शकुंतला सरुपरिया 
	पराया धन क्यों कहते हो, तुम्हारा ही खजाना हूं 
				  																	
									  
	जीने दो कोख में मुझको, मैं जीने को बहाना हूं 
	 
	दरों-दीवार दरवाजे, हर आंगन की जरूरत हूं 
				  
	मोहब्बत हूं मैं देहरी, मैं खुशियों का फसाना हूं 
				  
	कहीं बेटी, कहीं बहाना, कहीं बीवी, कहीं हूं मां, 
	मैं रिश्तों का वो संदल हूं, मैं खुशबू का घराना हूं 
				  						
						
																							
									  
	 
	मैं मेहमां हूं, परिंदा हूं, पड़ोसी का वो पौधा भी 
				  																													
								 
 
 
  
														
																		 							
																		
									  
	क्यूं माना मुझको बर्बादी, गमों का क्यूं तराना हूं 
	 
				  																	
									  
	सुबह हूं, रात हूं, गुल हूं, जमी मैं, आसमा भी मैं
	मैं सूरज-चांद-तारा हूं, मैं दुनिया, मैं जमाना हूं 
				  																	
									  
	 
	दुआ हूं मैं ही तो रब की, मैं भोला हूं मैं ही भाबनम 
				  																	
									  
	लहर हूं मैं, समंदर हूं, मैं गुलशन, मैं वीराना हूं 
	 
				  																	
									  
	हज़ारों साल-ओ-सदियां मेरी बेनूरी को रोए 
	दीदावर कोई तो कहते मैं तो बेटी का दीवाना हूं