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Last Modified: शुक्रवार, 5 अप्रैल 2019 (16:49 IST)

क्या 2019 का चुनाव मुसलमानों के लिए अग्निपरीक्षा है?

क्या 2019 का चुनाव मुसलमानों के लिए अग्निपरीक्षा है? | general elections 2019
भारत के हर चुनाव में यह सवाल पूछा जाता है कि मुसलमान इस बार किसे वोट देंगे। लेकिन कई मुसलमान विश्लेषकों का कहना है कि 2019 में चुनाव में सवाल यह है कि हिंदू बहुल भारत में अल्पसंख्यक मुसलमानों की क्या जगह होगी।
 
 
भारत के कुल 29 राज्यों में से सिर्फ जम्मू कश्मीर ही मुस्लिम बहुमत वाला राज्य है। बाकी सभी राज्यों में मुसलमान अल्पसंख्यक हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक 1.3 अरब की जनसंख्या में मुसलमानों की हिस्सेदारी 17.23 प्रतिशत है। लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, केरल, असम, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे कई राज्यों में मुसलमानों की अच्छी खासी संख्या है और चुनावों में उनके वोट हार जीत तय करने में अहम भूमिका अदा करते हैं। दलित और पिछड़े वर्गों के साथ मिल कर उनके वोटों ने कई पार्टियों को सत्ता तक पहुंचाया है।
 
 
लेकिन अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में आधुनिक इतिहास पढ़ाने वाले प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद कहते हैं कि सत्ताधारी बीजेपी की तरफ से उग्र हिंदुत्व और ध्रुवीकरण की राजनीति के जरिए मुसलमानों को राजनीतिक रूप से महत्वहीन बनाने की कोशिश हो रही है। वह कहते हैं, "2014 के आम चुनाव के बाद कुछ ऐसा माहौल बना जिससे लगा कि मुस्लिम वोट को अप्रासांगिक कर दिया गया है। मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं को गोलबंद करने की कोशिश की गई। इसका असर यह हुआ जो पार्टियां खुद को सेक्युलर कहती थीं, उन्होंने भी मुसलमानों के मुद्दों पर बोलना बंद कर दिया।"
 
 
'हिंदू आतकंवाद' और राजनीति 
2014 में भारतीय जनता पार्टी 'सबका साथ सबका विकास' नारे के साथ चुनावी मैदान में उतरी थी। बीजेपी को अपने पक्के समर्थकों के अलावा बड़ी मात्रा में ऐसे लोगों का भी वोट मिला जो लगातार दस साल तक चली यूपीए सरकार से मायूस हो चुके थे और बदलाव चाहते थे, नौकरियां चाहते थे, महंगाई पर नियंत्रण चाहते थे और एक बेहतर जिंदगी चाहते थे।
 
 
उम्मीद थी कि देश और विदेश में भारत की छवि को चमकाने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ेगी। लेकिन जैसे जैसे चुनाव नजदीक आ रहा है, चुनावी फिजा में धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण की सियासत घुल रही है।
 
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों एक चुनावी भाषण में कहा कि कोई हिंदू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता। उनका निशाना विपक्षी कांग्रेस की तरफ था, जिसके शासन काल में भारत और पाकिस्तान के बीच चलने वाली समझौता एक्सप्रेस में हुए धमाके के सिलसिले में हिंदू आतंकवाद शब्द प्रयोग किया गया। 18 फरवरी 2007 को हुए इस हमले में 68 लोग मारे गए थे और मरने वालों में ज्यादातर पाकिस्तानी थे।
 
 
उस वक्त जांच एजेंसियों ने इसे आंतकवादी हमला माना और इस मामले में खुद को संत बताने वाले असीमानंद समेत आठ लोगों के खिलाफ केस दर्ज किया गया। इनमें से एक आरोपी की मौत हो चुकी है जबकि तीन को भगोड़ा घोषित किया गया। असीमानंद समेत जिन चार लोगों के खिलाफ मुकदमा चल रहा है उन्हें भी अदालत ने सबूतों के आभाव में बरी कर दिया।
 
 
सब मुद्दे पीछे, हिंदुत्व आगे
ऐसे में मोदी ने कांग्रेस पर "हिंदू आतंकवाद" के जरिए हिंदुओं को बदनाम करने का आरोप लगाया है। इसके पीछे फिर धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की सियासत नजर आती है। यही नहीं, उन्होंने दक्षिण भारत में वायनाड सीट से चुनाव लड़ने के कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी फैसले को भी निशाना बनाया है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष ने अपने लिए ऐसी सीट चुनी जहां मतों के हिसाब से हिंदू अल्पसंख्यक हैं। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी किसी हिंदू बहुल सीट से चुनाव लड़ने से डरते हैं।
 
 
वरिष्ठ पत्रकार यूसुफ किरमानी कहते हैं कि बीजेपी की हर बार यही कोशिश होती है कि धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण करे और हिंदुत्व का मुद्दा उठा कर चुनावी फसल काटे। वह कहते हैं, "बीजेपी की तरफ से जनता को यह बताया जाना चाहिए कि उसने पिछले पांच साल में क्या किया। कितने लोगों को रोजगार दिया। उन किसानों के लिए क्या किया जो आत्महत्या करने को मजबूर हैं। बड़े बड़े उद्योगपति कैसे करोड़ों अरबों रुपये का घपला कर विदेशों में भाग गए। लेकिन ये सारे मुद्दे एक तरफ चले गए क्योंकि बीजेपी फिर से राष्ट्रवाद का मुद्दा ले आई है। वह साबित करने में लगी है कि देश में वही अकेली हिंदुओं की रक्षक है। अकेली वही राष्ट्रवादी पार्टी है।"
 
बीजेपी के उग्र हिंदुत्व के दबाव का जवाब कांग्रेस ने नरम हिंदुत्व से देने की कोशिश की है। कई मंदिरों में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की उपस्थिति को इसी कोशिश का हिस्सा माना जाता है। पिछले साल एक मंदिर में पूजा अर्चना करने गए राहुल गांधी ने खुद को दत्तात्रेय ब्राह्मण बताते हुए कहा कि वह उनका परिवार कश्मीरी पंडित है। लेकिन कांग्रेस की लगातार यह कोशिश भी रही है कि उसकी धर्मनिरपेक्ष छवि को नुकसान ना हो। इसीलिए वह मुसलमानों और उनकी पसंदीदा दूसरी पार्टियों के लिए ज्यादा स्वीकार्य है।
 
 
दूसरी तरफ, मुस्लिम मतों को हमेशा बीजेपी विरोधी वोट समझा जाता है। माना जाता है कि वे उस उम्मीदवार या पार्टी को चुनते है जो बीजेपी को हराने की स्थिति में हो। किरमानी कहते हैं कि टेक्टिकल वोटिंग मुसलमानों की मजबूरी है। वह कहते हैं, "मुसलमानों पर आरोप लगता है कि वे वोट बैंक की तरह काम करते हैं। किसी एक पार्टी को चुन लेते हैं और उसी को वोट देते हैं। लेकिन उनके पास कोई और चारा नहीं है, क्योंकि बीजेपी उन्हें लगातार एक तरफ धकेलने की कोशिश करती है।"
 
 
मुसलमान 'खुद जिम्मेदार'
वहीं भारतीय जनता पार्टी का कहना है कि मुसलमान वोट बैंक की तरह इस्तेमाल हो कर खुद अपनी अहमियत खो रहे हैं। पार्टी प्रवक्ता सैयद जफर इस्लाम इस बात को भी खारिज करते हैं कि बीजेपी हिंदू वोटों को गोलबंद करके मुसलमानों के वोटों की अहमियत को खत्म कर देना चाहती है। वह कहते हैं, "मैं खुद मुस्लिम समुदाय से आता हूं लेकिन दुर्भाग्य से भारत में मुस्लिम समाज के लोगों ने अपने वोटों की हैसियत को खुद खत्म कर दिया है। वे कांग्रेस और दूसरी क्षेत्रीय पार्टियों की जागीर बन कर रह गए हैं, जो उनके हितों के लिए कोई काम नहीं करती हैं।"
 
 
बीजेपी प्रवक्ता का कहना है कि मुसलमान भारतीय जनता पार्टी को जितना अछूत मानेंगे और कांग्रेस जैसी पार्टियों का वोट बैंक बनेंगे, उनका उतना ही नुकसान होगा। 'सबका साथ सबका विकास' का नारा दोहराते हुए वह कहते हैं कि मुसलमानों को बीजेपी के बारे में अपनी सोच बदलनी चाहिए।
 
 
लेकिन बीजेपी और उसके नेता नरेंद्र मोदी के बारे में अपनी सोच बदलना मुसलमानों के लिए इतना आसान नहीं है। उनकी नजर में बीजेपी हमेशा वही पार्टी रहेगी जिसने 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिराया जिसके बाद देश भर में हिंदू मुस्लिम दंगे हुए। वे गुजरात के 2002 के दंगों को नहीं भूल सकते जब नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते हुए मुसलमानों को निशाना बनाया गया था। वे पिछले कुछ सालों में लिंचिंग की घटनाओं को नहीं भूल सकते जिसमें गोमांस रखने की अफवाह और गायों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हुए मुसलमानों की हत्याएं की गईं।
 
 
ऐसे में, चुनावों में बीजेपी की तरफ से उग्र हिंदुत्व वाली राजनीति मुसलमानों को चिंता में डालने की वजह देती है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर मोहम्मद सज्जाद कहते हैं, "2019 के चुनाव में बहुसंख्यक हिंदू आबादी को तय करना है कि वह कैसा भारत चाहते हैं। क्या उन्हें ऐसा भारत चाहिए जिसमें अल्पसंख्यकों के पास कोई अधिकार ना हो, उनकी कोई आवाज ना हो, उन्हें सताया जाए या फिर वे ऐसा भारत चाहते हैं जो धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र हो, जिसमें धार्मिक पहचान की बजाए हर नागरिक को बराबर माना जाए।" प्रोफेसर सज्जाद कहते हैं कि इस आम चुनाव में मुसलमान वोटरों के बीच डर, चिंता और दुविधा है।
 
 
हिंदुओं की गोलबंदी कितनी कारगर
दिल्ली के एक थिंकटैंक सेंटर फॉर द स्टडीज ऑफ डेवेलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) में एसोसिएट प्रोफेसर हिलाल अहमद भी इस चुनाव को मुसमलानों के लिए बेहद अहम मानते हैं। लेकिन वह इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते कि मुसलमान किसी खास पार्टी के वोट बैंक की तरह काम करते है या फिर हिंदुओं को गोलबंद करके मुसलमानों की चुनावी अहमियत तथाकथित रणनीति कारगर हो रही है। वह कहते हैं कि मुसलमान मतदाता किसे कहां वोट देगा, यह बात कई बार स्थानीय मुद्दों से तय होती है। हालिया विधानसभा चुनावों के आंकड़ों के आधार पर वह कहते हैं कि इस बीच बीजेपी को पसंद करने मुसलमानों की संख्या भी बढ़ रही है। हालांकि यह एक छोटा सा समूह है, लेकिन इसमें वृद्धि का संकेत हैं।
 
 
हिलाल अहमद कहते हैं कि 2014 के बाद से देश में अलग अलग चुनावों में 4,200 से ज्यादा सीटों पर चुनाव हुआ है और बीजेपी ने इनमें से सिर्फ 1,800 जीती हैं। बीजेपी को हालिया विधानसभा चुनावों में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में हार का मुंह देखना पड़ा है। प्रधानमंत्री मोदी के गृह राज्य गुजरात में उसे जीत तो मिली लेकिन मुकाबला कांटेदार रहा। कर्नाटक के सत्ता संघर्ष में भी वह कांग्रेस से पिछड़ गई। इससे साफ पता चलता है कि मतदाता वोट देते समय धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण के अलावा दूसरे मुद्दों पर भी ध्यान दे रहा है। हिलाल अहमद कहते हैं, "जो माहौल बना दिया गया है उसमें तो यही लगता है कि बीजेपी हिंदुत्व की जो राजनीति कर रही है, वही आखिरी सत्य है, लेकिन हालिया चुनाव और उनके नतीजे कुछ और कहानी बयान करते हैं।"
 
 
दिलचस्प बात यह है कि धर्म और ध्रुवीकरण की इस बहस में मुसलमानों के असल मुद्दे दब जाते हैं, जिनकी बात होनी चाहिए। आजादी के 70 साल बाद भी मुसलमान आबादी का एक बड़ा हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे जिंदगी गुजार रहा है। शैक्षिक संस्थानों से लेकर सरकारी नौकरियों तक में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं दिखता। संसद और विधानसभाओं में भी उनकी पर्याप्त तादाद नजर नहीं आती।
 
 
आबादी के अनुपात में देखें तो लोकसभा के कुल 545 सांसदों में 77 मुसलमान सांसद होने चाहिए। लेकिन आज तक किसी लोकसभा में इतने मुस्लिम सांसद नहीं रहे। निवर्तमान लोकसभा में कुल 23 मुस्लिम सांसद थे जो कुल संख्या का सिर्फ 4.24 प्रतिशत है। प्रधानमंत्री मोदी के गृह राज्य गुजरात से पिछले तीस साल के दौरान कोई मुस्लिम सांसद लोकसभा नहीं पहुंचा है। इसके अलावा राजस्थान में आजादी के बाद से अब तक सिर्फ एक मुस्लिम उम्मीदवार ने लोकसभा का चुनाव जीता है।
 
 
सामाजिक और राजनीति नजरिए से भारत के मौजूदा हालात मुसलमानों के लिए ज्यादा खुशनुमा नजर नहीं आते। लेकिन हिलाल अहमद बेहतर भविष्य को लेकर आशावान हैं। वह कहते हैं, "मुस्लिम मतदाताओं की प्रासंगिकता इस बात से तय नहीं होती कि राजनीतिक दल उन्हें किस तरह से देख रहे हैं। उनकी प्रासंगिकता इस बात से तय होगी कि वे खुद अपने आप को कैसे देखते हैं। हमारे आंकड़े बताते हैं कि मुसलमानों का विश्वास भारतीय लोकतंत्र में बहुत ज्यादा है। इसी का नतीजा है कि वह चुनाव में पूरे उत्साह के साथ भाग लेते हैं।"
 
 
2019 का आम चुनाव भी भारतीय मुसलमानों के लिए मौका है कि वे उन पार्टियों और उम्मीदवारों को चुने जो उन्हें बेहतर भविष्य दे पाएं।
 
रिपोर्ट अशोक कुमार
 
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