शून्य की शिलाओं से- टकराकर ऊब गई, रंगहीन चाह नए रंगों में डूब गई, कोई मन- वृंदावन, कहाँ तक पढ़े निर्गुन।
खेतों से- फिर फैली वासंती बाँहें, गोपियाँ सुगंधों की, रोक रही राहें, देखो भ्रमरावलियाँ - कौन-सी बजाएँ धुन। बाँसों वाली छाया देहरी बुहार गई, मुट्ठी भर धूल, हवा, कपड़ों पर मार गई, मौसम में- अपना घर भूलने लगे पाहुन।