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Written By DW
Last Modified: गुरुवार, 6 अप्रैल 2023 (07:37 IST)

महिलाओं को आरक्षण के मुद्दे पर फिर मुश्किल में नागालैंड

महिलाओं को आरक्षण के मुद्दे पर फिर मुश्किल में नागालैंड - controversy on women reservation in nagaland
प्रभाकर मणि तिवारी
नागालैंड ने अभी हाल में राज्य में पहली बार दो महिला विधायकों की जीत पर खुशियां मनाई थी। लेकिन अब शहरी निकाय चुनावों में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण के मुद्दे पर राजनीतिक दलों का दोहरा चरित्र सामने आ गया है।
 
आदिवासी संगठनों के भारी विरोध के कारण चुनाव आयोग ने 16 मई को होने वाले इन चुनावों को रद्द कर दिया है। इससे पहले विधानसभा में आरक्षण का प्रावधान रद्द करने की मांग में आम राय से एक प्रस्ताव पारित किया गया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को सरकार के इस फैसले पर रोक लगा दी है। अब इस मामले की सुनवाई 17 अप्रैल को होगी। महिला आरक्षण के मुद्दे पर जारी विवाद के कारण ही राज्य में बीते दो दशकों से शहरी निकायों के चुनाव नहीं कराए जा सके हैं। महिला संगठन चुनाव रद्द करने के इस फैसले का विरोध कर रहे हैं।
 
दिलचस्प बात यह है कि मुख्य दलों ने अपने 2023 के विधानसभा चुनाव घोषणापत्र में महिला सशक्तिकरण का वादा किया था। राज्य में विपक्ष विहीन सरकार है। इससे तमाम दलों की कथनी और करनी का अंतर उजागर हो गया है। यहां इस बात का जिक्र जरूरी है कि नागा समाज में आदिवासी संगठनों का असर बेहद मजबूत है। उनकी सलाह के बिना किसी भी सरकार या राजनीतिक पार्टी के लिए किसी फैसले को लागू करना असंभव की हद तक मुश्किल है।
 
इससे पहले वर्ष 2017 में भी महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने के खिलाफ राज्य में जमकर हिंसा और आगजनी हुई थी। नतीजतन सरकार को चुनाव स्थगित करना पड़ा था। आम लोगों के विरोध के कारण तत्कालीन मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग को भी इस्तीफा देना पड़ा था।
 
क्या कहती है महिलाएं
नागालैंड विश्वविद्यालय के महिला अध्ययन केंद्र की पूर्व निदेशक प्रोफेसर रोजमेरी जुविचू कहती हैं, "हमारे राज्य में महिलाओं को हमेशा दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता रहा है। समाज में उनकी भूमिका भले बेहद अहम है, राजनीति में उनको खुद फैसले लेने का अधिकार नहीं है। इस बार जब पहली बार राज्य में दो महिलाएं चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंची तो हमें लगा कि अब महिला आरक्षण का सपना साकार हो जाएगा। लेकिन विधानसभा में संबंधित कानून को रद्द करने के फैसले पर दोनों विधायकों ने एक शब्द भी नहीं कहा। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।"
 
सहायक प्रोफेसर डॉ थेयिसिनुओ केडित्सु कहती हैं, "बदलते समय के साथ नागा समाज को भी सोच बदलने की जरूरत है। राजनीति में पुरुषों का एकाधिकार बना हुआ है। उनको इस मामले में महिलाओं की बराबरी पसंद नहीं।"
 
एक कॉलेज छात्र तोहुका अचूमी कहती हैं, "यह नागा समाज में व्याप्त विरोधाभासों की एक और मिसाल है। रियो सरकार नागा सामाजिक संगठनों (सीएसओ) के दबाव में झुक गई है।"
 
नागा मदर्स एसोसिएशन और नागालैंड महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष सानो वामुजो कहती हैं, अब राजनीति में महिलाओं को समुचित भागीदारी देने का समय आ गया है।
 
महिला संगठनों ने नगरपालिका अधिनियम, 2001 को निरस्त करने के फैसले का विरोध करते हुए राज्य सरकार से सवाल किया है कि इतने अहम मुद्दे पर उनसे सलाह क्यों नहीं ली गई। नागालैंड विश्वविद्यालय में नागा मदर्स एसोसिएशन (एनएमए) की ओर से इस मुद्दे पर आयोजित सम्मेलन में कई संगठनों ने हिस्सा लिया। एनएमए की ओर से जारी एक बयान में कहा गया है, ‘‘नागा महिलाओं को अधिनियम को निरस्त करने के निर्णय पर आपत्ति है और इस बात पर भी आपत्ति है कि महिला संगठनों के साथ सलाह-मशविरा के बिना ही यह कदम उठाया गया।''
 
दरअसल आदिवासी संगठन उक्त अधिनियम का इस वजह से विरोध करते हैं कि यह महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण की सुविधा देता है और भूमि व भवनों पर कर लगाता है। उनका दावा है कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 371ए के खिलाफ है जो पारंपरिक कानूनों और परंपराओं की रक्षा करता है।
 
राज्य के शीर्ष आदिवासी संगठन नागा होहो समेत तमाम संगठन स्थानीय निकायों में महिलाओं के आरक्षण के खिलाफ यही दलील पेश करते रहे हैं। हालांकि मार्च 2022 में नागा समाज के प्रतिनिधियों ने आम राय से इस बात पर सहमति जताई थी कि महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण के साथ शहरी निकाय चुनाव होने चाहिए।
 
अब आगे क्या
बीते दिनों हुए विधानसभा चुनाव में पहली बार दो महिला विधायकों के चुने जाने के बाद राज्य के सामाजिक और महिला कार्यकर्ताओं में उम्मीद जगी थी कि अब शायद कम से कम शहरी निकाय चुनाव में 33 फीसदी आरक्षण का सपना पूरा हो जाएगा। लेकिन आदिवासी संगठनों की ताकत के आगे पूर्व कांग्रेस सरकार की तरह नेफ्यू रियो के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार को भी घुटने टेकने पड़े।
 
एक महिला कार्यकर्ता नेदोन्यू अंगामी कहती हैं, "अब गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में है। लेकिन उससे कोई खास फर्क पड़ने की उम्मीद कम ही है। अगर अदालती फैसलों को जमीनी स्तर पर लागू करने की इच्छाशक्ति ही किसी राजनीतिक पार्टी या सरकार में नहीं हो तो हाथ पर हाथ धरे देखने के अलावा क्या किया जा सकता है?"
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