पूरे देश में वनक्षेत्र में भले ही वृद्धि हुई हो, लेकिन पूर्वोत्तर भारत में इसमें तेजी से कमी आई है। केंद्र सरकार का कहना है कि यह खास चिंता की बात नहीं है लेकिन पर्यावरणविदों ने इसे खतरे की घंटी बताया है।
इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट (आईएसएफआर), 2019 में यह बात कही गई है। इसमें कहा गया है कि देश में वनक्षेत्र में 3,976 वर्ग किमी की वृद्धि हुई है, लेकिन पूर्वोत्तर के 8 में से असम व त्रिपुरा को छोड़कर बाकी 6 राज्यों में 765 वर्ग किमी वनक्षेत्र कम हो गया है।
हर 2 साल बाद सर्वेक्षण के जरिए देश के वन संसाधनों का आकलन किया जाता है। वर्ष 1987 से अब तक 16 बार यह रिपोर्ट जारी हुई है। इससे पहले की कई रिपोर्ट्स में भी इलाके में वनक्षेत्र के सिमटने का जिक्र किया गया था।
क्या कहती है 16वीं रिपोर्ट?
इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट (आईएसएफआर) में कहा गया है कि देश में जंगलों का क्षेत्रफल बीते 2 साल में 5,188 वर्ग किमी बढ़ा है। इसमें 3,976 वर्ग किमी फॉरेस्ट कवर यानी वन आवरण और 1,212 वर्ग किमी वृक्ष आवरण है। इसके साथ ही जंगलों में कार्बन स्टॉक 4.26 करोड़ टन बढ़ा है, जो वातावरण से कार्बन घटाने में काम आता है। इस दौरान मैंग्रोव वन का क्षेत्रफल 54 वर्ग किमी बढ़ा है। इसमें 2 वर्ष के दौरान 1.10 फीसदी वृद्धि हुई है।
केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने भारतीय वन सर्वेक्षण की ओर से भारत में जंगलों की स्थिति पर 2019 की रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट को अच्छा संकेत बताते हुए जावड़ेकर ने कहा कि भारत आज पेरिस समझौते के लक्ष्यों की ओर बढ़ रहा है तथा दुनिया में भारत ही अकेला ऐसा देश है, जहां घने, मध्यम और कम घने जंगलों में एकसाथ वृद्धि देखने को मिली है।
बीते 4 वर्षों के दौरान देश में वनक्षेत्र 13 हजार वर्ग किमी बढ़ा है। मंत्री ने दावा किया कि सरकार के फैसले के कारण बांस के क्षेत्रफल में भी अच्छी बढ़ोतरी हुई है। इसे और प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। उनका कहना था कि पेरिस समझौते के तहत भारत ने 250 करोड़ टन कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य रखा था जिसे 25 फीसदी पूरा कर लिया गया है।
पूर्वोत्तर में घटता वनक्षेत्र
उक्त रिपोर्ट में कहा गया है कि पूर्वोत्तर में 765 वर्ग किमी के जंगल घटे हैं। असम और त्रिपुरा के अलावा यहां के सभी राज्यों में वनक्षेत्र कम हुआ है। हालांकि पर्यावरण मंत्री जावड़ेकर कहते हैं कि पूर्वोत्तर में वनक्षेत्र में कमी अभी चिंता का विषय नहीं है। इस इलाके में दूसरे राज्यों के मुकाबले वन का अनुपात ज्यादा था।
केंद्र सरकार ने इस समस्या से निपटने के लिए दीर्घकालीन नीति बनाई है, लेकिन पर्यावरणविद् इसे खतरे की घंटी बता रहे हैं। इसकी वजह यह है कि देश के भौगोलिक इलाके या क्षेत्रफल में पूर्वोत्तर का हिस्सा महज 7.98 फीसदी होने के बावजूद कुल वनक्षेत्र का लगभग एक-चौथाई इसी इलाके में है। इलाके का वन संसाधन दुनिया के जैवविविधता वाले 17 शीर्ष स्थानों में शुमार है। वर्ष 2013 से 2015 के बीच भी इलाके के वनक्षेत्र में 628 वर्ग किमी की कमी दर्ज की गई थी।
लेकिन आखिर इलाके में वनक्षेत्र लगातार कम क्यों हो रहा है? पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि बढ़ती आबादी की वजह से होने वाले अतिक्रमण, वनक्षेत्र से सटी बस्तियों में रहने वाले आदिवासियों को जमीन का पट्टा मिलने, विकास परियजोनाओं के चलते पेड़ों की कटाई, प्राकृतिक आपदाओं और खासकर पर्वतीय इलाकों में झूम खेती ही इसकी प्रमुख वजह है।
इससे पहले वर्ल्डवाइड फंड फॉर नेचर (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) की ओर से 'पूर्वोत्तर भारत की जैविक विविधता का महत्व' शीर्षक एक रिपोर्ट में कहा गया था कि इलाके में खासकर सर्दी के सीजन में जंगल में अक्सर लगने वाली आग से 20 फीसदी इलाका प्रभावित होता है। उक्त रिपोर्ट में कहा गया था कि अतिक्रमण, पशुओं के चरने और वन उत्पादों की तस्करी से भी वनक्षेत्र घट रहा है।
क्या हैं जरूरी उपाय?
वन विशेषज्ञों का कहना है कि पूर्वोत्तर के वनक्षेत्र का पूरे देश के लिए खास महत्व है। इसकी वजह यह है कि देश के कुल वनक्षेत्र का एक-चौथाई हिस्सा इलाके के 8 छोटे राज्यों में ही है।
पूर्वोत्तर के वनक्षेत्र में लगातार होने वाली कमी का असर देश के भौगोलिक इलाके के 33 फीसदी को वनक्षेत्र से ढंकने का लक्ष्य प्रभावित होगा। मिजोरम के सहायक वन संरक्षक (योजना) चामा कहते हैं कि झूम की खेती से जमीन को नुकसान होता है। इसी वजह से राज्य सरकार ने नई जमीन नीति तैयार की है।
अरुणाचल प्रदेश में झूम की खेती के अलावा वनक्षेत्र को विकास परियोजनाओं के लिए देना भी एक प्रमुख वजह है। राज्य में बनने वाली पनबिजली परियजोनाओं के लिए बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई हुई है। नतीजतन कामेंग पूर्व व पश्चिम यानी 2 जिलों में ही वनक्षेत्र में 25 वर्ग किमी की कमी आई है।
असम के प्रधान मुख्य वन संरक्षक रहे ओपी पांडेय कहते हैं कि इलाके के वनक्षेत्र में लगातार आने वाली कमी एक बड़े खतरे का संकेत है। इसका असर पूरे देश में महसूस होगा। जंगल की रक्षा की दिशा में काम करने वाले संगठन 'आराण्यक' के महासचिव बिप्लब तालुकदार कहते हैं कि बीते कुछ वर्षों से इलाके के वनक्षेत्र में लगातार आने वाली कमी चिंताजनक है।
पारिस्थितिकीय असंतुलन और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने के लिए कम होने वाले वनक्षेत्र की भरपाई के लिए तत्काल नए सिरे से प्रयास जरूरी हैं। वे कहते हैं कि कहीं-कहीं कुछ सौ पौधे लगाने से कोई फायदा नहीं होगा। अतिक्रमण और इंसानी गतिविधियों की वजह से घटते जंगल को पहले की हालत में ले जाने के लिए ठोस और संगठित कदम उठाया जाना चाहिए।
रिपोर्ट प्रभाकर, कोलकाता