चले जाना नहीं, नैन मिला के सैंया बेदर्दी: गीत सुन लता के पांव छूने को जी करता है | बड़ी बहन
हुस्नलाल भगतराम ने कमाल यह दिखाया है कि किरदार की उम्र को आवाज में समेटने का सफल प्रयास किया है
इस गाने में दर्द का अनोखा पुट है
संगीतकार इसका संगीत चटकदार और ठुमकी प्रधान रखते हैं
मुमकिन है आज की पीढ़ी को इस गीत में कोई खास बात नजर न आए
लता जॉन कीट्स की तरह अतिसंवेदनशील कवि हैं और दिलीप कुमार की तरह शब्द और आवाज के असरदार मेल की आश्चर्यजनक प्रस्तुति हैं। आप सबने लता का यह गाना सुना है और दर्जनों बार सुना है। मैंने कभी नहीं सोचा था कि इस साधारण से सीधे-सादे गाने पर टिप्पणी लिखनी पड़ेगी। इसे टालता ही आया था अब तक, क्योंकि खास बात ऐसी नजर नहीं आ रही थी कि इस पर रुक-थमकर कुछ कहा जाए।
पर धीरे-धीरे यह गाना 'हॉन्ट' करता गया और मुझे अपने आपसे पूछना पड़ा कि यह गाना इतना अपील क्यों करता है? कहां, किस वजह से बेधता है यह? और थमकर जब अपने पर और गीत पर निगाह डाली तो दरीचे खुलते चले गए।
पहली बात, यह सन् 1949 का गीत है, जब लता की आवाज किशोरियों जैसी थी। फिर फिल्म में यह गीत क्योंकि कमसिन छोकरी पर आता है इसलिए हुस्नलाल भगतराम इसे जानबूझकर लता से 'कमसिन' आवाज में गवाते हैं। इससे यह तस्वीर बनती है कि गांव की कोई भोलीभाली गूजरी अपने प्रीतम से यह गीत गा रही है और यह कहते हुए कि 'नन्हीं सी जान हूं मैं कहो न जलाओगे' अपील कर रही है कि मुझे छोड़कर मत जाना।
यहां लता और उनसे पहले हुस्नलाल भगतराम ने कमाल यह दिखाया है कि किरदार की उम्र को आवाज में समेटने का सफल प्रयास किया है। इन्हीं लता ने फिल्म 'बड़ी बहन' के दूसरे गानों में ऐसी आवाज नहीं बनाई। एक जगह बच्ची (उम्र में बच्ची नहीं) गाती महसूस होती है और दीगर जगहों पर विकसित युवती।
गीत की दूसरी खूबी यह है कि संगीतकार इसका संगीत चटकदार और ठुमकी प्रधान रखते हैं जिससे नाच-नाचकर गाने और ठुमकने का रंग सीधा महसूस होता है अर्थात यह गाना अपनी शिगूफ्तगी (खिलेपन) के कारण हम में सीधा उतर जाता है। तीसरी खूबी यह है और इसी खूबी के लिए यह लेख लिखा जा रहा कि इस गाने में दर्द का अनोखा पुट है। धुन बड़ी प्रवाहमयी, नृत्यप्रधान और खुशमिजाज है।
यह कमाल लता का है और कहने दीजिए कि यह काम इस अजीबोगरीब औरत से अपने आप होता है अर्थात लता के भीतर प्रचंड संवेदनशीलता की जाने कौन-सी कला है कि उन्होंने गीत की इबारत बांची नहीं कि अर्थ अपने तमाम मूड और रसमयता के साथ उनकी आत्मा में उभर आते हैं। इसे यूं कहा जाए तो बेहतर होगा कि लता पहले पहल जॉन कीट्स की तरह हाईपर सेंसटिव (अतिसंवेदनशील) कवि हैं और फिर दिलीप कुमार की तरह शब्द और आवाज के असरदार मेल की आश्चर्यजनक प्रस्तुति हैं।
लता के इस स्वरूप को न समझना गायिका के पहले की बुनियादी लता को भूल जाना है। लता की खूबी यही है कि उन्होंने शब्द पढ़े नहीं कि अर्थ उनके अंदर भावना बनकर खिल आता है। मिसाल के लिए नौजवान के गाने 'ठंडी हवाएं लहराके गाएं' में उसका 'ठंडी' शब्द का प्राथमिक उच्चारण सुनिए, आपको सिहरन की चुटकी महसूस होने लगेगी। तो इस गीत को यानी 'चले जाना नहीं' को लता जब गाती हैं तो पृष्ठभूमि में दर्द भी सिरजते जाती हैं, क्योंकि गीत की धुन चाहे जितनी चपल हो, भावार्थ में यह दर्द ही है कि प्रेमी 'नन्ही सी जान' को छोड़कर न चला जाए।
अब इस समझ के साथ इस गीत को सुनिए। लता के पांव छूने को जी करता है। आंखें भरने लगती हैं कि सन् 1949 की इस सीधी-सादी लड़की ने कैसे, सिंगिंग बूथ के अंदर दुनिया से कटकर, अपने घरबार का दुख समेटकर, अपनी स्वभावगत तन्हाई में यह गीत गा दिया और उसकी किरदारा को उभार दिया।
आदि कवि वाल्मीकि क्रौंच पक्षी के वध के बाद किसी घटना से इतने उद्वेलित होते तो इसी घटना से कि मितभाषी, अंतर्मुखी लता ने एक साथ शोख और दर्दी गीत गा दिया था और रेकॉर्डिंग के बाद तुरंत कटकर घर चली गई थीं, जैसे जज्बात उनके जीवन में है ही नहीं।
लता, उफ्! संवेदशीलता का सागर हैं और आप चाहे तो प्रयोग करा देखिए। भारत की कोई भी अन्य गायिका आज भी इस अदने से गीत को इतनी अपील के साथ नहीं गा सकती। मैंने लता के सैकड़ों कठिन और भव्य गीत सुने हैं, पर हुस्नलाल भगतराम जैसी विभूतियों का लोहा मानते हुए इस गीत के कारण लताजी के आगे ढेर हो जाता हूं। अब मेरे लिए यह लता के कठिन गीतों में से है- बशर्ते आप यह समझ रहे हैं कि मैं असल में क्या कह रहा हूं।
गीत को पढ़िए। इसे राजेन्द्र कृष्ण ने लिखा था!
चले जाना नहीं/ चले जाना नहीं
नैन मिला के/ हाय सैंया बेदर्दी, सैंया बेदर्दी-2
मेरी कसम तुम मेरे ही होके रहना-2
दिलों की यह बात, किसी ओर से नहीं कहना-2
बैरी दुनिया से
बैरी दुनिया से रखना छिपाके/ हाय सैंया बेदर्दी, सैंया बेदर्दी,
चले जाना... बेदर्दी।
नन्ही-सी जान मेरी, कहो न जलाओगे-2
छोड़के अकेली मुझे, चले तो न जाओगे-2
भूल जाना नहीं/ भूल जाना नहीं,
दिल में बसाके/ हाय सैंया बेदर्दी, सैंया बेदर्दी चले जाना नहीं... बेदर्दी!
मुमकिन है आज की पीढ़ी को इस गीत में कोई खास बात नजर न आए, क्योंकि उनकी संवेदना और समझ ही अलग किस्म की हो चुकी है। पर जो लोग पृष्ठभूमि में पैठना पसंद करते हैं और गाने के पीछे भी एक और गाना सुनते हैं, उन्हें इस अकेले गीत में लता का यह दोहरा काम छू जाएगा। उन्हें यह कल्पना भी हो सकेगी कि अभी-अभी 4-5 दशक पहले हमारे बाप-दादों का हिंदुस्तान कैसा था। अपना हिंदुस्तान, हमारा भारतवर्ष। उन्हें आभास हो सकेगा कि कुछ तो था, जो हमारा अपना था- गांव/ सीधे-सादे लोग/ पनघट/ भोली ग्राम बाला/ परदेस जाता भोलाराम/ गांव में आया शहरी बाबु/ ढफ डिमकी या चिमटे पर बजते सरल ग्राम गीत। और तब शायद उनका भी बरगलाया हुआ मन एक पल को ठिठक सके।
ऐसा हो जाए तो ठीक है वर्ना
गोरी सोई सेज पर, मुंह पर डाले केस
चल कंता घर आपने, रैन भई बहुं देस।
(अजातशत्रु द्वारा लिखित पुस्तक 'गीत गंगा' से साभार, प्रकाशक: लाभचन्द प्रकाशन)