नव-संवत्सर हिन्दू नव वर्ष का आरंभ है जो चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को शक्ति-भक्ति की उपासना, नवरात्रि के साथ प्रारंभ होता है। पंचांग रचना का भी यही दिन माना जाता है। महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने इसी दिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना कर पंचांग की रचना की थी। भारत सरकार का पंचांग शक संवत् भी इसी दिन से शुरू होता है। भारत के लगभग सभी प्रांतों में यह नव वर्ष अलग-अलग नामों से मनाया जाता है जो दिशा व स्थान के अनुसार मार्च-अप्रैल में लगभग इसी समय पड़ते हैं। विभिन्न प्रांतों में यह पर्व गुड़ी पड़वा, उगाडी, होला मोहल्ला, युगादि, विशु, वैशाखी, कश्मीरी नवरेहु, चेटीचंड, तिरुविजा, चित्रैय आदि के नाम से मनाए जाते हैं।
भारत में नव-संवत्सर पर अलग-अलग प्रांतों में विशेष तरह की पूजा पाठ का विधान है। पुरानी उपलब्धियों को याद करके नई योजनाओं की रूपरेखा भी तैयार की जाती है। इस दिन अच्छे व्यंजन और पकवान भी बनाए जाते हैं। विभिन्न प्रांतों की अलग परंपराएं भी इस पर्व में झलकती हैं। कहीं स्नेह, प्रेम और मधुरता के प्रतीक शमी वृक्ष की पत्तियों का आपस में लोग विनिमय कर एक-दूसरे के सुख और सौभाग्य की कामना करते हैं। कहीं काली मिर्च, नीम की पत्ती, गुड़ या मिश्री, अजवाइन, जीरा का चूर्ण बनाकर का मिश्रण खाने व बांटने की परंपरा है।
संवत्सर वास्तव में काल गणना की एक पध्दति है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता काफी पुरानी और बेहद विकसित रही है इसलिए यहां पर समय-समय पर स्वीकार्यता की दृष्टि से गणना पध्दति में भी आवश्यक्तानुसार परिवर्तन भी हुए हैं। काल गणना की विभिन्न पध्दतियों में कल्प, मन्वन्तर युग आदि के बाद ही संवत्सर का उलेख मिलता है। संवत का प्रयोग लगभग 2000 वर्षों से थोड़ा ही पुराना है जब इसका उल्लेख हिन्दू-सिथियनों द्वारा किए जाने की पुष्टि होती है जब उन्होंने आधुनिक अफगानिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी भारत में ई.पू. लगभग 100 ई. में शासन किया था।
इसके काफी बाद काल गणना की इस पध्दति का भारत में ही नहीं बल्कि मिस्र, बेबीलोन, यूनान एवं रोम में लगातार प्रयोग हुआ। यूं तो नव-संवत्सर से जुड़ी कई बातें बेहद महत्वपूर्ण हैं। जहां यह भारतीय नववर्ष के प्रारंभ का दिन है वहीं यह भी माना जाता है कि इसी दिन 1 अरब, 97 करोड़, 39 लाख, 49 हजार, 112 वर्ष पूर्व ब्रह्मा जी ने सृष्टि की शुरुआत की थी। दूसरी ओर वैज्ञानिक भी पृथ्वी की आयु को लगभग 2 अरब वर्ष मानते हैं।
विक्रम संवत् की भी इसी महीने शुरुआती होती है। यह हिन्दू पंचांग में गणना प्रणाली भी जिसे संवत्सर भी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि यह उस राजा के नाम पर प्रारंभ होता है जिसके राज्य में न कोई चोर हो, न अपराधी हो न ही भिखारी हो। उज्जयिनी वर्तमान उज्जैन के सम्राट विक्रमादि्त्य ने 2068 पूर्व इसी दिन अपने राज्य की स्थापना की थी। यह भी एक संयोग ही है कि जहां हिन्दू मान्यता के अनुसार यह नववर्ष होता है वहीं काम काज के लिहाज से मार्च में पड़ने वाले संवत्सर माह में ही दुनिया भर में पुराने कामों को समेटकर नए कार्यों की रूपरेखा तैयार की जाती है।
एक अद्भुत संयोग यह भी है कि 21 मार्च को पृथ्वी सूर्य का एक चक्कर पूरा कर लेती है और इस तारीख को रात-दिन बराबर होते हैं। 12 माह का एक वर्ष, 7 दिन का एक सप्ताह रखने की परंपरा भी विक्रम संवत् से ही शुरू हुई है जिसमें महीने का हिसाब सूर्य-चंद्रमा की गति के आधार पर किया जाता है। विक्रम कैलेंडर की इसी पध्दति का आगे चलकर अंग्रेजों और अरबियों ने भी अनुसरण किया। इसके साथ ही भारत के अलग-अलग कई प्रांतों ने इसी आधार पर अपने-अपने कैलेंडर तैयार किए। इस तरह संवत्सर एक तरह से समय को कालखंड में विभाजित करने की एक पध्दति भी है अर्थात बारह महीने का एक पूरा काल-चक्र का लेखा-जोखा रखने का बहीखाता कह सकते हैं।
सबसे विशेष बात यह है कि यह पध्दति सबसे पहले भारत में ही प्रारंभ की गई जो वास्तव में विभिन्न ऋतुओं का वो हिसाब-किताब से तैयार गणनाओं पर निर्धारित होती है जो कि सूर्य और पृथ्वी के अंर्तसंबंधों के कारण ही घटित होता है। संवत्सर को असाधारण माना जाता है क्योंकि यह भी मान्यता है कि ब्रह्मा जी ने इसी दिन सृष्टि का निर्माण किया था। इस दिन विशेष रूप से ब्रह्मा जी और उनके द्वारा निर्मित सृष्टि के प्रमुख देवी-देवता, यक्ष-राक्षस, गंधर्वों, ऋषि-मुनियों, नदी-पर्वत, पशु-पक्षियों, मनुष्यों, रोगों, कीटाणुओं और उनके उपचारों तक का पूजन किया जाता है। ऋषि याज्ञवल्क्य वाजसनेय द्वारा रचित ग्रंथ ‘शतपथ ब्राह्मण’ के अनुसार प्रजापति ने अपने शरीर से जो प्रतिमा उत्पन्न की उसको संवत्सर कहते हैं अर्थात संवत्सर की उपासना, प्रजापति की उपासना है।
ब्रह्मांड के पुरातन ग्रंथों और वेदों में भी नव-संवत्सर का वर्णन है। यजुर्वेद के 27वें और 30वें अध्याय में क्रमशः 45वें और 16वें मंत्र में इसे विस्तार से दिया गया है। इसकी पुष्टि ऋगवेद के ऋत सूक्त से भी होती है जिसमें कहा गया है
'समुदादर्णवादाधि संवत्सरो अजायत। अहोरात्रीणि विद्यत विश्वस्य मिषतो वशी।।'
- अर्थात प्रजापति ने सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, स्वर्ग, पृथ्वी, अंतरिक्ष को रचा और तभी से नव-संवत्सर का आरंभ हुआ। सृष्टि संवत् के प्रारंभ का भी यही समय माना जाता है। इसी से सृष्टि की आयु का भी आंकलन किया जाता है। नवसंवत्सर की प्रामाणिकता इसी से सिध्द होती है कि नवंबर 1952 में भारतीय वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद द्वारा एक पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गई थी। जिसने 1955 में रिपोर्ट सौंपकर शक संवत् को राष्ट्रीय सिविल कैलेंडर के रूप में भी स्वीकारने की सिफारिश की थी। इसके बाद ही जहां सरकार के अनुरोध पर ग्रेगेरियन कैलेंडर को सरकारी कामकाज हेतु उपयुक्त मानते हुए भी 22 मार्च 1957 को शक संवत् आधारित पंचांग को राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप स्वीकारा गया जिसमें चैत्र मास भारतीय राष्ट्रीय पंचांग का पहला महीना होता है।
शक संवत को भले ही भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर माना गया हो लेकिन भारतीय पंचांग का आधार विक्रम संवत है जिसका संबंध राजा विक्रमादित्य के शासन काल से है। दोनों भारतीय कैलेंडर हैं जो समय गणना की हिन्दू पंचांग प्राचीन पद्धति है। शक संवत का प्रारंभ कुषाण वंश के शासक कनिष्क ने 78 ई.पू. किया था जबकि विक्रम संवत की शुरुआत राजा विक्रमादित्य ने 57 ई.पू. की थी। जहां शक संवत की पहली तिथि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष से शुरू होती है वहीं विक्रम संवत पूर्णिमा के बाद कृष्ण पक्ष से प्रारंभ होता है। दोनो संवतों के महीनों के नाम एक ही हैं अंतर मात्र तिथियों की शुरुआत में हैं।
विक्रम संवत् का संबंध किसी धर्म विशेष से न होकर संपूर्ण धरा की प्रकृति, खगोल सिध्दांतों और ग्रह-नक्षत्रों से है जो कि वैज्ञानिक आधार और वैश्विक स्वीकार्यता के संभावित कारण तो हैं ही साथ ही भारत की गौरवशाली परंपरा हैं।
जहां तक विक्रम संवत् की बात है, भारत के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से सबसे लोकप्रिय और प्राचीन संवत् माना जाता है। किसी नवीन संवत् को चलाने की शास्त्रीय विधि यह है कि संवत् चलाने के दिन से पहले उस राज्य की जितनी भी प्रजा हो ऋणी न हो, ऋणी होने पर महाराजा द्वारा इसे चुकाया जाएगा। हालांकि भारत के बाहर इस नियम का कहीं पालन होने के प्रमाण नहीं है लेकिन यहां महापुरुषों के संवत् उनके अनुनायियों ने श्रध्दावश ही चलाए हैं जिनमें सर्वमान्य और विक्रम संवत् ही है क्योंकि महाराजा विक्रमादित्य ही वो महाराजा थे जिन्होंने संपूर्ण देश यहां तक कि प्रजा के ऋण को भी चुकाकर इसे चलाया।