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Written By Author राम यादव

Refugee Problem: शरणदाता देशों की मुसीबत बन रहे हैं शरणार्थी, जर्मनी में बढ़े अपराध

Refugee Problem: शरणदाता देशों की मुसीबत बन रहे हैं शरणार्थी, जर्मनी में बढ़े अपराध - Refugees are becoming a problem for country of refuge
शरणार्थी शब्द सुनते ही हमारे मन-मस्तिष्क में भाग्य के मारे किसी ऐसे दीन-हीन बेचारे की तस्वीर उभरने लगती है, जो भूख-प्यास से हारा, दर-दर मारा-मारा फिर रहा है। हमारे शास्त्रों की शिक्षा है कि किसी शरणार्थी को अपनाने से बड़ा पुण्य और ठुकराने से बड़ा पाप नहीं होता। पर, क्या हम आज की झूठ-फरेब भरी दुनिया में आंख मूंदकर सब को शरण दे सकते हैं? प्रस्तुत है इस लेखमाला की पहली कड़ी।
 
31 दिसंबर की रात। सन 2022 का अस्त और 2023 का उदय हो रहा था। जर्मनी के हर छोटे-बड़े शहर में, पटाखों और आतिशबाज़ियों की झड़ी लगी हुई थी। कोरोना के कारण दो वर्षों से खुलकर खुशी मनाने के लिए तरस गई जनता इस बार नववर्ष के आगमन का दोगुने जोश-ख़रोश के साथ निर्विघ्न स्वागत करना चाहती थी। पर, ऐसा हो नहीं सका। 
 
नववर्ष वाली रात लगभग पूरे जर्मनी में हिंसा के अपूर्व तांडव की रात बन गई। पटाखे फोड़ने और आतिशबाज़ी करने वाले लोग, सतर्कता के तौर पर तैनात पुलिस के साथ-साथ आग बुझाने की दमकल गाड़ियों और उनके कर्मचारियों तथा एम्बुलेंस वाहनों और उनके कर्मचारियों को भी अपने पटाखों, रॉकेटों और पत्थरों का निशाना बनाने लगे। उन्मत्त तोड़-फोड़ और आगज़नी करने लगे।
 
हर जगह लगभग वैसे ही दंगे-फ़साद होने लगे, जैसे क़तर में फुटबॉल की विश्व चैंपियनशिप के दिनों में मोरक्को की टीम की हर विजय या पराजय के बाद यूरोप के अन्य देशों में देखने में आए थे। उस समय जर्मनी में कोई दंगे नहीं हुए थे। किंतु, नववर्ष की रात जर्मन पुलिसकर्मियों ही नहीं, दमकल तथा एम्बुलेंस कर्मचारियों पर भी हमले बोल कर उन्हें घायल कर दिया गया। उनके वाहनों को जमकर क्षति पहुंचाई गई। राजधानी बर्लिन में सड़कों पर खड़ी अनेक कारें और एक बस जलाकर राख कर दी गईं। देश के अनेक छोटे-बड़े शहरों में हालत ऐसी थी, मानो नववर्ष का पर्व नहीं, विद्रोह का उत्सव मनाया जा रहा है।

  • नववर्ष की रात शरणाथियों ने जर्मनी में हिंसा की।
  • अकेले बर्लिन में उस रात 159 लोगों को पकड़ा गया।
  • 27 उपद्रवियों की आयु तो 18 साल से भी कम थी।
  • उस रात जर्मनी के 280 छोटे-बड़े शहरों में बर्लिन जैसी ही युद्ध-स्थिति बन गई थी।
  • विभिन्न शहरों में उस रात 260 लोगों को गिरफ्तार किया गया।
 
सैकड़ों लोगों की गिरफ्तारी : अकेले बर्लिन में उस रात 159 लोगों की धरपकड़ हुई। पुलिस, अग्निशमन और एम्बुलेंस सेवा के कम से कम 33 कर्मचारी घायल हुए। बर्लिन की पुलिस ने बताया कि 18 देशों के लोग नववर्ष वाली रात में तोड़-फोड़ और आगज़नी कर रहे थे। 45 के पास जर्मनी की नागरिकता थी। 27 अफ़ग़ानिस्तान से और 21 सीरिया से आए शरणार्थी थे। गिरफ्तारों में से दो-तिहाई 25 साल से कम के थे। 27 उपद्रवियों की आयु तो 18 साल से भी कम निकली। पुलिस ने यह नहीं बताया कि जिनके पास जर्मन नागरिकता थी, उनमें से कितने पहले किसी दूसरे देश के निवासी थे।
 
नववर्ष की उस रात जर्मनी के 280 छोटे-बड़े शहरों में बर्लिन जैसी ही युद्ध-स्थिति बन गई थी। जनसंख्या की दृष्टि से देश के सबसे बड़े राज्य 'नॉर्थ राइन वेस्टफ़ालिया' के विभिन्न शहरों में उस रात 260 लोगों को गिरफ्तार किया गया। लगभग सभी लोग 14 से 56 साल के बीच के थे। वे जर्मनी में रह रहे थे और मुख्यतः किसी दूसरे देश से आए थे– यानी प्रवासी या शरणार्थी थे। उन्होंने राज्य के 41 पुलिसकर्मियों और संकटकालीन मेडिकल सेवा के 3 कर्मियों को घायल कर दिया। एक ही रात में और एक ही समय, आतिशबाज़ी के बहाने से पूरे जर्मनी में पुलिस, दमकल और एम्बुलेंस के वाहनों और उनके कर्मचारियों को निशाना बनाने के इस अपूर्व अभियान को बहुत से लोग एक पूर्वनियोजित षड़यंत्र मानते हैं। 
 
दो ईरानी भाइयों ने भी उस रात एक बड़े हत्यकांड की योजना बना रखी थी, किंतु संयोग से उसे साकार नहीं कर पाए। 25 और 32 वर्ष के दोनों शरणार्थी भाई, अरंडी का तेल और संखिया ज़हर मिलाकर शायद कोई जानलेवा घोल बनाना चाहते थे। अमेरिकी गुप्तचर सेवा FBI को समय रहते इसका सुराग मिल गया। उसने तुरंत जर्मन अपराध कार्यालय BKA को टिप दी। जर्मनी के 'नॉर्थ राइन वेस्टफ़ालिया' राज्य की पुलिस ने, 30 दिसंबर की रात छापा मारकर दोनों भाइयों को गिरफ़्तार कर लिया। बाद में पुलिस को वे सामग्रियां भी मिलीं, जो इस ज़हरीले हमले के लिए जुटाई गई थीं। पता चला कि दोनों ईरानी भाई, अल बगदादी वाले इस्लामिक स्टेट (IS) के संपर्क में थे। छोटा भाई हत्या के एक प्रयास में जेल भी जा चुका था, पर मानसिक बीमार समझकर समय से पहले ही रिहा कर दिया गया था।
   
वे हमारे देश का अनादर करते हैं : जर्मनी की किसी भी सरकार के मंत्री आदि शरणार्थियों और विदेशी आप्रवासियों के बारे में कोई आलोचनात्मक टीका-टिप्पणी करने से अब तक हमेशा बचते रहे हैं। किंतु इस बार दंगों का आयाम इतना बड़ा और परिणाम इतना भयावह था कि उदारवादी समझी जाने वाली देश की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की गृहमंत्री, नैन्सी फ़ेज़र को कहना पड़ा कि ''आप्रवासी पृष्ठभूमि वाले कुछ युवा मर्दों के कारण जर्मनी के बड़े शहरों में हमारे सामने एक बड़ी समस्या पैदा हो गई है।
 
वे हमारे देश का अनादर करते हैं, हिंसा पर उतर जाते हैं। शिक्षा और समावेशी कार्यक्रमों द्वारा हम उन तक पहुंच नहीं पा रहे हैं... हमें अब कड़े हाथ से और कठोर शब्दों में, लेकिन नस्लवादी भावनाएं भड़काए बिना, समावेशन को ठुकाराने वाले, हिंसा पर उतारू, अपने शहरों के इन लोगों को उनकी सीमाएं उन्हें साफ़-साफ़ दिखानी होंगी।''   
 
यहां तक कि जर्मनी के बहुत ही मितभाषी राष्ट्रपति, फ्रांक-वाल्टर श्टाइनमायर भी यह कहने से अपने आप को रोक नहीं पाए कि ''पुलिस और दमकल कर्मी ऐसे बच्चे नहीं हैं कि कुंठा-निराशा के शिकार उन पर अपनी भड़ास उतारने लगें। मैं चाहता हूं कि अपराधियों को तेज़ी से और पूरी दृढ़ता के साथ क़ानूनी सज़ा मिले।''
  • 2015 में करीब 10 लाख मुस्लिम शरणार्थी जर्मनी पहुंचे।
  • क़रीब 20 हज़ार ऐसे बच्चे भी थे, जो अकेले आए थे।
  • जर्मनी सहित पूरे यूरोपीय संघ में उस समय 13 लाख से अधिक शरणार्थी पहुंचे थे। 
  • शरणार्थियों पर होता है अरबों यूरो का खर्च। 
  • जर्मनी की 16 राज्य सरकारों को भी कुल 23 अरब यूरो की बलि चढ़ानी पड़ी।
संविधान में है शरण पाने का प्रावधान : ''आप्रवासी'' शब्द से जर्मनी की गृहमंत्री का तात्पर्य उन सभी विदेशियों से था, जो क़ानूनी या ग़ैरक़ानूनी तरीके से आए हैं या उन्हें जर्मनी में शरणा मिली है। प्रवासी या आप्रवासी उन्हें कहा जाता है, जो अपने देश के सरकारी पासपोर्ट और गंतव्य देश की अनुमति वाले वीसा के साथ किसी काम-धंधे के लिए आते हैं। शरणार्थी उन्हें माना जाता है, जो अपने देश से भागे हैं और उनके पास गंतव्य देश का वीसा नहीं है। क़ानूनी दृष्टि से गंतव्य देश के लिए वे अवैध घुसपैठिए हैं। उनका जीवन यदि संकट में है और वे शरण चाहते हैं, तो गंतव्य देश उन पर दया करते हुए उन्हें शरणार्थी मानकर अपने यहां रहने की अनुमति दे सकता है।
 
मात्र सवा आठ करोड़ की जनसंख्या वाला जर्मनी दुनिया के ऐसे गिने-चुने देशों में से एक है, जिसके संविधान की धारा 16a के अनुसार, ''राजनीतिक अत्याचार पीड़ित शरण पाने के अधिकारी हैं।'' दूसरे शब्दों में, जो कोई अपने देश में ''राजनीतिक अत्याचार पीड़ित'' नहीं था, ग़रीबी-बेरोज़गारी जैसे आर्थिक या सूखे-बाढ़ जैसे प्राकृतिक कारणों से पीड़ित था, वह जर्मनी में शरण पाने का अधिकारी नहीं है। किंतु, कई बार मानवीय कारणों से ऐसे लोगों को भी शरण या एक सीमित समय तक के प्रवास की अनुमति दी जाने लगी, जो विशुद्ध राजनीतिक अत्याचार पीड़ित नहीं थे। लगभग यही परिपाटी य़ूरोप के अन्य लोकतांत्रिक देशों में भी है। किंतु, यूरोप के सभी देश अब देख रहे हैं कि उन की दया और उदारता का प्रायः दुरुपयोग होता है। विशेषकर इस्लामी देशों से आने वाले शरणार्थियों की बाढ़ और उनके आचार-व्यवहार से तंग आ कर ये देश उनके लिए अपने दरवाज़े बंद करने लगे हैं।   
 
यदि पिछले केवल एक दशक को देखें, तो जर्मनी सहित पूरे यूरोप में शरणार्थियों की सबसे बड़ी बाढ़ 2015 में आई थी। उस समय इस्लामी देश सीरिया और इराक़ के एक बड़े हिस्से पर, इस्लाम के ही कट्टरपंथी अबू बक्र अल बगदादी की ख़लीफ़त ISIS का क़ब्ज़ा हो गया था। उसके जानलेवा अत्याचारों से बचने के लिए लाखों की संख्या में वहां के लोग, अपने पड़ोसी अरबी-इस्लामी देशों के बदले, ईसाई यूरोपीय देशों की तरफ भागे। जर्मनी के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, क़रीब 10 लाख शरणार्थी जर्मनी पहुंचे थे। उनमें से 8,90,000 को जर्मनी में शरण मिली। अल्प आयु के क़रीब 20 हज़ार ऐसे बच्चे भी थे, जो अकेले आए थे। जर्मनी सहित पूरे यूरोपीय संघ में उस समय 13 लाख से अधिक शरणार्थी पहुंचे थे। 
 
शरण देने का अर्थ है, अरबों यूरो का सिरदर्द : यूरोपीय देशों द्वारा शरण देने का अर्थ है, उनकी सरकारों द्वारा हर शरणार्थी के रहने-सहने, खाने-पीने, दवा-दारू, शिक्षण-प्रशिक्षण, नौकरी-धंधे, ज़ेबखर्च और स्थानीय समाज में समाहित करने की व्यवस्था करना और इन सब का सारा ख़र्च उठाना। उदाहरण के लिए, 2015 में सबसे अधिक लोगों को शरणा देने वाले जर्मनी की केंद्र सरकार को 2016 में इस मद पर 21 अरब 70 करोड़ यूरो (1 य़ूरो=87 रु.) ख़र्च करने पड़े। जर्मनी की 16 राज्य सरकारों को भी कुल मिलाकर 23 अरब यूरो की बलि चढ़ानी पड़ी। ये ख़र्च काफ़ी हद तक आज भी बने हुए हैं।
 
इसी प्रकार, मात्र एक करोड़ की जनसंख्या वाले स्वीडन को हर वर्ष 2 अरब 40 करोड़ यूरो और 89 लाख जनसंख्या वाले ऑस्ट्रिया को एक अरब 56 करोड़ यूरो ख़र्च करने पड़ रहे हैं। इस सूची में 20 से अधिक देशों के नाम हैं। यह सारा पैसा अंततः इन देशों की करदाता जनता के ही सिर का बोझ बनता है। सभी देशों में 2015 के शरणार्थियों का एक बड़ा भाग आज तक पूरी तरह आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है और हर साल नए शरणार्थी भी आए हैं। 
 
य़दि केवल ज़ेब ख़र्च की बात करें, तो अलग घर में रहकर अपने खाने-पीने की व्यवस्था खुद करने वाले शरणार्थी को प्रतिमाह प्रति व्यक्ति स्पेन में 300 से 500 यूरो, ऑस्ट्रिया में 320 से 365 यूरो, जर्मनी में 354 यूरो और स्वीडन में 225 यूरो मिलते हैं। शरणार्थी शिविरों में रहने वालों को खाना-पीना मुफ्त मिलता है, इसलिए उन्हें ज़ेबखर्च के तौर पर ऑस्ट्रिया में 40 यूरो से लेकर जर्मनी में 135 यूरो तक प्रतिमाह मिलते हैं। बच्चों के लिए अलग पैसा मिलता है।
 
बात जब हज़ारों-लाखों शरणार्थिंयों की हो, तो उन पर ख़र्च होने वाली धनराशि करोड़ों-अरबों यूरो प्रतिवर्ष हो जाती है। सरकारें अपनी जनता के कोप से बचने के लिए इन आंकड़ों को यथासंभव छिपाती हैं। यह जानते हुए भी मानवीय बने रहने का स्वांग करती हैं कि अशांत देशों के लोगों की संख्या बढ़ने से चोरी-डकैती ही नहीं, आतंकवाद, यौन-अपराध, धार्मिक टकराव और हत्याओं जैसे गंभीर अपराध भी बढ़ने लगते हैं।
 
अबू बक्र अल बगदादी की ख़लीफ़त ISIS का घोषित लक्ष्य था, पूरी दुनिया पर इस्लाम का झंडा फहराना। ओसामा बिन लादेन के 'अल क़ायदा' और अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान का भी यही घोषित लक्ष्य था और है। 20वीं सदी के अंत और 21वीं सदी के आरंभ में दुनिया भर में आतंकवाद फैलाने और अपूर्व पैमाने पर लोगों के अपने देशों से भागकर दूसरे देशों में शरण मांगने के लिए यही तीनों संगठन ज़िम्मेदार हैं। यह समझने के लिए कि शरणार्थी समस्या के कितने सारे जटिल पहलू हैं, आठ साल पहले के उस परिदृश्य पर एक नज़र डालना अनुचित न होगा, जब शरणार्थियों की अब तक सबसे बड़ी त्सुनामी लहर उठी थी।
 
जब शरणार्थियों की लाशें मिलीं : 2015 के अगस्त वाले महीने के अंत में ऑस्ट्रिया में वियेना के पास के एक हाईवे पर एक लावारिस फ्रीज़र ट्रक देखा गया। खोलने पर उसमें 71 शरणार्थियों की सड़़ रही लाशें मिलीं। वे भूख-प्यास और दमघुटने से मर गए थे। इस समाचार ने दुनिया को हिला दिया। सितंबर शुरू होते ही तुर्की के सैलानी शहर बोद्रुम के समुद्री तट पर एक नन्हें बच्चे का शव मिला। वह अपने पिता के हाथों से फिसल कर समुद्र में जा गिरा था। लहरों के थपेडों ने उस नौका को उलट दिया था, जिसमें बैठा उसका परिवार तुर्की से ग्रीस पहुंचने का तीसरा हताश प्रयास कर रहा था। तीन वर्षीय अयलान के फ़ोटो ने दुनिया को रुला दिया था। इस हृदयविदारक त्रासदी में, पिता अब्दुल्ला कुर्दी के सिवाय, 4 सदस्यों वाले उसके परिवार में से और कोई जीवित नहीं बचा। 
 
कुछ ही दिन बाद, 4 सितंबर 2015 को, हंगरी के साथ वाली सीमा के पास, ऑस्ट्रिया में पुनः एक लावारिस फ्रीज़र ट्रक खड़ा मिला। इस बार उसमें विभिन्न देशों के 81 शरणार्थी ठुंसे हुए थे। उन्हें लगभग अंतिम क्षण में मरने से बचा लिया गया। एशिया और अफ्रीका से यूरोप पहुंचने वाले आधिकांश शरणार्थी, सड़क या रेलमार्ग से नहीं, जान हथेली पर रखकर समुद्री रास्ते से तब भी आते थे और अब भी आ रहे हैं। मानव-तस्कर उनसे हज़ारों डॉलर लेते हैं। जीर्ण-शीर्ण जहाज़ों या नौकाओं में भेड़-बकरियों की तरह ठूंसकर समुद्र में जहां-तहां भाग्य-भरोसे छोड़ देते हैं। कभी वे किसी देश या द्वीप के तट तक पहुंच पाते हैं, कभी नहीं भी।
 
कोई नहीं जानता कि भूमध्य सागर के रास्ते से इटली, ग्रीस या माल्टा पहुंचने के प्रयास में अब तक कितने हज़ार शरणार्थी डूब मरे हैं। अनुमान है कि अकेले 2015 के पहले 8 महीनों में उनकी संख्या 3000 का आंकड़ा पार कर चुकी थी। बाद के आंकड़े बताते हैं कि उस समय 3,32,000 शरणार्थी भूमध्य सागर के रास्ते से यूरोपीय संघ के देशों में पहुंचे थे। दो-तिहाई शरणार्थी अकेले ग्रीस (यूनान) के विभिन्न द्वीपों पर पहुंचे थे। ग्रीस पहले ही दीवालिएपन की मार से अधमरा हो गया था। उसी के जैसा हाल इटली का भी था। दोनों देश आज भी शरणार्थियों की निरंतर नई आवक से परेशान रहते हैं।
 
भूमध्य सागर बना यूरोप का प्रवेश द्वार : यूरीपीय संघ का नियम है कि कोई शरणार्थी 'संघ' के जिस किसी देश की भूमि पर सबसे पहले पैर रखेगा, उसी देश को उसके फ़ोटो और उंगलियों के निशान लेते हुए पंजीकरण और शरणदान की सारी औपचारिकताएं पूरी करनी होंगी। 90 प्रतिशत शरणार्थी भूमध्य सागर की तरफ से ही आते हैं। उन्हें संभालने का सारा भार आज भी सबसे पहले इटली और ग्रीस को ही वहन करना पड़ता है। तीन दशक पुराने तथाकथित ''डब्लिन'' समझौते के इस नियम की आड़ ले कर यूरोपीय संघ के बड़े और धनी देशों ने नए शरणार्थियों से निपटने का मुख्य भार, संघ की बाहरी सीमा वाले इन छोटे और कमज़ोर देशों के मत्थे ही मढ़ दिया है। ये छोटे देश भी तंग आकर अब नये शरणार्थियों को प्रायः धक्के मारकर दूर भगाते हैं।
 
नए शरणार्थियों की संख्या जब तक बहुत अधिक नहीं थी, तब तक यूरोप के छोटे देश भी सहनशील बने रहे। किंतु, जब से आपसी सिरफुटौव्वल में लगे अरब-इस्लामी जगत के क़रीब पूरे के पूरे देशवासी यूरोप की तरफ पलायन करने लगे हैं, तब से स्वाभाविक है कि मात्र डेढ़ करोड़ की जनसंख्या वाले ग्रीस या 97 लाख वाले हंगरी जैसे छोटे देश उनके पैरों तले खुद ही कुचल जाने के भय से आतंकित हैं। इटली व ग्रीस के द्वीपों या हंगरी के रेलवे स्टेशनों पर 2015 के शरणार्थियों के साथ जो अमानवीयता देखने में आई और मीडिया में सनसनी फैला गई, उसके पीछे यही मुख्य कारण रहा है। 
 
शरणार्थी बनते हैं जनमत के ध्रुवीकरण का कारण : यूरोपीय संघ के दुर्बल पूर्वी देश ही नहीं, जर्मनी, ऑस्ट्रिया या फ्रांस जैसे धाकड़ पश्चिमी देशों के लोग भी आपसी युद्ध, गृहयुद्ध या फिर दमन और अत्याचार में लिप्त अरब-इस्लामी देशों से आ रहे शरणार्थियों की बाढ़ से अपने यहां अव्यवस्था फैल जाने का प्रत्यक्ष ख़तरा देखने लगे थे। सरकारों और मीडिया के एकस्वर प्रचार पर विश्वास कर यूरोपीय देशों की जनता का एक वर्ग शरणार्थियों का स्वागत करता हुआ नज़र आता था, तो एक दूसरा वर्ग उनके रहने-ठहरने की जगहों को आग की भेंट चढ़ाता था।
 शरणार्थियों के पक्ष और विपक्ष में जनमत के ध्रुवीकरण का पलड़ा, समय के साथ अब विपक्ष की तरफ अधिक झुक गया है। ठीक इस समय, यूरोप के ही एक देश यूक्रेन पर 24 फ़रवरी, 2024 को हुए रूसी आक्रमण के बाद से, यूक्रेन से आए शरणार्थियों के प्रति काफ़ी सहानुभूति अवश्य है, पर उनके स्वागत वाली तख्तियां और बैनर ही सारी सच्चाई बयान नहीं करते। 
 
2014 में पूरे यूरोपीय संघ में नए शरणार्थियों की पंजीकृत संख्या लगभग 6,25,000 थी। 2015 में अकेले जर्मनी में यह संख्या क़रीब 10,00,000 हो गई। सीरिया के लगभग सभी शरणार्थी जर्मनी में रहना चाहते थे। अन्य देशों के शरणार्थियों का बहुमत तब भी यही चाहता था और अब भी यही चाहता है। जबकि जर्मनी और फ्रांस मिलकर, तब से अब तक यही कहते रहे हैं कि एक कोटा-प्रणाली के अंतर्गत इन शर्णार्थियों को यूरोपीय संघ के सभी 27 देशों के बीच बांटा जाना चाहिए। पूर्वी यूरोप के चार देश –– हंगरी, पोलैंड, चेक गणराज्य और स्लोवाकिया–– अपना एक अलग गुट बनाकर इसका प्रबल विरोध कर रहे हैं।
 
अपने ही महाद्वीप पर अल्पमत हो जाने का डर : हंगरी के प्रधानमंत्री विक्तोर ओर्बान ''मुसलमानों'' को यूरोप में शरण देने के सरासर विरुद्ध हैं। 2015 में हंगरी के सरकारी रेडियो के एक प्रसारण में उन्होंने कहा कि मुसलमानों को शरण देने पर ''यूरोप वाले एक दिन पाएंगे कि वे अपने ही महाद्वीप पर अल्पमत हो गए हैं... यदि हम अपनी सीमाओं को नहीं रूंधते, तो करोड़ों (मुस्लिम शरणार्थी) सारे यूरोप में भर जाएंगे।'' उनका कहना था कि अन्य यूरोपीय देशों ने ''मुसलमानों के साथ सहजीवन'' का अतीत में जो निर्णय लिया है, हम उसका आदर करते हैं। लेकिन, ''हमें भी तो यह अधिकार है कि हम तय करें कि हम इस उदाहरण को अपनाना चाहते हैं या नहीं।'' 
 
चेक गणराज्य की राजधानी प्राग में हुई इस चौगुटे की एक शिखर बैठक में कहा गया कि धार्मिक और सांस्कृतिक कारणों से वे केवल ईसाई शरणार्थियों को ही स्वीकार कर सकते हैं। समझा जाता है कि पूर्वी यूरोप के रोमानिया, बुल्गारिया, स्लोवेनिया, क्रोएशिया और तीन बाल्टिक देशों का भी यही सोचना है। भारत का नागरिकता संशोधन क़ानून CAA  भी इसी सोच जैसा है। किंतु, पूर्वी यूरोपीय देशों की या भारत की निंदा-आलोचना करने से पहले हमें यह भी देखना चाहिये कि सऊदी अरब,  क़रीब सभी अरबी देश और संयुक्त अरब अमीरात जैसे खाड़ी क्षेत्र के अनेक धनीमानी देश भी– जो दुनिया के सभी मुसलमानों को 'उम्मा,' यानी एक ही बिरादरी मानने का ढोल पीटते हैं– ख़ुद मुस्लिम देशों के शर्णार्थियों को शरण या किसी ग़ैर-अरब को अपनी नागरिकता नहीं देते। मुस्लिम शरणार्थी इसीलिए यूरोप भागते हैं, हालांकि यूरोप में भी वे जल्द ही शरियत के अनुसार रहने-जीने की मांग करने लगते हैं।
 
मुस्लिम शरणार्थी 92 प्रतिशत : ऐसा भी नहीं है कि पूर्वी यूरोप वाले देशों की भेदभावी सोच सरासर निराधार है। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायोग (UNHCR) के अनुसार, 2015 में यूरोपीय संघ में अकेले सीरिया के 38 प्रतिशत, अफ़ग़ानिस्तान के 12  प्रतिशत और पाकिस्तान के 9 प्रतिशत शरणार्थी होने का अनुपात ग़रीबी, अराजकता और कबीलाई कलह के लिए बदनाम, अफ्रीकी देशों के शरणार्थियों के अनुपात से कहीं अधिक था। यूरोपीय संघ के आंकड़े दिखाते हैं कि उसके उस समय के 28 सदस्य देशों में, वर्ष 2014 में, कुल6,26,710 शरणार्थी आए। जिन 10 देशों से सबसे अधिक लोग आए, उनमें से दो छोड़कर बाकी सभी 8 देश अरब या ग़ैर-अरब इस्लामी देश थे।
 
इन 8 देशों से कुल मिलाकर 5,76,055 पंजीकृत शरणार्थी आए थे। सबसे अधिक 1,22,115 सीरिया से आए थे। दूसरे नंबर पर 41,370 के साथ अफ़ग़ानिस्तान था। पाकिस्तान के भी लगभग बीस हज़ार लोगों ने शरण मांगी। 2015 के पहले चार महीनों में 18,290 अफ़ग़ानी और 7,545 पाकिस्तानी शरणार्थी पंजीकृत हुए थे। यानी, वर्ष 2015 का अंत आने तक नए आए अफ़ग़ानी और पाकिस्तानी शरणार्थियों की संख्या एक बार फिर कम से कम उतनी हो जाने की संभावना बनी रही, जितनी एक वर्ष पहले थी। भारत क्योंकि एक लोकतंत्र है, भारत से न तो शरणार्थी आते हैं और न उन्हें यूरोप में शरण मिल सकती है।
 
यूरोपीय देशों वाले भारतीय अधिकतर नौकरी-धंधा कर रहे क़ानूनी ढंग से आए आप्रवासी हैं, या ऐसे भारतवंशी हैं, जो ख़ालिस्तानी आन्दोलन के समय भारत से, तालिबानी शासन वाले अफ़ग़ानिस्तान से अथवा राजनीतिक उथलपुथल से पीड़ित रहे किसी अफ्रीकी-कैरीबियाई देश से आए थे।
(आलेख का दूसरा भाग)  : सावधान! सभी शरणार्थी भोले-भाले और दया के पात्र नहीं होते...
(आलेख का तीसरा भाग) : Refugee Problem: जब 4 करोड़ से ज्यादा भारतीय बन जाएंगे 'शरणार्थी'