-रामांशी मिश्रा
25 जुलाई 2025 को अहमदाबाद के नवरंगपुरा स्थित स्कूल में 16 वर्ष की कक्षा 10 की छात्रा हंसते हुए क्लास से बाहर निकली। हाथ में चाबी का गुच्छा घुमाते हुए आराम से स्कूल की चौथी मंजिल की गैलरी में जाकर खड़ी हुई और अचानक ही उसने नीचे छलांग लगा दी। इस पूरी घटना का सीसीटीवी फुटेज सोशल मीडिया पर वायरल हुआ।
26 जुलाई 2025 को लखनऊ के आशियाना स्थित एक स्कूल के आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले 14 वर्षीय छात्र ने आत्महत्या का रास्ता चुन लिया। कारण, उसकी मां ने डांट लगाई थी कि मोबाइल चलाने के बजाय वह पढ़ाई पर ध्यान दे।
ये दो मामले उदाहरण भर हैं। भारत समेत दुनिया के कई हिस्सों में स्कूल जाने वाले बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति में बीते कई वर्षों से इजाफा देखा जा रहा है। यह गंभीर चिंता का विषय है।
क्या इंटरनेट बन रहा है बच्चों की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण?
बच्चों में आत्महत्या के मामलों को लेकर मनोवैज्ञानिक अलग-अलग कारण और प्रवृत्तियों पर ध्यान देने की बात करते हैं। हालांकि, अधिकांश मनोवैज्ञानिक सहमति जताते हैं कि सबसे मुख्य कारण बदलती और आधुनिक होती तकनीक है।
डॉ ईशान्या राज, प्रयागराज के मोतीलाल नेहरू डिविजनल हॉस्पिटल में नैदानिक मनोचिकित्सक हैं। वह बताती हैं कि कोरोना काल के बाद से इंटरनेट ने बच्चों की जिंदगी में अहम जगह बनाई है। इसके चलते जहां एक ओर उनकी जिंदगी में मोबाइल फोन और गैजेट्स की संख्या में इजाफा हुआ है, वहीं दूसरी ओर उनके मानसिक स्तर पर इसका प्रतिकूल प्रभाव भी दिख रहा है।
किंग जॉर्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय (केजीएमयू) के बाल मनोचिकित्सक प्रोफेसर डॉ पवन गुप्ता का कहना कि आज बच्चों के पास बहुत कम उम्र में ही इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स तक पहुंच है। घरों में अनलिमिटेड वाई-फाई है और अभिभावकों के पास उन पर निगरानी रखने का समय बेहद कम है। इसका नतीजा यह होता है कि बच्चों के पास मानसिक विकास के लिए न तो समय होता है और न ही शारीरिक अभ्यास में उनकी रुचि रह जाती है। उन्हें अपना हर जवाब बस एक बटन दबाकर मिल जाता है।
जेनेरेशन गैप में बदलाव के साथ बदल रहा परिवेश
डॉ. ईशान्या का कहना है कि माता-पिता, शिक्षकों और बच्चों के बीच जेनेरेशन गैप है, इस वजह से दोनों पीढ़ियां एक-दूसरे को समझने में अक्षम हो रही हैं। इसमें आधुनिक तकनीक की भी भूमिका है। तकनीक का अत्यधिक प्रयोग न केवल बच्चों के मानसिक विकास और स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है, बल्कि माता-पिता को भी उनसे दूर करता जा रहा है।
डॉ ईशान्या बताती हैं, "पहले बच्चे नोट्स बनाते थे, उन्हें याद करते थे, बाहर खेलते थे, लोगों से मिलते-बात करते थे। वे अपने अनुभवों से काफी कुछ सीखते थे, लेकिन अब बच्चे मोबाइल और इंटरनेट पर काफी हद तक निर्भर हैं। इससे उनका सामाजिक कौशल कमजोर हो रहा है। साथ ही, इमोशनल इंटेलिजेंस पर भी असर पड़ रहा है।"
उत्तर प्रदेश नेशनल एडोल्सेंट एजुकेशन प्रोग्राम की पेरेंटिंग कोच और काउंसलर लीना विग का कहना है कि देखरेख की कमी भी एक कारण है। लीना कहती हैं, "आजकल दौड़-भाग भरे जीवन में कई माता-पिता के पास बच्चों के लिए समय नहीं होता। बच्चे जो मांगते हैं, अभिभावक उन्हें आसानी से लाकर दे देते हैं। ऐसे में बच्चों में एक अधिकार की भावना आ जाती है। यही आगे चलकर उनके लिए परेशानी का सबब बन जाता है।"
लीना यह भी रेखांकित करती हैं कि बच्चों का स्क्रीन टाइम बढ़ गया है। अधिक समय तक मोबाइल में ही लगे रहने से बच्चों का मानसिक विकास बाधित होता है। वह कहती हैं, "बच्चों का जल्दबाजी में हर निर्णय लेना, किसी भी बात पर तुरंत ही रिएक्शन देना और किसी बात के बुरा लगने पर उत्तेजित हो जाना आदि ऐसी बातें हैं, जो बच्चों के लिए 'फॉल्स आइडेंटिटी' के तौर पर सामने आता है।"
बच्चों में बढ़ रही 'सबकुछ या कुछ भी नहीं' की आदत
विशेषज्ञ इस ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि बच्चों में तत्काल संतुष्टि की आदत घर करती जा रही है। ये आदत बच्चों को मेहनत करने की जगह शॉर्टकट की ओर ले जा रही है। डॉ ईशान्या बताती हैं, "इसके कारण उनमें दूसरों से अपनी तुलना करने, तुरंत सबकुछ पा लेने, साथियों के बीच खुद को 'कूल' या सबसे बेहतर दिखाने जैसी होड़ रहती है। जब उनकी उम्मीदें पूरी नहीं होतीं या उनके अनुरूप नहीं होतीं, तो बच्चे खुद को दोष देने लगते हैं। उनमें कुंठा, तनाव और निराशा, बदला लेने की प्रवृत्ति घर करने लगती है। जब ये भावनाएं बेकाबू हो जाती हैं, तो आत्महत्या जैसी प्रवृत्तियां देखने को मिलती हैं।"
आत्महत्या की कोशिश के डराने वाले आंकड़े
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों में भी छात्रों की आत्महत्या की संख्या में इजाफा देखा गया है। एनसीआरबी के 2001 के आंकड़े में 5,425 बच्चों ने आत्महत्या की थी। 2022 तक ये मामले बढ़कर 13,044 तक हो गए। इन मामलों में 2,248 छात्रों ने सीधे तौर पर परीक्षा में फेल होने पर आत्महत्या कर ली थी। इनके अलावा अवसाद, चिंता, अकेलापन, तनाव और समाज, दोस्तों या घर-परिवार से किसी तरह का समर्थन न मिलने के कारण भी कई बच्चे आत्महत्या का रास्ता चुन रहे हैं।
डॉ ईशान्या अपनी क्लीनिकल साइकियाट्रिक ओपीडी में भी स्कूल जाने वाले छात्रों की संख्या में इजाफा देख रही हैं। वह बताती हैं, "हर महीने ओपीडी में आने वाले औसतन 35 ऐसे बच्चे होते हैं, जो किसी-न-किसी तरह की मानसिक समस्या से जूझ रहे होते हैं। इसके अलावा 15 से अधिक ऐसे बच्चे भी हर महीने हमारे पास आ रहे हैं, जो या तो आत्महत्या की कोशिश कर चुके होते हैं या फिर इस तरह की प्रवृत्ति उनमें देखी गई है।"
बाल मनोचिकित्सक प्रोफेसर डॉ पवन गुप्ता का कहना है कि उनके ओपीडी में 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों में प्रतिमाह औसतन 20 से 25 बच्चे ऐसे होते हैं, जो टेक्नोलॉजी और मोबाइल फोन के कारण मानसिक परेशानियों से जूझ रहे हैं।
टेक्नोलॉजी की लत से बचाने के लिए पुट क्लीनिक
केजीएमयू में बच्चों के लिए प्रॉब्लमैटिक यूज ऑफ टेक्नोलॉजी (पुट) क्लीनिक बनाया गया है। मार्च 2019 में शुरू हुए इस क्लिनिक का उद्देश्य बच्चों और किशोरों में ऑनलाइन गेमिंग, सोशल मीडिया और पोर्नोग्राफी जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के अत्यधिक उपयोग से होने वाली समस्याओं और मानसिक विकारों का इलाज करना है।
क्लिनिक का संचालन डॉ पवन करते हैं। उनका सुझाव है कि माता-पिता बच्चों को स्क्रीन से दूर रखने के लिए रचनात्मक गतिविधियों पर ध्यान दें। जैसे कि खेलना, पढ़ना-पढ़ाना, कला और नए अनुभव को सिखाने के क्रियाकलाप। समय रहते यदि बच्चों की डिजिटल आदतों पर नियंत्रण न किया जाए, तो यह भविष्य में उनके व्यक्तित्व और सामाजिक विकास को गहराई से प्रभावित कर सकता है।
बच्चों की आदतों पर ध्यान देना जरूरी
डॉ. ईशान्या के मुताबिक, अगर अवसाद के शुरुआती संकेतों को समय रहते पहचाना जाए और मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ से मदद ली जाए तो बच्चों को गंभीर मानसिक संकट से बचाया जा सकता है। इनमें से कुछ आदतें इस तरह की हो सकती हैं-
- खाने और सोने की आदतों में बदलाव
- दोस्तों और परिवार से दूर रहने लगना
- अपनी व्यक्तिगत सफाई या खुद के रूप-रंग की उपेक्षा करना
- प्रशंसा का असर न होना
- उदासी या बार-बार रोना
- सोशल मीडिया पर अकेलेपन या अवसाद से जुड़े पोस्ट करना
- आत्महत्या या खुद को नुकसान पहुंचाने के बारे में बात करना या संकेत देना
- व्यवहार में अचानक बदलाव आना जैसे- चुपचाप या थके हुए रहना, किसी बात की परवाह न करना या अचानक ज्यादा बातूनी और मिलनसार बन जाना
- बहुत ज्यादा सोना या बिल्कुल न सो पाना
- चिड़चिड़ापन, गुस्सा या आक्रामकता का लगातार बना रहना
- "मैं अब और नहीं सह सकता/सकती" या "मेरे बिना तुम्हारा जीवन बेहतर होगा" जैसे जीवन समाप्त करने वाले विचार व्यक्त करना
बच्चों के चलने-बैठने, बात करने समेत छोटे-छोटे हाव-भाव से भी उनके मानसिक स्तर का पता लगाया जा सकता है। लीना कहती हैं, "अपने बच्चों पर ध्यान देना सबसे अधिक उनके अभिभावकों के लिए ही जरूरी है। बच्चे किस तरह बैठकर काम कर रहे हैं, उनमें कोई बदलाव आ रहा है, वे चुप हैं या बहुत अधिक उत्तेजित हो रहे हैं, किसी बात को लेकर चिड़चिड़ा रहे हैं या फिर किसी भी तरह की भावना को दबाना सीख चुके हैं, इन बातों का पता सबसे पहले अभिभावकों को ही लगता है। ऐसे में उन्हें इस ओर जरूर ध्यान देना चाहिए।"