- विट्ठल नागर देश की अर्थव्यवस्था में आ रहे धीमेपन एवं विषम वैश्विक परिस्थितियों में भी देश की 1159 कंपनियों ने 7 मई 2008 तक वर्ष 2007-08 की चौथी तिमाही के जो परिणाम जाहिर किए हैं, वे उत्साहवर्धक होकर उनके प्रदर्शन की सराहना की जाना चाहिए, क्योंकि देश के समस्त आर्थिक क्षेत्र में गिरावट की स्थिति बनने व मुद्रास्फीति की दर 7.5 प्रतिशत की नई ऊँचाई पर पहुँचने के बाद भी देश के सभी क्षेत्र के उद्योगों ने सम्मिलित रूप से निवल विक्रय में करीब 29 प्रतिशत की वृद्धि हासिल की है एवं निवल लाभ की दर 22 प्रतिशत से अधिक रही है। इन 1159 कंपनियों पर ब्याज का भार करीब 45 प्रतिशत बढ़ा है, उनके कच्चे माल व आदान के मूल्य में भारी वृद्धि हुई है, फिर भी वे अपने कामकाजी लाभ के मार्जिन को करीब 20 प्रतिशत के स्तर पर बनाए रखने में सफल हुई हैं।
इसका एक मतलब यह भी है कि कंपनियों को अपनी बढ़ी हुई लागत के अनुरूप उत्पादित माल के मूल्य बढ़ाने में सफलता मिल गई है।
देश में मुद्रास्फीति की दर 7.5 प्रतिशत की उच्चतम ऊँचाई पर पहुँच गई है और भारतीय रिजर्व बैंक अधिक मात्रा में तरलता (प्रवाहिता) सोखकर ब्याज दर के परिदृश्य को महँगा बनाने में मशगूल है
हालाँकि सीमेंट व इस्पात क्षेत्र के उद्योगों की स्थिति कुछ अलग है। विश्व में सीमेंट व इस्पात के भाव बढ़ रहे हैं एवं देश के उद्योगों की लागत में भारी वृद्धि हो रही है, किंतु सरकार उन्हें भाव बढ़ाने की अनुमति नहीं दे रही है। इससे अगली तिमाही के परिणाम ही यह तथ्य जाहिर करेंगे कि इन कंपनियों का लाभ कितना प्रभावित हुआ है।
कुल मिलाकर देखा जाए तो जनवरी 2008 से मार्च 2008 के परिणाम यही जाहिर करते हैं कि देश की आर्थिक वृद्धि की कहानी जस की तस है। देश में उपभोक्ता माँग अच्छी बनी हुई है, वहीं उसमें वृद्धि भी हो रही है एवं उपभोक्ताओं की आमदनी का स्तर बढ़ रहा है, जिससे कंपनियों को अपने विक्रय को बढ़ाने एवं लाभ के मार्जिन को सुधारने में मदद मिल रही है। ऊपर देश की अर्थव्यवस्था में धीमेपन व वैश्विक विषम स्थिति की चर्चा की थी, उसे भी स्पष्ट करना जरूरी है।
देश में मुद्रास्फीति की दर 7.5 प्रतिशत की उच्चतम ऊँचाई पर पहुँच गई है और भारतीय रिजर्व बैंक अधिक मात्रा में तरलता (प्रवाहिता) सोखकर ब्याज दर के परिदृश्य को महँगा बनाने में मशगूल है। यह बताता है कि वह आर्थिक वृद्धि दर को बढ़ाने की बजाय मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने पर अधिक जोर दे रहा है। विदेशी पूँजी बाजार से सस्ते कर्ज जुटाकर डॉलर को देश में लाने पर रोक लगा रखी है। इससे देश की छोटी व मध्यम दर्जे की कंपनियाँ न तो विदेशी मुद्रा के परिवर्तनीय बाण्डों के माध्यम से और न बाहरी देशों से व्यावसायिक कर्ज अधिक जुटा पा रही हैं।
फिर वैश्विक कारणों से औद्योगिक कच्चे माल व आदान के भाव आसमान पर पहुँच रहे हैं। ऐसे में डॉलर की तुलना में रुपए की महँगी दर उनकी प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति को क्षीण कर रही है। बढ़ती मुद्रास्फीति व महँगाई की वजह से उपभोक्ताओं की खरीद शक्ति प्रभावित हो रही है। रिटेल क्षेत्र की कंपनियों का कहना है कि उपभोक्ताओं की खरीदी में आंशिक धीमापन आया है और वे सस्ती व वैकल्पिक ब्रॉण्ड की वस्तु खरीद कर ही संतोष व्यक्त करने लगे हैं।
31 मार्च 2007 की तुलना में 31 मार्च 2008 को समाप्त हुई तिमाही के परिणामों में एक उल्लेखनीय बात यह है कि कंपनियों ने 31 मार्च 2008 में समाप्त हुई तिमाही में अन्य आय (कंपनी के मूल कामकाज से होने वाली आय से भिन्न) से अधिक कमाई की है। निवल विक्रय में अगर करीब 29 प्रतिशत वृद्धि हुई तो अन्य आय से करीब 22 प्रतिशत की। वास्तव में अन्य आय में और अधिक वृद्धि परिलक्षित होती, अगर निर्यात क्षेत्र की अनेक छोटी व मध्यम दर्जे की कंपनियों को डेरीवेटिव्ज के सौदों में भारी घाटा न होता।
इन कंपनियों ने निर्यात से कमाए डॉलर में एक तरह के हैजिंग (ऑप्शन एवं फ्यूचर्स) के सौदे कर लिए थे, जिसे करंसी स्वाप्स (एक विदेशी मुद्रा को दूसरी विदेशी मुद्रा में बदलने के फ्यूचर्स के सौदे करना कहते हैं।) डॉलर के भाव अधिक घटते दिखाई दे रहे थे, जिससे उन्हें घाटा हो सकता था।
विशेषज्ञों की राय में कुछ औद्योगिक क्षेत्र जरूर सकारात्मक परिदृश्य प्रस्तुत कर रहे हैं, किंतु सम्मिलित रूप से देखा जाए तो वृद्धि दर में आश्चर्यजनक सुधार की संभावना कम ही है
इसलिए उन्होंने अपने डॉलर को येन या स्विस फ्रैंक में बदलाने के सौदे कर लिए, किंतु दुर्भाग्य से येन व स्विस फ्रैंक के भाव घट गए एवं स्वाप के सौदे करने वाले भारी घाटे में आ गए। अगर यह घाटा न हुआ होता तो कंपनियों के सम्मिलित परिणाम और अधिक आकर्षक होते। अब उन्हें यह घाटा अपने चौपड़ों में दर्शाना पड़ा है, जिससे उनके लाभ का मार्जिन प्रभावित हो गया। इस संबंध में 799 कंपनियों के जो परिणाम साया हुए हैं, उसके अनुसार इन कंपनियों को अपने लाभ पर 130 प्रतिशत का भार पड़ा है, जो 1962 करोड़ रु. होता है। अन्य कंपनियों के परिणाम साया होने पर यह ज्ञात हो पाएगा कि देश की कंपनियों को डेरीवेटिव्ज के कामकाज में कुल मिलाकर कितनी हानि हुई है।
वर्ष 2007-08 की दूसरी व तीसरी तिमाही के परिणाम चौथी तिमाही की तुलना में अधिक आकर्षक थे। दूसरी व तीसरी तिमाही में अन्य आय भी अधिक बढ़ी हुई थी, जिससे लाभ का मार्जिन अधिक आकर्षक था। दूसरी-तीसरी व चौथी तिमाही के परिणामों की आपस में तुलना की जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि देश की अर्थव्यवस्था में धीमापन आता जा रहा है। यह सही है कि आईटी कंपनियों के परिणाम अपेक्षा से अधिक बेहतर रहे हैं एवं टेलीकॉम कंपनियों का कामकाज सबसे अधिक शानदार रहा है।
बैंकों के परिणाम भी आकर्षक रहे हैं, किंतु सभी ने चालू वित्त वर्ष के अंत के जो दिशा-निर्देश दिए हैं, वे अर्थव्यवस्था में धीमेपन की ओर ही इशारा करते हैं। तेल एवं प्राकृतिक गैस के क्षेत्र में रिलायंस इंडस्ट्रीज के परिणाम शानदार रहे हैं एवं आगे का परिदृश्य भी सुनहरा है, जबकि डाउन स्ट्रीम क्षेत्र की सरकारी कंपनियों के कामकाज में कमजोरी परिलक्षित होती है। खनिज तेल के बढ़ते मूल्य की वजह से एक्स एमसीजी (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) क्षेत्र की कंपनियों ने विक्रय में जरूर अच्छी वृद्धि हासिल की है।
यह वृद्धि तादात्मक न होकर मूल्य में अधिक हुई है, इससे स्पष्ट होता है कि आदानों (इनपुट) के बढ़ते भाव का उन पर दबाव बढ़ रहा है। पूँजीगत माल क्षेत्र के उद्योगों का कामकाज कुछ निराशाजनक ही है, क्योंकि वे उपकरणों व कच्चे माल के बढ़ते भाव की वजह से ऑर्डरों को तेजी से पूरा नहीं कर पा रहे हैं। इससे उनके लाभ की मार्जिन एकदम सिकुड़ गई है। धातु क्षेत्र के उद्योगों का कामकाज भी मुद्रास्फीति से प्रभावित हो रहा है। विश्व स्तर पर कच्चे माल के भाव काफी बढ़े हुए हैं।
आटोमोबाइल, फार्मा. कंपनियों के परिणाम अभी भी निराश करने वाले नहीं हैं, किंतु अगली तिमाही में इनके कामकाज में गिरावट की आशंका व्यक्त की जाने लगी है, विशेषकर उच्च ब्याज दर, महँगाई एवं उपभोक्ता माँग में संभावित कमी की वजह से। गृह निर्माण एवं रियल एस्टेट में भी अब धीमेपन की बात कही जाने लगी है। विशेषज्ञों की राय में कुछ औद्योगिक क्षेत्र जरूर सकारात्मक परिदृश्य प्रस्तुत कर रहे हैं, किंतु सम्मिलित रूप से देखा जाए तो वृद्धि दर में आश्चर्यजनक सुधार की संभावना कम ही है।