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Written By WD

ग्रह-तारे भी निगल जाता है ब्लैक होल!

- राजीव शर्मा

ग्रह-तारे भी निगल जाता है ब्लैक होल! -
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खगोल वैज्ञानिक अंतरिक्ष के अथाह सागर में ब्लैक होल जैसे कुछ ऐसे भागों की संभावना बताते हैं जहां कोई भी वस्तु, पदार्थ और यहां तक कि प्रकाश भी विलीन हो जाता है। यह एक ऐसा अंधकारमय क्षेत्र होता है जिसे देखा नहीं जा सकता इसीलिए इसे ब्लैक होल कहते हैं।

ब्लैक होल असल में एक अति घनत्व वाला, विशालाकार मृत तारा होता है। इसका गुरुत्व बल इतना ज्यादा होता है कि यह अपने आसपास के सभी पदार्थों को उनके मार्ग से भटका कर अपनी ओर खींच लेता है। इस जबरदस्त गुरुत्वाकर्षण के कारण अगर कोई चीज एक बार इसमें चली जाए तो वह फिर कभी बाहर नहीं आ पाती। ब्लैक होल अपने आस-पास के छोटे-छोटे तारों-ग्रहों आदि को भी निगलते रहते हैं। खगोलविद् मानते हैं कि आकाशगंगाओं में बहुत-से ब्लैक होल उपस्थित हैं। इनमें से कुछ तो सूर्य से भी कई लाख गुना बड़े हैं।

सूर्य की तरह दूसरे तारों में भी हाइड्रोजन, हीलियम व अन्य तत्वों की रासायनिक क्रियाओं से लगातार विशाल मात्रा में भीषण ऊर्जा निकलती रहती है। इस ऊर्जा के कारण ही उनका तापमान भी अत्यधिक उच्च सीमा का होता है पर इनकी ऊर्जा अनंत नहीं होती। यह धीरे-धीरे कम होती रहती है जो आखिर में पूरी तरह से खत्म हो जाती है और इस तरह तारे का भी खात्मा हो जाता है।

तारे के इस अंत के साथ ही ब्लैक होल निर्माण की शुरुआत होने लगती है। तारे के केंद्र का तापमान अत्यधिक होने के कारण इसमें विस्फोटक स्थिति बनती है जिससे इसमें उपस्थित पदार्थ बाहर की तरफ फैलने का प्रयास करते हैं, जबकि इसका गुरुत्वाकर्षण बल इन्हे अपनी तरफ खींच कर रखता है। इस क्रिया-प्रतिक्रिया की वजह से तारे का आकार समान रहता है लेकिन ऊर्जा खत्म होने से इसका तापमान कम होने लगता है और तारे का केंद्रीय भाग तेजी से सिकुड़ने लगता है। इस स्थिति में इसकी सघनता व गुरुत्वाकर्षणता बढ़ने लगती है।

इस तरह कुछ समय बाद एक स्थिति ऐसी भी आती है कि जब इलेक्ट्रोनों का दाब सिकुड़ने की इस प्रक्रिया को रोक देता है। कुछ तारों में सिकुड़ने की यह प्रक्रिया यहीं रुक जाती है। इससे तारा छोटा होकर 'व्हाइट ड्वार्फ' (श्वेत बौने) की स्थिति में चला जाता है। इसके विपरीत बहुत अधिक द्रव्यमान वाले तारों का सिकुड़ना अगली अवस्था तक जारी रहता है। ऐसे में सिकुड़ते-सिकुड़ते इसका आकार कुछेक किलोमीटर तक ही रह जाता है। इसका द्रव्यमान एक बिन्दु पर केंद्रित हो जाता है।

इस अवस्था में इसके एक चुटकीभर द्रव्य का भार भी खरबों टन हो जाता है। ऐसे किसी पिण्ड को ही ब्लैक होल कहते है। किसी भी ब्लैक होल के एक इंच के दस खरबवें भाग से भी कम में एक पहाड़ जितना द्रव्यमान समा सकता है। ब्लैक होल की सैद्धांतिक अवधारणा की शुरुआत सबसे पहले सन्‌ 17 98 में फ्रेंच खगोलविद् पिय्‌र सिमों लाप्लास ने की थी। पर इसके बारे में प्रामाणिक अध्ययन 20वीं शताब्दी में ही संभव हो सका। सन्‌ 1907 में जर्मनी के खगोलविज्ञानी कार्ल स्वार्जचाइल्ड ने अपने सिद्धांत प्रस्तुत किए थे।