मंगलवार, 5 नवंबर 2024
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अनवर जमालपुरी : खामोश हो गई मुशायरे की आवाज़...!

राहत इंदौरी को कराया था एमए

अनवर जमालपुरी : खामोश हो गई मुशायरे की आवाज़...! - Poet Anwar Jalalpuri, Anwar Jalalpuri, Rahat Indori
- हिदायतउल्लाह खान
मुशायरे की कामयाबी में अगर शायर, ग़ज़ल, नज़्म और अच्छे सामईन दरकार है तो अच्छे नाज़िम के बिना भी मुशायरा कामियाब नहीं हो सकता। नाज़िम को मुशायरे का कप्तान भी कह सकते हैं और अनवर जलालपुरी ने अपनी कप्तानी में कई मुशायरों को कामयाब बनाया है, लेकिन अब मुशायरे का डायस मायूस खड़ा अपने उस कप्तान को याद कर रहा है। उसे पता है उसने जो खोया है, वो वापस नहीं आने वाला है।

अनवर जलालपुरी के पास बात कहने का सलीका था, लफ्ज़ थे, लहज़ा था और वो जानते थे, लफ्ज़ कैसे इस्तमाल किए जाते हैं। जब भी वो बोलना शुरू करते तो लगता जैसे लफ्ज़ तो उनके मुरीद हैं और दौड़े चले आते हैं। कब कहां, क्या ओर कैसे कहना है, इसी उस्तादी ने उन्हें हिंदुस्तानी नहीं, दुनिया का सबसे बड़ा नाजिम बना दिया था।
 
वो सिर्फ अच्छे नाज़िम नहीं, शायर भी थे और फिर बहतरीन इंसान भी, जो कहने की ताकत रखते थे और उनका मिजाज़ भी सूफियाना था, पर जज़्बाती थे। अभी इंदौर में जो शब-ए-सुखन मुशायरा हुआ, उसकी निज़ामत उन्होंने ही की थी और जब मुशायरा खत्म हुआ तो अनवर जलालपुरी नाराज थे और कहने लगे मुझे तो आना ही नहीं चाहिए था, मेरी बेइज्जती हुई है। मैंने यहां के लिए बहुत मेहनत की थी।
 
अचानक उनका रुख समझ नहीं आया, फिर वो कहने लगे आखिर कोई मुझे बताए मुशायरे की निजामत कर कौन रहा था, मैं कर रहा था, मुनव्वर राना कर रहे थे या राहत इंदौरी। मेरी बात मानी नहीं गई, मुझे इसका अफसोस है और मैं यहां नहीं आऊंगा। किसी को पता था, उनकी ये नाराज़गी सच साबित होगी और वो अब कभी नहीं आएंगे। 
 
असल में मुशायरा इंतजामिया ने तय किया था सबसे आखिर में राहत इंदौरी को पढ़ना है, मुशायरे की सदारत मुजफ्फर हनफी कर रहे थे। जब अनवर जलालपुरी ने इस तरतीब का इजहार किया तो मुनव्वर राना नाराज हो गए। उनके सुर से सुर राहत इंदौरी ने भी मिला दिया और कह दिया जो मुशायरे के सद्र हैं, वही सबसे आखिर में पढ़ेंगे। बस इसके बाद तो जलालपुरी खामोश हो गए थे और फिर निजामत कर ही नहीं पाए। तब लग रहा था, ये नाराजगी और खामोशी वक़्ती है, लेकिन क्या पता था, हमेशा की बन जाएगी।
 
उनकी बेचैनी कुछ और थी, क्योंकि कुछ दिन पहले ही वो लंदन से लौटे थे। जवान बेटी को दफनाने गए थे, जिसे कैंसर हो गया था, बीमार थीं और अनवर जलालपुरी के पहुंचने के अगले दिन ही उनका इंतकाल हुआ। दो बच्चे भी हैं। इस सदमे के बाद वो हिंदुस्तान लौटे। पुणे में मुशायरा पढ़ने के बाद इंदौर आए थे और कह रहे थे जिंदगी कुछ रुकने नहीं देती है और मुशायरे की तरफ जल्दी इसलिए लौट आया कि सब कुछ भूलना चाहता हूं।
 
एक दिन पहले आ गए थे और राहत इंदौरी के घर पहुंचे थे, ताकि उनके भाई आदिल कुरैशी के इंतकाल का बैठना भी कर लें, पर वो अपना दर्द भी साथ लिए घूम रहे थे और ये दर्द जल्द ही फूट गया। राहत इंदौरी से याद आया, उनका और अनवर जलालपुरी का याराना बहुत मजबूत था और शायद कम ही लोग जानते हैं, अनवर जलालपुरी के घर रहकर ही राहत इंदौरी ने एमए किया था, जिसका ज़िक्र राहत इंदौरी करते हुए कहते हैं- मैंने बीए तो कर लिया था, एमए करना चाहता था और जब उसका इजहार मैंने अनवर भाई के सामने किया तो उन्होंने अवध यूनिवर्सिटी से मुझे एमए करा दिया, उन्हीं के वहां रहकर मैंने यह सब किया था। उनका जाना वो खला है, जिसे अब हमेशा साथ ही रखना पड़ेगा। वो सिर्फ अच्छे नाज़िम, शायर ही नहीं, दोस्त और भाई भी थे। हमने मुशायरे की आवाज खो दी है।
 
जलालपुरी के सिर्फ दिल पर हमला नहीं हुआ, दिमाग भी तड़क गया और सारी कोशिशें नाकाम हो गई। जिस आवाज में मुशायरों को ताकत दी है, शायरों का हौसला बढ़ाया है और निजामत को नए आयाम दिए हैं, अब वो डायस पर कभी दिखाई नहीं देगी। अनवर जलालपुरी अंदर से तो तभी टूट गए थे, जब वो लंदन से लौटे थे। उनका शेर भी है - कोई पूछेगा जिस दिन वाकई ये जिंदगी क्या है... जमीं से एक मुट्ठी खाक लेकर हम उड़ा देंगे।
 
उन्होंने कई मुशायरे बनाए हैं और अभी हिंदुस्तान में तो उनके बराबरी का कोई नाजिम नहीं था। फिर उनकी पहचान सिर्फ नाजिम की भी नहीं रही थी, शायर भी वो अच्छे थे। हालात पर उन्होंने हमेशा अपनी बात कही और उसे शायरी का जरिया भी बनाया - अब नाम ही नहीं, काम का कायल है जमाना... अब नाम किसी शख्स का रावण न मिलेगा। एक शेर है - मैंने लिक्खा है उसे मरियम और सीता की तरह... जिस्म को उसके अजंता नहीं लिक्खा मैंने।
 
अभी तो वो इसलिए भी सुर्खियों में थे कि गीता पर उन्होंने बड़ा काम किया, उसको शायरी में ढाल दिया था और इसको लेकर उनके शो भी हो रहे थे। उन्हें बुलाया जाता है, गीता पढ़वाई जाती और गजल में ढली गीता खूब पसंद की जा रही थी।
 
जब इस मामले में अनवर जलालपुरी से बात हुई तो उनका कहना था- अंदर से आवाज आती थी, कुछ नया करना है। मुझे पढ़ने का बहरहाल शौक रहा है। कुरान के साथ मैंने गीता को भी पढ़ा है। बाइबिल भी मेरी लायब्रेरी में मौजूद है और मुझे अहसास हुआ कि सारी किताबें एक ही अंदाज में बात करती हैं और गीता ने मुझे खासा मुत्तासिर किया है।
 
जो बातें कुरान में हैं, उसका सार गीता में भी मौजूद है। उसके बाद जरूरी हो गया था कि इसे शायरी में भी बदला जाए और मैंने ये मुश्किल काम कर दिया, पर जब आप इस तरह के काम करते हैं तो वो अपने आप हो जाते हैं। कोई ताकत है, जो इसे करा लेती है। उर्दू में ढले गीता के श्लोक किस तरह बन पड़े हैं - हां, धृतराष्ट्र आंखों से महरूम थे... मगर ये न समझो कि मासूम थे। इधर कृष्ण अर्जुन से हैं हमकलाम... सुनाते हैं इंसानियत का पैगाम। अजब हाल अर्जुन की आंखों का था... था सैलाब अश्कों का रुकता भी क्या। बढ़ी उलझनें और बेचैनियां... लगा उनको घेरे हैं दुश्वारियां। तो फिर कृष्ण ने उससे पूछा यही... बता किससे सीखी है ये बुजदिली।
 
अनवर जलालपुरी का सियासत में भी दखल था और मायावती के वो करीब रहे। जब वो मुख्यमंत्री थीं तो इनके पास कैबिनेट मंत्री का दर्जा था और इन्होंने काम भी किए, लेकिन अखिलेश सरकार के आते ही वो पीछे हो गए, क्योंकि कोई गुंजाइश बची नहीं थी, पर उनका असल काम तो शायरी था, मुशायरे की वो आबरू थे। वैसे भी उन्होंने लंबा अरसा यहां गुजारा था और उनका शेर है - मुसलसल धूप में चलना, चरागों की तरह जलना... ये हंगामे तो मुझको वक्त से पहले थका देंगे। जाते-जाते अनवर जलालपुरी कह गए थे... प्यारे! तुम से नाराज तो हूं पर मुझे पता है तुम बुलाओगे और मैं मना नहीं कर पाऊंगा...!