उस मजदूर का घर
काव्य-संसार
कभी देखा है उस मजदूर का घरजो हमारे सपनों का आशियाँ बनाता है ,रिसती छत, टूटती दीवारें, यही कुछ उसके हिस्से में आता है, कभी देखी है उस किसान की रसोई जो हमारे लिए अनाज उगाता है, मोटा चावल,पानी भरी दाल यही कुछ उसके हिस्से में आता है, इस समाज का ढाँचा ही कुछ ऐसा है,चाहकर भी कोई कुछ न कर पाता है,मेहनत तो आती है किसी और के हिस्से और मुनाफे के लड्डू कोई और खाता है।