मंगलवार, 15 जुलाई 2025
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छोड़ कर जगत के बंधन !

हिन्दी कविता
गोपाल बघेल 'मधु'
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा
(मधुगीति १७०६२४ अ)
 
छोड़ कर जगत के बंधन, परम गति ले के चल देंगे,
एक दिन धरा से फुरके, महत आयाम छू लेंगे !
 
देख सबको सकेंगे हम, हमें कोई न देखेंगे,
कर सके जो न हम रह कर, दूर जा कर वो कर देंगे !
सहज होंगे सरल होंगे, विहग वत विचरते होंगे, 
व्योम बन कभी व्यापेंगे, रोम में छिप कभी लेंगे !
 
चित्त हर चेतना देंगे, चितेरे हम रहे होंगे,
गोद हर सृष्टि कण ले के, वराभय कभी दे देंगे !
सुभग श्यामल सुहृद कोमल, हमारे आत्म-भव होंगे,
विदेही स्वदेही विचरित, प्रयोजन प्रभु 'मधु' होंगे !