जो बदलाव होंगे, वे निचले हिमालयी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की जनसंख्या, रहन-सहन और जैव विविधता पर गहरा असर डाल सकते हैं। इसके चलते पर्यावरणीय और भू-राजनीतिक समस्याएं पैदा होने की आशंका है।
 
भारत और चीन के बीच पानी का डेटा साझा करने के लिए एक व्यवस्था बनाई गई है। इसे एक्सपर्ट लेवल मैकेनिज्म (ईएलएम) कहा जाता है। भारत इतनी बड़ी बांध परियोजना के लिए ईएलएम को पर्याप्त नहीं मानता है। इसकी वजह यह है कि ईएलएम के तहत मुख्य रूप से मॉनसून के मौसम में ही जानकारी दी जाती है, जब बाढ़ का खतरा सबसे अधिक होता है।
 
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पूर्वी एशियाई अध्ययन केंद्र के एसोसिएट प्रोफेसर अरविंद येलेरी ने डीडब्ल्यू को बताया, "भारत का तर्क है कि लंबे समय में यह बांध न केवल असम और बांग्लादेश के निचले इलाकों में मिट्टी की उर्वरता के लिए जरूरी पोषक तत्वों से भरपूर गाद को रोक लेगा, बल्कि इससे सिंचाई पर भी असर पड़ेगा। यह बांध फसल की पैदावार और कृषि उत्पादकता को भी प्रभावित करेगा। साथ ही, नदी के पारिस्थितिकी तंत्र पर भी इसका असर होगा।"
 
येलेरी के अनुमान के मुताबिक, सीमा पार की नदियां और नदी के पारिस्थितिकी तंत्र को एकतरफा रूप से बदलने का चीन का तरीका पर्यावरणीय और कूटनीतिक दृष्टि से विनाशकारी है।
 
क्या पानी के दोहन का भी खतरा है?
येलेरी बताते हैं, "कानूनी नजरिए से देखा जाए, तो चीन अपनी भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते नदियों के प्रवाह को बनाए रखने की जिम्मेदारी को अनदेखा कर रहा है। यह एक तरह का अपराध है। इससे भारत की सीमा वार्ता में शामिल होने की रणनीतिक सोच पर पहले ही गहरा असर पड़ा है।"
 
चीन ने मेकांग नदी पर भी ऐसा ही रुख अपनाया और कई बांध बनाते हुए नदी के ऊपरी हिस्से पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। 1980 के दशक के मध्य से, चीन ने मेकांग नदी पर 11 बड़े बांध बनाए हैं और कई अन्य बांध बनाए जा रहे हैं।
 
चीनी मामलों के विशेषज्ञ और 'ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन' के फेलो अतुल कुमार ने डीडब्ल्यू को बताया, "चीन ने अभी तक अपने किसी भी पड़ोसी देश के साथ नदी जल-साझेदारी समझौता नहीं किया है। जबकि, एशिया की ज्यादातर बड़ी नदियों का उद्गम स्थल उसी के नियंत्रण में है।"
 
अतुल कुमार बताते हैं, "यारलुंग सांग्पो के मामले में भी चीन ने ऐसा ही रुख अपनाया है। उसने भारत और बांग्लादेश को इन बांध परियोजनाओं के बारे में जानकारी नहीं दी है। यहां तक कि जल विज्ञान से जुड़ा डेटा साझा करना, जो केवल एक तकनीकी प्रक्रिया है, वह भी द्विपक्षीय संबंधों पर निर्भर करता है। तनावपूर्ण समय में अक्सर यह डेटा उपलब्ध नहीं कराया जाता है।"
 
बीते दिनों एक मीडिया ब्रीफिंग के दौरान चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गुओ जियाकुन ने कहा कि यह परियोजना 'निचले इलाकों पर कोई नकारात्मक असर नहीं डालेगी।' हालांकि, उनके इस बयान को संदेह की नजर से देखा जा रहा है।
 
अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने चीन की इस विशाल बांध परियोजना को एक 'वॉटर बम' करार दिया। उन्होंने इसे अस्तित्व के लिए भी खतरा बताया, जो सैन्य खतरे से भी कहीं बड़ा मुद्दा है।
 
'निचले इलाके में विनाश'
खांडू ने समाचार एजेंसी पीटीआई से कहा, "समस्या यह है कि चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। कोई नहीं जानता कि वह क्या कर सकता है।" उन्होंने जोर देकर कहा कि चीन ने अंतरराष्ट्रीय जल संधि पर हस्ताक्षर नहीं किया है। इस वजह से वह वैश्विक मानकों का पालन करने के लिए बाध्य नहीं है।
 
अतुल कुमार ने बांध टूटने के खतरे पर भी चिंता जताई, जो 'पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश के निचले इलाकों के लिए हमेशा एक खतरा बना रहेगा।' उन्होंने कहा, "अस्थिर और भूकंप-संभावित हिमालय क्षेत्र में कोई भी प्राकृतिक आपदा, संघर्ष या यहां तक कि तोड़फोड़ भी निचले इलाकों में हर तरफ तबाही ला सकती है।"
 
पूर्व राजनयिक अनिल वाधवा ने एक परामर्शी तंत्र बनाने की मांग की। उन्होंने कहा कि जब बांध बन जाए तो चीन को उसकी क्षमता, पानी के बहाव और बनावट के बारे में सारी जानकारी देनी चाहिए।
 
अनिल वाधवा ने डीडब्ल्यू को बताया, "यह जरूरी है कि भारत, अरुणाचल प्रदेश में जल्द-से-जल्द अपना बांध बनाकर सभी रक्षात्मक उपाय करे। बांध का विरोध कर रहे स्थानीय लोगों को मुआवजा मिलना चाहिए। साथ ही, जिन लोगों पर इसका असर हो रहा है उनसे खुलकर बात करनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो यह मामला हाथ से निकल सकता है। समस्या ज्यादा बिगड़ सकती है, जैसा कि हमने देश की कई अन्य बड़ी परियोजनाओं के साथ देखा है।"
 
पूर्व राजनयिक अजय बिसारिया का भी ऐसा ही मानना है। उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "चीन ने जिस तरह से हाल के दिनों में आर्थिक निर्भरता और व्यापार का इस्तेमाल भू-राजनीतिक हथियार के तौर पर किया है, उसे देखते हुए भारत को यह मान लेना चाहिए कि चीन पानी को भी हथियार के रूप में इस्तेमाल करेगा।"
 
उन्होंने कहा, "ऐसा करने की चीन की इच्छा तो साफ दिखती है, लेकिन उसकी क्षमता और तकनीकी रूप से ऐसा करना कितना संभव है, यह अभी देखना बाकी है। इस खतरे से बचने के लिए भारत को सबसे बुरे हालात के बारे में सोचना चाहिए और उसकी तैयारी अभी से कर लेनी चाहिए।"