वो दीये क्यों बुझाके रखता था
ग़ज़ल
ज्ञानप्रकाश विवेक तमाम घर को बयाबाँ बनाके रखता थापता नहीं वो दीये क्यों बुझाके रखता थाबुरे दिनों के लिए उसने गुल्लकें भर लींमैं दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता थावो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों !इसी बहाने गुलों को डराके रखता थानदी का क्या पता इस तरह दिल बहल जाएमैं उसपे कागजी कश्ती बनाके रखता थामेरे फिसलने का कारण भी है यही शायदकि हर कदम मैं बहुत आजमा के रखता थाहमेशा बात वो करता था घर बनाने कीमगर मचान का नक्शा छुपाके रखता थान जाने कौन चला आए वक्त का माराकि मैं किवाड़ से साँकल हटाके रखता थावो संगसार न होता तो और क्या होताहुजूरे-खास में सिर को उठाके रखता था।