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Last Updated : बुधवार, 1 अक्टूबर 2014 (19:32 IST)

खून से पता चलता है उम्र का

रक्त-परीक्षण : उम्र जानने की नई विधि

खून से पता चलता है उम्र का -
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यदि किसी व्यक्ति की आयु का पता न हो या वह अपनी आयु छिपा रहा हो, तो उस की सही आयु का पता लगाना सरल काम नहीं है। मुंबई में हुए नवंबर 2008 वाले आतंकवादी हमले के एकमात्र जीवित अभियुक्त अजमल कसाब के मामले में सबसे पहले यही पता लगाना पड़ा था कि उसकी असली आयु क्या है। वैसे तो इसकी कई विधियाँ प्रचलित हैं,पर सबसे ई विधि है रक्त-परीक्ण।

आमतौर पर सबसे पहले वज़न और शरीर की लंबाई नापी जाती है। यह भी देखा जाता है कि शरीर कितना विकसित या अविकसित है। विकास का स्तर किसी बीमारी की तरफ़ तो संकेत नहीं करता।

दूसरे चरण में हाथ की बनावट को देखा और उसका एक्स-रे चित्र लिया जाता है। इस चित्र की एक मानक एक्स-रे चित्र के साथ तुलना करते हुए देखा जाता है कि हथेली की हड्‍डियों का विकास कहाँ तक पहुँचा है। लड़कियों में हथेली की हड्डियों का विकास 17 साल की आयु में और लड़कों में 18 साल की आयु में पूरा हो जाता है।

यूरोप के कुछ देशों में में कई बार 21 वर्ष की आयु का व्यक्ति भी युवा अपराध कानून के अंतर्गत आ सकता है। उसे यह लाभ मिलना चाहिए या नहीं, इसे तय करने के लिए गले के पास वाली पसली का एक्स-रे चित्र लिया जाता है, क्योंकि इस पसली का विकास 20 से 21 वर्ष की आयु में पूरा होता है। गले के पास एक छोटी-सी जगह 26 साल की उम्र में भरती है।

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दाँत हैं आयु के सही भेदिया
आयु के निर्धारण में दाँतों का भी उपयोग होता है। यदि किसी के मुँह में अब भी दूध का कोई दाँत है, तो उसकी आयु 14 वर्ष से कम होनी चाहिए। जिस के मुँह में दाढ़ के दाँत आने लगे हैं, वह 18 साल से ऊपर का है।

दाँतों में समय की एक ऐसी घड़ी छिपी होती है, जो मृत्युपर्यंत चलती रहती है। दाँतों के भीतर के आणविक परिवर्तनों की छानबीन के आधार पर हर समय किसी व्यक्ति की आयु इतनी सटीक बताई जा सकती है कि उस में तीन-चार साल से अधिक का हेरफेर न हो। लेकिन, इसके लिए किसी एक दाँत को उखाड़ना और उसकी छानबीन करना जरूरी है।

डीएनए से मिल सकता है आयु का सुराग
दूसरी घड़ी हैं हमारी कोशिकाओं के डीएनए। हर कोशिका विभाजन के साथ डीएनए वाले सूत्र के अंत में स्थित तथाकथित टेलोमर (जो जूता बाँधने के फीते के दोनो सिरों पर बनी घुंडी के समान होते हैं) किंचित छोटे होते जाते हैं। यह क्रम जीवंतपर्यत चलता है। इसी तरह कोशिका के माइटोकोंड्रिया कहलाने वाले उपांगों में डीएनए के म्यूटेशन यानी उत्परिवर्तन की दर को भी बीत गया समय बताने वाली एक घड़ी माना जा सकता है।

लेकिन, फिलहाल इन दोनो को आयु-निर्धारण के लिए दाँतों और हड्डियों जितना सटीक नहीं माना जाता। हॉलैंड (औपचारिक नाम है नीदरलैंड) में रोटरडम के वैज्ञानिकों की एक टीम ने पाया है कि अपराधों के मामले में खून की जाँच-परख से भी किसी हद तक सही आयु का पता चल सकता है।

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खून में भी छिपा है आयु का राज
इस टीम के मुखिया रोटरडाम के एरास्मुस विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जाक़ फान दोंगन का कहना हैं, 'हम यह बताने के साथ-साथ कि अपराधी स्त्री है या पुरुष, खून के नमूने के आधार पर यह भी बता सकते हैं कि वह लगभग कितने साल का होना चाहिए । हम बता सकते हैं कि वह 10 से 20 साल के बीच का है, 20 से 40 साल के बीच का है, 60 साल तक का है या और अधिक आयु का है। यह जानकारी भी कुछ कम उपयोगी नहीं है।'

स्पष्ट है कि फान दोंगन की टीम द्वारा विकसित तरीके से एक दम सही-सही आयु नहीं बताई जा सकती, पर जो कुछ बताया जा सकता है, वह संदिग्ध लोगों के दायरे को सीमित करने में काफ़ी सहायक तो बन ही सकता है।

खून है वायरसजन्य बीमारियों की सूची
इस टीम ने पाया कि जिस किसी को जब कोई वायरसजनित बीमारी होती है, तो उस के रक्त में डीएनए के कुछ खास तरह के टुकड़े जमा हो जाते हैं। डीएनए के ये टुकड़े उस समय बनते हैं, जब रोगप्रतिरक्षण प्रणाली किसी वायरस के हमले का प्रतिकार करने के लिए उस से लड़ रही होती है। इस लड़ाई के दौरान प्रतिरक्षण प्रणाली की कुछेक कोशिकाएँ अपने डीएनए का एक तरह से पुनर्गठन करती हैं। वे डीएनए के जिन हिस्सों को त्याग देती हैं, वे ही इन टुकड़ों के रूप में रक्त में जमा होते रहते हैं।

प्रो. ज़ाक़ ान दोंगन कहते हैं, 'डीएनए के ये टुकड़े वयस्कों की अपेक्षा बच्चों में कहीं अधिक मिलते हैं, क्योंकि बच्चों की रोगप्रतिरक्षण प्रणाली बड़ों की अपेक्षा कहीं ज्यादा सक्रिय होती है। हमें इस रोचक बात का तब पता चला, जब हमने अलग-अलग आयु के लोगों के खून के नमूनों की तुलना की। हमने पाया कि जो कोई जितनी अधिक आयु का होगा, उस के रक्त में डीएनए के ये खास क़िस्म के टुकड़े उतने ही कम मिलेंगे।'

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खून की एक बूँद ही काफी है
किसी का आयुवर्ग निर्धारित करने की यह विधि तब भी काम करती है, जब खून का नमूना एक साल से भी अधिक पुराना हो। न्यायिक (फोरेंसिक) प्रक्रिया की दृष्टि से यह तथ्य बहुत उपयोगी हो सकता है, जैसाकि प्रो. फान दोंगन बताते हैं:'डीएनए के ये विशिष्ट प्रकार के टुकड़े बहुत ही टिकाऊ होते हैं। उन के परीक्षण की तकनीक इतनी संवेदनशील है कि घटनास्थल पर रक्त की केवल एक बूँद मिलना भी पर्याप्त है।'

डच वैज्ञानिकों की इस टीम ने अपनी यह विधी अभी तक केवल अपने देशवासियों पर ही, यानी यूरोपीय लोगों पर ही आजमाई है। यह नहीं मालूम कि वह एशिया और अफ्रीका वासियों पर भी लागू होगी या नहीं, क्योंकि एशिया और अफ्रीका के लोग यूरोप वालों की तुलना में कहीं अधिक प्रकार की संक्रामक बीमारियों से पीड़ित होते हैं।

फर्क नहीं पड़ता कि कौन कहाँ रहता है
प्रो. फान दोंगन का मानना है कि इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि कौन कहाँ रहता है। 'यहाँ (यूरोप में) भी सब को एक ही जैसी वायरस-जन्य बीमारियाँ थोड़े ही न होती हैं। मैं पहले से ही मान कर चल रहा था कि हमें कुछ लोगों में डीएनए के ये विशिष्ट प्रकार के टुकड़े अकसर मिलेंगे, क्योंकि उनकी रोगप्रतिरक्षण प्रणाली ने (वायरस से लड़ने वाले) टी-सेलों का अधिक निर्माण किया होगा। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं। लगता यही है कि हम सब का लगभग एकसमान अनुपात में वायरस-जन्य बीमारियों से पाला पड़ता है।'

यदि ऐसा है, तो किसी की आयु का पता लगाने की डच वैज्ञानिकों द्वारा विकसित नई विधि की सबसे बड़ी कमजोरी यही कही जाएगी कि वह सटीक आयु नहीं बताती, बल्कि 10 साल ऊपर-नीचे के दायरे वाला एक अनुमान सुझाती है।