आज भी बिंदु से एक निवाला भी डाला ना गया मुंह में, वैसी की वैसी बेसुध पड़ी हुई है खाट पर... न उठने का जी कर रहा, न किसी से बात करनें का। बस उदासी ने जकड़ लिया है जमकर। आंखों के नीचे के स्याह घेरे और भी स्याह पड़ गए...।आंखे बाढ़ग्रस्त झील सी हो गई, सारा सैलाब उढ़ेल आई और फिर भी लबालब भरी पड़ी है। शरीर कितना कमजोर हो चला है...।
मां कहती है-- "चिंता से चतुराई घटे, दुख से घटे शरीर"...जन्म से ही चिंता और दुःख ने कभी साथ न छोड़ा उसका, बाकि रिश्ते नाते तो आते जाते रहे...।बचपन में, पिता का साया छिन गया, मां ने दूसरों के घरों में काम कर करके अपने बच्चों को पाला...। नंदू उसका भाई, जानें किसकी संगत लगी, चोरी चकारी करना सीख गया। एक बार पुलिस ने पकड़कर थाने में बंद करके रखा। सुनते ही मां इधर-उधर से पैसे जुटाकर जैसे-तैसे उसकी जमानत करा लाई। खूब समझाया उसे, पढ़-लिख ,फालतू के काम छोड़। उसके दोस्तों को भी डांटा। कुछ दिन तो वो ठीक रहा, लेकिन एक दिन मां के जमा किए पैसे ही चुरा लिए।
मां ने उसे खूब मारा, गालियां दी, खूब रोती रही, गिड़गिड़ाती रही...नन्दू के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। चुपचाप ही रहा वो.. उस रात खाना भी नहीं खाया। मां गुस्सा भूल मनाती रही उसे...भूखे पेट ही सो गया वह। सुबह जागे तो वो घर से गायब....। ख़ूब ढूंढा... कहीं भी नहीं मिला। मां बेचारी थाने जाकर, रिपोर्ट लिखवाई, खूब चक्कर लगाती रही, पर कोई सुराग ना मिला। जानें कहां चला गया, जिंदा भी है या नहीं...। मां का कलेजा फट सा जाता है, रोती रहती है उसे याद करके और कोसती रहती है खुद को।
बिंदु सत्रह साल की हुई, तो मां के दूर के रिश्तेदार ने पास ही के गांव में उसका रिश्ता तय करा दिया। शादी के बाद ससुराल में बहुत बुरा बर्ताव झेला। हद तो तब हुई जब एक दिन ससुर ने ही बुरी नीयत से उस पर निगाह डाली। हाथ पकड़ लिया उसका, पर वो हाथ छुड़ाकर बच निकली। पति को बताया, तो गाली देकर उसी पर तमाचे जड़ दिए - "साली मेरे बाप पर लांछन लगा रही...शर्म नहीं आई तुझे"... "ऐसा कहते, तेरी जुबान न जल गई" उस पर तो ज़रा विश्वास ना किया...।
अगले दिन, सुबह जेठानी के साथ शौच के लिए खेत में गई, तो जेठानी के मुंह से ससुर की हरकतों के किस्से सुन, वहीं से खेत-खेत भागती हुई रोड़ तक जा पहुंची और जो बस मिली उसमें चढ़कर अपनी मां के घर शहर आ पहुंची...। पति आया भी लेने, पर उसके साथ जाने का मन न किया और इस तरह से वो रिश्ता भी टूट गया...।
मां के साथ ही साथ घरों में काम करने जाया करती...। एक दिन मां ने ही पास की कॉलोनी में उसे दिन भर का काम लगवा दिया...। खूब अच्छी थी आई, खूब ध्यान रखती उसका,। वहां काम पर बिंदु का भी मन लगने लगा। तीन साल हो गए थे उस घर में काम करते हुए। एक दिन दुबई से उनकी बेटी आई...वो भी बहुत अच्छी थी। कोई संतान नहीं थी, इस संताप से गुजर रही थी...। जानें क्या कमी थी, सात साल हो गए थे विवाह को।
एक दिन आई और उनकी बेटी अंजू दीदी ने बिंदु के सामने एक प्रस्ताव रखा- "कोख उधार देने का"।
"ये कैसी उधारी"!!समझ ना पड़ी... मां को बुलवाया, चार लाख रुपया देनें की बात की...मां भी सोच में पड़ गई, कुछ ना सूझा उसे...। सोचकर बताने का वक्त मांग लिया...। घर पर बिंदु के साथ सोचती,विचारती रही। पूरा जीवन ही तंगहाली में घिसट घिसटकर बिता दिया, एक अवसर मिला है...चार लाख की रकम कम तो ना है...क्या कहती है बिंदु,बोल ?
"मैं क्या बोलूं मां, कुछ समझ ना आ रहा...।" वैसे भी, अहमदनगर लेकर जाएंगे तुझे। किसी को पता तो ना चलेगा, काम के लिए भेजा है, कह दूंगी सबसे।
"तंगहाली और बदहाली से, कुछ तो राहत मिलेगी...।" बुढ़ापे में जब शरीर साथ न देगा, तब यह रकम ही सहारा बनेगी।
"हां मां शायद तुम ठीक ही कह रही हो...।""दोबारा शादी तो करूंगी नहीं ...मां बनने का सुख मिल जाएगा। शायद इसलिए, ईश्वर ने यह अवसर दिया...।
चल, हां कर देंगे कल आई से, कहती हुई सो गई दोनों। अगले दिन, आई और अंजू दीदी को अपनी सहमति दे आईं।
बिंदु की मां के नाम बैंक में खाता खुलवाकर दो लाख रूपए जमा करवा दिए गए। शेष दो लाख रुपए, बच्चा होने के बाद देने का वादा कर बिंदु को अंजू दीदी के साथ अहमदनगर भेज दिया गया। अहमदनगर में अंजू दीदी के ससुराल पक्ष का कोई पैतृक मकान था, जिसकी सफाई कराई गयी थी। अगले दिन बिंदु को हॉस्पिटल ले जाया गया। सारी प्रक्रिया की गई...कुछ ही दिनों में बिंदु के मां बनने की खबर पक्की हो गई।
अंजू दीदी खूब ख्याल रखती उसका...उसे एक साफ-सुथरा कमरा दे दिया गया। दीवारों में अंजू दीदी और उनके पति गौरव की तस्वीरें लगा दी गई। दीदी कहती,
"तुम इन तस्वीरों को ही देखा करो, बच्चे की शक्ल मम्मी-पापा पर जाएगी...।"
रोज सुबह फलों का जूस, नारियल पानी दे दिया जाता। दिन भर अच्छा-अच्छा खाना व फल दिया जाता। कुछ दिन तो थोड़ा बहुत खाया, पर थोड़े दिन बाद तो जो भी मुंह में जाता, निकल जाता...। झट उल्टियां शुरू हो जाती, जी मचलाता रहता...खाने से दुर्गंध-सी आती...। किचन के तो पास में भी ना जा पाती वह...अंजू दीदी समझाती,"कुछ दिनों की बात है...धीरज रखों सब ठीक हो जाएगा...।"
खूब तो 'भजन' बजते रहा करते, एक पंडित जी आते और फिर जाने क्या-क्या संकल्प दिलाते 'हवन' में आहुति डलवा देते...।
समय गुजरता गया... बिंदु के शरीर का आकार बदलता गया...। अब उसके अंदर किसी के होने का एहसास महसूस होने लगा...।छूकर देखती, सहलाती...महसूस करती...।
"सचमुच कितना अलग-सा अनुभव है, मां बनना"। उसकी शादी टिकी रहती तो, अभी तक वह भी मां बन चुकी होती...। खैर किस्मत को जाने क्या मंजूर...!!
समय के साथ बच्चे की गति, हलचल, उसकी हरकतों को महसूस करती जाती...। आठवां महीना शुरू हुआ, तो शरीर का आकार और भी बढ़ गया, निठल्ली-सी पड़ी ही तो रहती थी, दिन भर खा-खाकर...।
करे भी तो क्या, अंजू दीदी कुछ काम ना करने देती, खूब ख्याल रखती उसका...।
बिंदु को आज भी अच्छी तरह से याद है, जब उसे सोनोग्राफी के लिए लेकर गए। 'थ्री -डी सोनोग्राफ़ी', हां ऐसा ही कुछ कहा था, अंजू दीदी और उस हॉस्पिटल की मैडम ने...।
यूं तो सोनोग्राफी पहले भी कई बार हुई, पर यह अलग थी...। बच्चे का शरीर अच्छे से दिख रहा था...।अंजू दीदी रूम से निकल गई थी, डॉक्टर से बात करती हुई ,तब सिस्टर ने पूछा था "तुम्हारा पहला बच्चा है?"
"हां "
"अच्छा है,स्वस्थ"
"लड़का है या लड़की"
"यह तो नहीं बता सकते, मना है...कानून के खिलाफ है..."
"अच्छा "।
"पहला बच्चा तो वैसे ही मां को बहुत प्यारा होता है"
"वैसे भी क्या फर्क पड़ता है, लड़का हो या लड़की...."!!
उसे पता ना था, बिंदु तो मां कहलाएगी भी नहीं...और क्यों पूछा उसने, "लड़का है या लड़की.."
क्या कर लेगी जानकर...??
बावली ही है पूरी...लेकिन मन का क्या करे...।
मन में रोज ढेरों विचार आते, अपनी कोख में पल रहे उस नन्ही-सी जान को कैसे दे देगी अंजू दीदी को...?? "नौ माह कम ना होते", "कैसे बिताया एक-एक पल...हे भगवान मुझे शक्ति दो, क्यों कमजोर पड़ रहा मन...।" सब कुछ तो तय है, फिर बार-बार ये विचार क्यों सताते हैं....अजीब-सी कश्मकश में रहा करती बिंदु...।
और एक दिन जोरों का दर्द उठा...तड़पती रही दर्द से, ऐसे दर्द की तो कल्पना भी ना की थी उसने, लगा प्राण ही निकल जाएंगे उसके... अंजू दीदी समझ गई, लेबर पेन शुरू हो गया है, सो तुरंत हॉस्पिटल लेकर गए उसे। लेकिन बिंदु पसीना-पसीना होती रही, ठंड के दिन में भी...।
दिसंबर का महीना था और मई सा लग रहा था उसे, कंठ सूखता जा रहा था...। छटपटाहट बढ़ती ही जा रही थी...बेसुध-सी हो गई वह।
हॉस्पिट्ल पहुंचते ही, नर्स उसे लेबर रूम ले गईं ,तसल्ली देती रहीं, पर बिंदु का तन- मन, असीम पीड़ा में जकड़ा हुआ था। कोई सुध नहीं थी....काफी देर तक जद्दोजहद चलती रही...।एक जीव को लाने के लिए, एक जीवन दांव पर लगा था...।
बिंदु का अवचेतन मन पीड़ा में मुक्ति की गुहार लगाए हुए था...और फिर रोने का स्वर सुनाई दिया...बेसुध बिंदु पूछ बैठी-- "लड़का है या लड़की...।"
"लड़का"
"अच्छा..."
मन तो किया छाती से लगा ले, उस बच्चे को।
सारी पीड़ा विस्मृत हो जाएगी...।
पर बेहोशी-सी छा गई...।
होश आया तो घर पर...हॉस्पिटल से कब छुट्टी हुई कब और कैसे घर पहुंची कुछ याद ना रहा...'आई' आ गई थी। वे ही आईं, हालचाल पूछने...।
कैसे पूछे, कि बच्चा कहां है...छाती फूट पड़ी...मातृत्व उमड़ पड़ा...हे भगवान !! कहां गया बच्चा...।
तड़प गई उसकी एक झलक के लिए...। उर्मिला काकी खाना देनें आई तो उसने बताया - बच्चे को पीलिया हो गया था, इसलिए उसे अस्पताल में रखा है, जानें कौन सी लाईट दे रहें। मैडम तो वहीं है, बच्चे के साथ...।
हे भगवान!! रक्षा करना उसकी, मन ही मन बुदबुदाती गई...।
शरीर की पीड़ा तो खत्म-सी हो गई, पर मन की पीड़ा बढ़ती चली गई...अभी तो देखा भी नहीं, मिली नहीं, उसकी छटपटाहट है...।
"पर वह तो, मेरा है ही नहीं...।"
"कभी भी, मेरा नहीं हो सकेगा...।"
मन में तरह तरह के विचार घुमड़ने लगते, और फिर वह दिन आया, जब बच्चा घर आया। अंजू दीदी अपनी गोद में रखी हुईं थी...। सीधे अपने कमरें में लेकर गईं...।उसके रोने की खूब आवाज आती, मन दुःख जाता...। हिम्मत करके उसे देखने गई, दीदी ने कुछ ना कहा। नन्हा-सा कोमल, नाजुक सा प्यारा बच्चा रुई के फाहे-सा दिख रहा था।
"दीदी बुरा ना मानो तो, मैं गोद में ले लूं उसे...।"
"हां ले...ले आ इधर, मैं क्यों बुरा मानूंगी...।
बिंदु ने उसे गोद में उठाया, छाती फिर फूट पड़ी... अंजू दीदी के सामने उसे सीने से लगाने की हिम्मत न जुटा सकी...। सारा लावा आंखों में सैलाब बनकर उमड़ पड़ा...। तभी 'आई' आईं...। जानें क्या समझा, क्या अर्थ निकाला, थोड़ी देर में, बच्चे को ले लिया गोद से और रख दिया अंजू दीदी के बेड पर...।
बिंदु अपने कमरे में आकर खूब रोई...। हाथों में उस फाहे जैसे कोमल स्पर्श को घंटों महसूस करती रही...।
अगले दिन, सुबह आई कमरे में आई और कहा- " तुम्हारी मां की तबियत जरा ठीक नहीं, सो आज ही जाना होगा।"
अपना सामान समेट लो। मां की तबियत का सुन फटाफट वापस जाने की तैयारी में जुट गई। स्टेशन रवाना होने के पहले अंजू दीदी के कमरे में गई...बच्चा सो रहा था, उसके सिर में हौले से हाथ फेर, पांच सौ रूपये का नोट उसकी बगल में रख दिया।
" दीदी मेरी ज्यादा हैसियत तो नहीं, बस इससे जो भी बने आप अपने बेटे के लिए, मेरी तरफ से एक उपहार ले लीजिएगा।"
अंजू दीदी ने बिंदु को अपने गले लगा लिया, आंखें भर आई उनकी, भरे मन से कहा-- "उपहार तो तुमने मुझे दिया है बिंदु। जीवन भर ऋणी रहूंगी तुम्हारी।"
"चलो अब समय निकला जा रहा, ठीक समय पर स्टेशन पहुंच जाएं तो ठीक रहेगा, आई ने कहा। बिंदू, उदास मन से निकल आयी कमरे से...। पूरे रास्ते वो नन्ही सी जान एक पल के लिए भी ओझल ना हुआ उसकी आंखों से। उसको याद करती रही बस...।
लौट आयी वह अपने घर...और तब से वैसी ही बेसुध पड़ी है...। अपनी मां को देखते आई थी, नंदू के लिए तड़पते हुए...।
अब उसका भाग्य भी मां जैसा ही हो गया। नन्दू तो शायद कभी भूले भटके आ भी जाए। पर "वो" उसकी कोख से जना...कभी नहीं लौटेगा उसके पास...।
किराया भी तो चुकता हो गया उसका...