मंगलवार, 26 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. लाइफ स्‍टाइल
  2. »
  3. साहित्य
  4. »
  5. मुलाकात
  6. लेखन से समझौता नहीं: मालती जोशी
Written By WD

लेखन से समझौता नहीं: मालती जोशी

लेखिका ज्योति जैन की आत्मीय बातचीत

Interview | लेखन से समझौता नहीं: मालती जोशी
Ravindra SethiaWD
जिनकी 'सात कहानियों' पर श्रीमती जया बच्चन द्वारा 'सात फेरे' का निर्माण हो चुका है। गुलजार साहब के टीवी सीरियल 'किरदार' व 'भावना' में जिनकी कहानियाँ शामिल हो चुकी हैं। 40 से अधिक जिनके कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ऐसे अनेक अलंकरणों से विभूषित सुप्रसिद्ध कहानीकार श्रीमती मालती जोशी के इंदौर आगमन पर उनसे रूबरू होते हुए चंद संवाद लेखिका ज्योति जैके -

* सर्वप्रथम तो मायके (इंदौर) में आपका स्वागत। 4 जून को आप 75 वर्ष पूर्ण करने जा रही हैं। आपको बधाई। आप स्वस्थ रहते हुए शतायु हों, ऐसी शुभकामनाएँ और सबसे पहले आपसे यही पूछती हूँ कि जबसे आपने लेखन प्रारंभ किया, तबसे अब तक के दौर में लेखन में आप क्या परिवर्तन महसूस करती हैं?

- पहले काल्पनिक भाषा थी, अब यथार्थ के धरातल पर लेखन अधिक है, जो कभी-कभी जुगुप्सा पैदा करता है। पहले लेखन इतना खुला भी नहीं होता था। अब लगता है खुलेपन से कोई परहेज नहीं। स्त्री मुक्ति के नाम पर कितना ही उघड़ जाओ, यही शायद आज लोग पसंद करते हैं। यथार्थ के नाम पर लेखन अब आम हो गया है, जो कुछ दशक पहले नहीं था।

* अभी तक आपको जितना भी पढ़ा, उपन्यास कम, कहानियाँ अधिक हैं। कहानी की ओर रुझान की कोई खास वजह?
- मुझे लगता है जो भी मुझे कहना है, वह मैं जल्दी से कह सकती हूँ, उपन्यास का ताना-बाना लंबा होता है। उसे अंतिम छोर तक बाँधकर ले जाना पेशंस का काम है, इसीलिए मुझे कहानी लेखन अधिक भाया।

* आपकी करीब-करीब सारी कहानियों में मध्यम, निम्न मध्यम वर्ग की पृष्ठभूमि ज्यादा नजर आती है, फिर चाहे वह 'तौलिये' हो या 'मेहमान' अथवा पूजा के फूल
- मध्यम वर्ग व बड़े परिवार की हूँ। अत: उसी के इर्द-गिर्द ही कहानियाँ घूमती हैं। जाहिर सी बात है कि जिस परिवेश में आप रहे हो, या रहते हो, वही आपके लेखन में अधिक रहता है। मध्यमवर्गीय परिवार से थी, इसलिए कहानी में सहज ही चित्रण हो जाता है।

Ravindra SethiaWD
* कहानी 'एक सार्थक दिन' की एक पंक्ति है - 'अनब्याही लड़की और बेकार लड़का' दोनों ही घर पर भार होते हैं। क्या आज भी समाज में लागू है? ऐसा मानती हैं?
- हाँ। दरअसल आज लड़कियाँ भले ही इस बात की परवाह नहीं करती हों, किंतु समाज के विचार लगभग वही हैं बल्कि पहले तो लड़की की शादी नहीं हो रही तो उसके माता-पिता से दबे-ढँके स्वर में पूछा जाता था, पर अब तो सीधे लड़की से पूछ लिया जाता है - 'भई मिठाई कब खिला रही है? क्या बात है शादी-वादी नहीं करनी क्या? या कैरियर तो ठीक है, पर शादी अपनी जगह जरूरी है वगैरह...। तो ‍परिवार तो फिर भी ठीक है, समाज में नजरिया लगभग वहीं है, यही हाल बेकार लड़के का भी है।'

* आपकी कहानियों पर बेहतरीन टीवी सीरियल बन चुके हैं। वैसे सीरियल अब नजर नहीं आ रहे। निर्माता की कमी है या बेहतर लिखने वालों की।
- निर्माताओं को अच्छे साहित्यकारों की जरूरत नहीं। साहित्य से उनका कोई लेना-देना नहीं। उन्हें मसाला चाहिए जो दर्शकों को बाँधे रख सके। आज निर्माता बदलाव चाहते हैं वो बदलाव मैं अपने लेखन में नहीं ला सकती और लाना चाहती भी नहीं। अब जो सीरियल आ रहे हैं, यदि आप देखती हैं तो बहुत अच्छे से पहले के सीरियलों से तुलना कर सकती है। अच्छा साहित्य लिखने वाले तो हैं, पर अब निर्माताओं को शायद उनकी जरूरत नहीं।

* विदेशी भाषाओं में अनुवादित रचनाओं का प्रतिसाद कैसा मिलता है? मेरा मतलब है, वहाँ का कल्चर यहाँ से बिल्कुल भिन्न है
- हाँ है तो सही। एक बार एक जापानी साहित्यकार ने मुझसे पूछा कि आपकी कहानी में एक जगह रतलामी सेंव का जिक्र है। मुझे कश्मीरी सेव के बारे में तो पता है परंतु ये रतलामी सेंव किसे कहते हैं, समझ नहीं पाया। अँग्रेजी अनुवादों का प्रतिसाद अच्छा है।

* लेखन में स्त्री विमर्श जैसा कुछ है? क्या लेखक को जेन्डर में बाँट सकते हैं?
- सोचकर तो नहीं लिखती कि स्त्री विमर्श पर ही लिखूँ, किंतु लेखन स्वत: ही स्त्री के इर्द-गिर्द आ जाता है। जेंडर के आधार पर सोचकर नहीं लिखा जाता। वैसे भी सच कहूँ तो स्त्री विमर्श का बहुत गहरा अर्थ नहीं निकाल पाती। बस लेखन-लेखन है और स्त्री अपने आप में एक बड़ा विषय है।

* वैसे तो कहते हैं कि 'पुरुष की उम्र उसे महसूस होती है, स्त्री को अपनी नहीं। फिर भी इस उम्र में लेखन कितना सहज लगता है?'
- इस उम्र में भी लेखन सहज है। दाल रोटी उससे जुड़ी नहीं है। (फिर हँसकर कहती हैं) उम्र से बूढ़ी महसूस नहीं करती। सारे शौक अभी बरकरार है। फिर चाहे वह कुछ खास कुकिंग हो, लिखना हो या कुछ ओर।(फिर धीमे से मुस्कुराकर हाथों को मूवमेंट देती हैं जो वे सामान्यत: नहीं करती) उम्र का कुछ नहीं। अभी भी बराबर लिख रही हूँ।

* तो अब आत्मकथा लिखने के बारे में नहीं सोचतीं?
- नहीं रे! क्या आत्मकथा लिखना। कौन पढ़ेगा? (लेकिन जब आग्रह किया कि नहीं आप लिखिए, हम पाठक आपके बारे में विस्तार से जानना चाहते हैं) तब बहुत सोचकर बोलीं - देखती हूँ, लिखूँगी तो तुम्हें अवश्य बताऊँगी।