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Written By DW
Last Updated : गुरुवार, 12 अगस्त 2021 (11:04 IST)

कोयले से मुंह मोड़ धन के लिए वन की ओर देख रहा है छत्तीसगढ़

कोयले से मुंह मोड़ धन के लिए वन की ओर देख रहा है छत्तीसगढ़ - Chhattisgarh looking towards the forest
दशकों तक खनन ने छत्तीसगढ़ की जमीन को खोखला किया है। लेकिन इस बार राज्य सरकार ने नई कोयला खदानें शुरू करने के बजाय इमली से लेकर काजू तक विभिन्न जंगलों के उत्पाद बढ़ाने की ओर ध्यान दिया है। बस्तर के जंगलों में आदिवासी महिलाओं को इमली के फल तोड़ते देखना तो आम बात है। लेकिन इस बार उनके चेहरे खिले हुए हैं। खूब जमकर फसल जो हुई है।
 
आदिवासी उद्यमिता योजना को लागू करने की देखरेख कर रहीं सुषमा नेतम कहती हैं कि न्यूनतम मूल्य तय किया गया है जिसका मतलब है कि बिचौलिये और व्यापारियों को फसल का जायज दाम चुकाना होगा। इससे परिवारों की आय बढ़ी है। नेतम कहती हैं कि जब से राज्य ने कोयले से रुख मोड़कर एक ग्रीन इकॉनमी की ओर बढ़ने का फैसला किया है, तब से उत्पादन बढ़ा है। वह बताती हैं कि हमारे पास 200 से ज्यादा ग्रामीण समूह हैं। 49 हाट और 10 प्रसंस्करण केंद्र भी हैं।
 
कोयला नहीं, जंगल जरूरी
 
वैसे तो भारत सरकार अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए कोयला उत्पादन बढ़ाने पर जोर दे रही है लेकिन छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने 2019 में ऐलान किया कि राज्य नई कोयला खदानें शुरू नहीं करेगा ताकि जंगलों को बचाया जा सके और उत्सर्जन घटाने में योगदान दिया जाए।
 
कोयला भंडारों के लिहाज से छत्तीसगढ़ भारत का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है। वहां लौह अयस्क, चूना पत्थर और बॉक्साइट के भी बड़े भंडार हैं। लेकिन आज भी यह भारत के सबसे गरीब राज्यों में ही शामिल है। वहां की 40 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा के नीचे है। 2019 में राज्य सरकार ने वन धन योजना शुरू की जिसके तहत 52 जंगली उत्पादों का खरीद मूल्य बढ़ाया गया। पिछले साल सरकार ने कुल उत्पाद का 73 प्रतिशत हिस्सा खरीदा।
 
राज्य के वन एवं उद्योग सचिव मनोज कुमार पिंगुआ बताते हैं कि खनन राज्य की अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा है और सख्त नियमों के तहत जारी है। लेकिन अब जंगल हमारी प्राथमिकता हैं। हम वनवासियों का जीवन सुधारने के लिए खनन से होने वाली अरबों की आय भूलने को भी तैयार हैं। खनन में कुछ ही लोग धन कमाते हैं लेकिन ग्रीन इकॉनमी में मुनाफा सीधा लोगों के हाथ में जाता है।
 
पहले से बेहतर
 
छत्तीसगढ़ का 44 प्रतिशत इलाका वन भूमि है। अब राज्य इसके इर्द गिर्द ऐसे उद्योग खड़े करने के बारे में विचार कर रहा है जो लकड़ी पर निर्भर न हों। अधिकारियों का कहना है कि इससे वन उत्पाद जमा करने वाले 17 लाख परिवारों को लाभ होगा।
 
ये ऐसे परिवार हैं जिन्हें जंगलों के कटने के कारण अपनी आजीविकाओं से हाथ धोना पड़ता है। आदिवासी समुदायों के 40 प्रतिशत लोग आजीविका के लिए वनों पर ही निर्भर हैं। जैसे 21 साल की रेवती बैगल जो हाल ही में दोबारा शुरू किए गए एक काजू प्लांट में काम करती हैं। वह काजू और अन्य उत्पादों को देशभर के बाजारों में भेजे जाने के लिए तैयार करती हैं। पहले उन्हें काम के लिए सैकड़ों मील दूर मजदूरी करने जाना होता था।
 
बैगल कहती हैं कि मैं चलकर अपने काम पर जाती हूं और मुझे महीने के 8,000 रुपए मिलते हैं। यह काम के लिए गुजरात जाने और किसी और के खेतों पर काम करने से कहीं ज्यादा अच्छा है। वन उत्पाद आमतौर पर महिलाओं द्वारा ही जमा किए जाते हैं। वे इन्हें हाट बाजारों में बेचती हैं और उससे होने वाली आय से घर के जरूरी सामान खरीदती हैं। लेकिन इस व्यवस्था में बिचौलिए भी होते हैं जो मोटा मुनाफा कमाते हैं।
 
समस्याएं अब भी हैं
 
सेंटर फॉर लेबर रिसर्च ऐंड एक्शन नाम की संस्था में संयोजक अनुष्का रोज कहती हैं कि भंडारण की सही सुविधाएं न होने और ग्रामीण इलाकों में प्रसंस्करण न होने का असर भी लोगों की आय पर पड़ता है। वह कहती हैं कि महुआ को लीजिए। लोग इसे जमा करते हैं और मई में स्थानीय व्यापारियों को बेच देते हैं क्योंकि वे इसे संभालकर नहीं रख सकते। 2 महीने बाद वे उसी महुआ को महंगे दाम पर खरीदते हैं। अगर वन धन योजना पर कड़ी निगरानी रखी जाए तो यह स्थिति बदल सकती है।
 
दलित आदिवासी मंच नाम की संस्था चलाने वालीं राजीम केटवास कहती हैं कि हालात सुधारने की तमाम कोशिशों के बावजूद योजनाओं को पूरा लाभ नहीं मिल पा रहा है। वह कहती हैं कि भुगतान में देरी और डिजिटल भुगतान बड़ी बाधाएं हैं। लोग नकद भुगतान चाहते हैं। मनोज पिंगुआ मानते हैं कि इस तरह की समस्याएं हैं लेकिन वह इन्हें सुलझाने के लिए कोशिशें जारी रहने की बात कहते हैं। वह कहते हैं कि स्थानीय बैंकों के साथ मिलकर यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि महिलाओं को अपने पैसे की डिजिटल पहुंच हो।
 
वीके/एए (रॉयटर्स)
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