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Last Modified: शनिवार, 6 अप्रैल 2019 (11:28 IST)

मायावतीः राजनीतिक साख बचाने की लड़ाई

मायावतीः राजनीतिक साख बचाने की लड़ाई । mayawati - mayawati
अमेरिकी पत्रिका न्यूजवीक ने 2007 में मायावती को दुनिया की सबसे ताकतवर महिला राजनेताओं में एक चुना था। उसी दौरान एक इंटरव्यू में मायावती ने कहा था कि उन्हें प्रतिस्पर्धा पसंद है और जीतना भी पसंद है।
 
 
इस एक लाइन से मायावती की राजनीति, लक्ष्य और इरादे का पता चल जाता है। मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। चार बार लोकसभा और राज्यसभा की सांसद हैं। उनके राजनीतिक कद का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज की राष्ट्रीय राजनीति में संभवतः सबसे अनुभवी और सबसे लंबे करियर वाली महिला नेता हैं। उनके बिना गठबंधन की राजनीति अधूरी मानी जाती है और बाज मौकों पर केंद्र या राज्य में उनके बगैर सरकारें भी संभव नहीं हुई हैं। इसीलिए 90 के दशक में जब केंद्र में गठबंधन सरकारों का दौर आया तो पीएम की रेस में जिन चुनिंदा नेताओं का नाम तबसे हमेशा बना रहा- उनमें मायावती भी एक थीं।
 
 
15 जनवरी 1956 को दिल्ली में जाटव परिवार में जन्मीं मायावती राजनीति में आने से पहले शिक्षिका थीं। उसी दौरान वह दलितों के प्रमुख कर्मचारी संगठन बामसेफ से जुड़ गईं। दलित नेता काशीराम की नजर उन पर पड़ी। इस तरह राजनीति में विधिवित प्रवेश 1984 में हुआ। उसी साल 14 अप्रैल को बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की जयंती पर बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) की नींव रखी गई। कांशीराम पार्टी के अध्यक्ष बने और मायावती महासचिव। काशीराम के बीमार पड़ जाने के बाद 2003 में मायावती ने पार्टी की कमान अपने हाथ में ले ली। तबसे लगातार वो अध्यक्ष पद पर बनी हुई हैं। 2006 में कांशीराम के निधन के बाद वो पार्टी की एकछत्र लीडर हो गईं। मायावती ने तीन किताबें भी लिखी हैं। और उनकी दो जीवनियां प्रकाशित हैं।
 
 
मायावती का पार्टी पर इतना तगड़ा कसाव है कि इसकी तुलना एआईएडीमके की दिवंगत नेता जयललिता और बंगाल में ममता बनर्जी से की जा सकती है। मायावती ने जो कह दिया वही पार्टी की लाइन हो जाती है। वो बहुत कम इंटरव्यू देती हैं। प्रेस काफ्रेंस करती हैं लेकिन अपना वक्तव्य लिखकर लाती हैं। और एक शब्द अतिरिक्त नहीं बोलती। उन्हें टस से मस करना असंभव माना जाता है।
 
 
माना जाता है कि लगातार सत्ता में आवाजाही और चुनावी राजनीति में कभी विधायक तो कभी सांसद के रूप में संसद के दोनों सदनों में जाती रहीं मायावती पर भी सत्ता का अहंकार चढ़ा। उन्होंने समाज के उन समुदायों की अनदेखी की जिसे बीएसपी अपना वोटबैंक मानती आई है। दलितों के खिलाफ नाइंसाफियों पर खुलकर बोलने से बचीं। भीमा कोरेगांव की हिंसा और दलित चिंतकों पर हमलों के मामले हों या अपने राज्य में उभरती दलित चेतना की प्रखर आवाज बने गए भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर- मायावती ने सबसे दूरी बनाए रखी और हालिया संघर्षों पर उनकी उदासीनता ने दलित आंदोलनकारियों को हैरान और निराश भी किया।
 
 
कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ आत्मीयता रखने वाली मायावती ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हुए विधानसभा चुनावों में गठजोड़ से इंकार कर कांग्रेस को झटका दिया और अब यूपी में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अपने गठबंधन से कांग्रेस को किनारे ही रखा है। मायावती की राजनीति की थाह लेना आसान नहीं हैं। बहुजन समाज के नारे से बाहर निकलकर सर्व समाज और दलित से इतर जातियों को अपनी पार्टी के साथ जोड़ने की कोशिश की, इसे उनकी राजनीतिक मौकापरस्ती के रूप में भी देखा गया। यहां तक कि इधर पांच वर्षों के दौरान दलितों और अल्पसंख्यकों पर हुए हमलों, लव जिहाद और गोरक्षा की हिंसाओं और राफाल सौदे से जुड़े विवादों पर मायावती या तो देर से बोलीं या संभल संभल कर या चुप्पी साध गईं। उन्होंने ममता बनर्जी से उलट, केंद्र सरकार पर तीखे हमलों से कमोबेश परहेज ही किया। हालांकि इधर मायावती के रुख में कुछ सख्ती आई है और ट्विटर पर अकाउंट खोलने के बाद गाहेबगाहे उनके ट्वीट आते हैं जिनमें वो प्रधानमंत्री मोदी के तौर तरीकों पर सीधा निशाना साधती दिखती हैं।
 
 
2007 के चुनावों को भारी मतों से जीतकर यूपी की मुख्यमंत्री रहते हुए उन पर आरोप लगा कि उन्होंने खुद को आम जनता और उनके सरोकारों से काट दिया और जिसका खामियाजा उन्हें सत्ता गंवाकर भुगतना पड़ा। 2012 में यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी। रहीसही कसर 2014 के लोकसभा और फिर 2017 के विधानसभा चुनावों ने पूरी कर दी। 2014 का लोकसभा चुनाव उनके राजनीतिक करियर का सबसे खराब दौर माना जा सकता है जब बीएसपी अपना खाता भी नहीं खोल पाई, जबकि पार्टी के हिस्से तीसरा सबसे बड़ा वोट शेयर आया था। ये चर्चा होने लगी कि क्या बीएसपी अब यूपी और देश की राजनीति में पिछड़ रही है। पार्टी के चुनाव चिन्ह के हवाले से संकेतों में कहा गया कि मायावती का हाथी अब थक चुका है। लेकिन विधानसभा और लोकसभा के लिए हुए उपचुनावों में यूपी ने बीएसपी और एसपी के गठबंधन न सिर्फ हरकत में आया बल्कि सीटें भी जीत लीं। अपने आलोचकों को मायावती का ये जवाब था।
 
 
खोई जमीन पाने के लिए मायावती ने यूपी पॉलिटिक्स में सपा जैसे सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी से हाथ मिलाने से भी परहेज नहीं किया। मायावती और अखिलेश यादव को मीडिया हल्कों में बुआ-भतीजे की जोड़ी की तरह देखा गया जो बीजेपी और कांग्रेस जैसे दलों के लिए चिंता का सबब बने हुए हैं। हालांकि लोकसभा में अच्छा प्रदर्शन उनके लिए इस समय एक तरह से करो या मरो जैसा है। न सिर्फ पार्टी में नई जान फूंकने का प्रश्न है बल्कि खुद मायावती की राजनीतिक साख भी दांव पर है।
 
 
अपनी तमाम कमियों, गलतियों, अनदेखियों और राजनीतिक नाकामियों के बावजूद मायावती एक सख्त प्रशासक मानी जाती हैं। विकास परियोजनाओं से लेकर मूर्ति, पार्क और स्मारक निर्माण में करोड़ो रुपये खर्च कर देने वाली मायावती की शानोशौकत के चर्चे भी होते रहे हैं चाहे वो अपनी मूर्ति हो या परिधान या फिर हीरे के गहने। उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं। सीबीआई जांच का साया उन पर जब तब घिरता ही रहा है। आलोचक कहते हैं कि मायावती में राजसी वैभव की चाहत, आत्ममुग्ध और आत्मकेंद्रित रवैया और एक जिद भरी ठसक रही है। लेकिन समर्थक, प्रशंसक और पार्टी कार्यकर्ता जानते हैं कि उनकी अविवाहित 'बहनजी' के लिए आखिरकार पार्टी ही परिवार है। ये बात अलग है कि 'उनके बाद कौन' का सवाल मौजूं बना हुआ है। पार्टी के वजूद को बनाए रखने के लिए मायावती ने अपने उत्तराधिकारी की विधिवित घोषणा तो नहीं की है लेकिन मीडिया में उनके सबसे बड़े भतीजे आकाश आनंद को लेकर जोरदार अटकलें लगती रही हैं। यानी असली बुआ-भतीजे की जोड़ी की एंट्री अभी होनी है!
 
 
मायावती ने इसी साल जनवरी में ऐसी खबरों का न सिर्फ खंडन किया बल्कि कड़ी आलोचना भी की। उनका आरोप था कि बीएसपी मूवमेंट की तेजी और समाजवादी पार्टी के साथ हुए गठबंधन से हताश लोग ही इस तरह की अफवाह उड़ा रहे हैं। लेकिन मायावती ने अपने चिरपरिचित अंदाज में ये भी कह डाला कि आकाश को बीएसपी 'मूवमेंट' मे शामिल किया जाएगा। आकाश दिल्ली से पढ़ाई के बाद लंदन से एमबीए कर 2017 में पहली बार अपनी बुआ के साथ सहारनपुर दौरे में नजर आए थे। इससे पहले मायावती ने अपने भाई और आकाश के पिता आनंद कुमार को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया था तो उन पर भाई भतीजावाद के आरोप लगे। जल्द ही आनंद कुमार ने अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा। मायावती ने इसे दलितों के खिलाफ साजिश बताया था।
 
 
दलित और अल्पसंख्यक समुदायों पर अपनी कमजोर होती पकड़ को फिर से मजबूत बनाने के लिए मायावती को कड़ी मेहनत करनी होगी क्योंकि हिंदी पट्टी और उससे बाहर भी वो दलितों की अकेली और सर्वमान्य नेता नहीं रह गई हैं। दलितों की जिस नई पीढ़ी से वो कन्नी काटती दिखती हैं उसके जिग्नेश मेवाणी और चंद्रशेखर 'रावण' जैसे प्रतिनिधि, संघर्ष की नई जमीनें तैयार कर चुके हैं।
 
रिपोर्ट शिवप्रसाद जोशी
 
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