डॉ. राहत इंदौरी और डॉ. नरेंद्र श्रीवास्तव ‘अतुल’। दुआ कीजिए इंदौर की इन दो अज़ीम शख़्सियतों की सेहत और तंदुरुस्ती के लिए। दोनों ही इंदौर की शान। दोनों ही अदब की दुनिया के रोशन चिराग़। मध्यप्रदेश में कई परिवारों के आफ़ताब। दोनों ही अपने-अपने फ़न के मास्टर और सुपरस्टार। इस बार इंदौर की संक्षिप्त यात्रा में इन दोनों ही नामवरों के साथ मुलाकात का अवसर हासिल हुआ। राहत साहब से उनके परिवार से जुड़ी एक शादी में मुलाक़ात हुई तो वहीं साहित्यकार नरेंद्र ‘अतुल’ जी से उनके घर मनीषपुरी में। लेकिन मिलकर हुआ बेचैन ये दिल !
मेरा दिल इन दोनों ही हस्तियों से मिलकर जितना खुश हुआ, उतना ही बेचैन भी। असल में दोनों ही 65 प्लस के दौर से गुज़र रहे हैं। उम्र का तकाज़ा और साथ चल रही बीमारियों का सफ़र दोनों के रास्तों में खड़ा है। राहत साहब के लिए बहुत देर तक खड़े रह पाना या पहले जैसी रफ़्तार से चलना, सफ़र करना मुश्किल हो रहा है, वहीं श्रद्धेय नरेंद्र अतुल जी कमर की तकलीफ़ की वजह से कई दिनों से बिस्तर पर हैं। कमाल तो ये है कि दोनों अपनी तकलीफ़ों के बावजूद पूरी ऊर्जा और हौसले से लबरेज़ हैं। खुलकर ज़िदंगी पर हंस रहे हैं और बहुत खूब लिख रहे हैं।
बेतरतीब ज़िदंगी जिस्म पर भारी राहत साहब से जब मुलाक़ात हुई और उनके बार-बार उठकर बैठ जाने की हालत पर जब मैंने सवाल किया तो कहने लगे, ‘बड़ी बेतरतीब ज़िदंगी जी है मैंने, एक रात में तीन-तीन मुशायरे पढ़े ! उस बेतरतीबी का असर अब जिस्म पर भारी पड़ रहा है। डॉक्टर ने कहा है, हर वक्त सफ़र में किसी को अपने साथ रखिए। ताकि वक्त ज़रूरत पर मेडिसीन वगैरह मिल सके..लेकिन सफ़र तो सफ़र है..आप कितने इंतज़ाम कर लीजिए..कुछ ना कुछ गड़बड़ हो जाती है..अब फिर मुशायरे के लिए जालंधर जाना है...‘ इसी सवाल पर अतुल साहब ने अपने अंदाज़ में हंसते हुए कहा..
पत्रिकाएं हमने देखी सबकी मगर
अपनी क़िस्मत ना बांच पाये
कर्म का फल इसी योनि में मिलता है
बात इतनी सी ना जांच पाये
कर्म का सिद्धांत बड़ा दुष्कर है
टेढ़ा आंगन बचा ना नाच पाये
छल-कपट से सजी सारी दुनिया
फिर भी नहीं हम सांच पाये
मर्ज़ की मार के बावजूद दोनों की इस जीवंतता से मैं हैरत में रहा। मुलाकात के दौरान दोनों ने इस बात का अहसास होने नहीं दिया कि वो तकलीफों से दो चार हैं। नरेंद्र अतुलजी अपनी कविताओं के बीच उस दुनिया में पहुंचे..जो उनकी मसरूफ ज़िदंगी का हिस्सा रही..बताने लगे..कि कानून की पढाई करते वक्त मोहम्मडन लॉ को ही क्यों उन्होंने पढ़ना पसंद किया .. अपने अफ़सर बनने का किस्सा सुनाया...बताया कि कैसे भवानी मिश्र के ‘सतपुड़ा के घने जंगल’ कविता की लय ‘तामिया के घने बादल’ की प्रेरणा बनी..जब उन्होंने बिस्तर पर लेटे हुए ही पूरे जोश से यही कविता पढ़ी ..यकीन जानि..लगा मैं किसी कवि सम्मेलन में पहुंच गया..
तामिया के घने बादल
दूध जैसे श्वेत बादल
धूम जैसे श्याम बादल
फुहारों में घुले बादल
धूप में अधजले बादल
रूप बादल,धूप बादल
हो गए मनचले बादल
शूल जैसे चुभे बादल
उठे बादल,गिरे बादल
रूके बादल, मिले बादल
सांझ घिरती ढले बादल
चांदनी में गले बादल
मिश्रियों के डले बादल
रूई से गुलगुले बादल
कहो कैसे बने बादल
तामिया के घने बादल
नरेंद्र जी हिंदी ही नहीं उर्दू और फारसी की जानकारियों के परवरिश में पले बढ़े..कवि पिता और कविता प्रेमी मां के संस्कार उन्हें मिले...सात साल की नन्ही उम्र से ही कविताएं लिखने लगे.. कई साहित्यिक आयोजनों का हिस्सा बने और भोपाल में गीतकार शायर जावेद अख़्तर साहब जैसे दिग्गजों से राब्ता रहा..मैं उन्हें अदब से एक स्टूडेंट की तरह सुन रहा था वो बता रहे थे..आख़िर ग़ज़ल के दो मिसरों में क्या होना चाहिये..
’फिक्र मोमिन की, ज़बां दाग़ की, ग़ालिब का बयां, मीर का रंगे सुखन हो तो ग़ज़ल होती है सिर्फ़ अल्फाज़ ही मायने पैदा नहीं करते, जज़्बा-ए-ख़िदमते-फ़न हो तो ग़ज़ल होती है।‘
ग़ज़ल की इस परिभाषा के बाद वे कहने लगे, एक रचनाकार के साथ उसका ज्ञान, संवेदनाएं और तजुरबा कई स्तरों पर अलग-अलग ढंग से काम करता हैं। अध्य्यन बैक ग्राउंड का काम करता है। अपनी रचनाओं के विस्तृत आकाश पर उन्होंने बताया...रामायण, महाभारत, कुरान, बाइबल जैसे धर्म ग्रंथों का अध्ययन और ज़िदंगी के अनुभवों ने मेरी कविता संसार को शब्द और विस्तार दिया.. इस संदर्भ पर उन्होंने फौरन अपने संग्रह ‘अतुल काव्य’ से एक कविता सुनाई..
नल और नील पहुंचे
इंजीनियर के दफ़्तर
और कहने लगे
हम हैं रामचंद्र के ज़माने के कॉन्ट्रैक्टर
तुम्हारे ठेकेदार तो
सीमेंट में राख मिलाकर
पुल बनाते हैं
हम तो बिना सीमेंट के पत्थर
समुद्र में तैराते हैं
सच! नहीं लगा एक पल को भी..कि अतुल साहब दवाइयों की लंबी टेबल के सामने, डॉक्टरों की राय, बेटे प्रतीक श्रीवास्तव ( प्रोफ़ेसर और सीनियर जर्नलिस्ट ) और परिजनों की तीमारदारी के बीच कई दिनों से बिस्तर पर लेटे हैं..रात और दिन आंखों में, यादों में गुज़ार रहे हैं...वो डूब कर कविताएं सुनाते रहे..ज़ोर-ज़ोर से हंसते हुए...जीवन का फलसफा बयान करते रहे..
राहत साहब के साथ कितनों की सेल्फी !
राहत साहब से मेरी बातें दो किस्तों में हुई...पहले इंदौर के रिदम गार्डन में 8 जनवरी 2017 की शाम मेरे पत्रकार मित्र आदिल कुरैशी की बेटी के निकाह के वक्त..और बाद में उनके बुलाने पर अगले दिन अनूप नगर वाले घर पर... शादी में राहत साहब बेहद थके नज़र आ रहे थे, शादी के वक्त कई लोग उनके साथ सेल्फी और फोटो सेशन के लिए उन्हें कुर्सी से उठा-बैठा रहे थे.. पैरों की तकलीफ़ और थकान के बावजूद राहत साहब सबके साथ मुस्कुराहट कई टेक-रीटेक के साथ तस्वीरें खिंचा रहे थे।...इस लाइट साउंड एक्शन ने मुझे रिएक्ट करने पर मजबूर किया.. मैंने राहत साहब से पूछ ही लिया, राहत साहब, आपके साथ लोग इस तरह टूटकर सेल्फी लेते रहते हैं, आपको गुस्सा नहीं आता ? राहत साहब चौंके, देखा, मुस्कुराए..फिर कहने लगे, क्या किया जा सकता है, सिर्फ इतना की जिन्हें भी अच्छा लगाता है, उनकी खुशी में शरीक हो जाता हूं..। मुस्कुरा देता हूं....उनके कहने के दौरान भी मोबाइल के कैमरे चमक रहे थे !
यू ट्यूब पर चल रहा 24x7मुशायरा
टुकड़ों-टुकड़ों में राहत साहब से बातें चलती रहीं... मैंने कहा, आपका मुशायरा आजकल घर-घर में सुना जा रहा है। यू ट्यूब पर आपके ऐसे मुशायरे भी सुने जा रहे हैं, जिनके बारे में हम सोचते थे कि पता नहीं, वो कभी सुनने या देखने मिलेंगे भी या नहीं ? राहत साहब कहने लगे, हां, ऑनलाइन ऑडियंस अलग है। यू ट्यूब का ये फायदा है। मैंने उन्हें बताया...हम जैसे कई लोग जो आपकी महफिलों से दूर हैं.. आपके अमेरिकी, दुबई या मुंबई, नासिक, बुल्ढाना, यूपी-दिल्ली के मुशायरे वहीं पर देखते हैं। जब मर्जी आए मोबाइल पर आपको याद कर लेते हैं..शादी की सर्द रात आग तापते राहत साहब के चेहरे पर दर्द राहत की हल्की-सी मुस्कुराहट दिखी..फिर एक ब्रेक आया..जब बिन्नी को नम आंखों से दुआ देकर हम विदा करने लगे..
ऑटोबॉयोग्राफी कब आएगी राहत साहब?
शादी की रस्मों और सेल्फि के बीच जब भी मौका मिलता..मैं अपने इस अज़ीम फनकार से बातें करने लगता...एक दफ़ा मैंने पूछ लिया...आपकी ऑटोबॉयोग्राफी आना चाहिए..आ रही है क्या ? उससे नई जनरेशन को ये मालूम होगा...आपके चाहने वालों को भी ..कि आख़िर एक शायर या कवि किस बला का नाम है...! कैसे ज़िदंगी उसकी परवरिश करती है..किन तजुरबों से वो गुज़रता है..??? राहत साहब कहने लगे..देवी अहिल्या समेत चार यूनिवर्सिटीज़ में मुझपर काम हुआ है..शोध हुए हैं..काफी कुछ तो आ गया है..लेकिन वो बातें नहीं जिनके बारे में आप पूछ रहे हैं..असल में पुरानी बातें मुझे अब उतनी याद नहीं रह गई हैं..अब अगर लिखेंगे भी तो जिस्म का ढांचा तो खड़ा हो जाएगा..लेकिन उसमें शायद रूह ना होगी..मैंने कहना मुनासिब समझा..’अगर आप किसी करीबी को साथ लेकर जो बातें याद आती हैं..वो बताते रहें..तो शायद कोई रास्ता निकल जाये..’
घर पर लेने आओ ‘लम्हे-लम्हे’
बातों-बातों में राहत साहब ने मुझे सरप्राइज़ गिफ्ट दे दिया..अचानक बोले... तुम घर पर आओ..तुम्हें एक किताब देना है..’लम्हे-लम्हे’ नाम से एक किताब मुझपर लिखी गई है... क़िताब में तुम्हारा लिया एक इंटरव्यू भी है...तुम्हें वो मैं देना चाहता हूं...मैं हैरान हुआ...मुझे याद भी नहीं था...मेरे लिए उनकी ये बात किसी तोहफे से कम नहीं मालूम हुई..अगले दिन ‘लम्हे-लम्हे’किताब लेने के लिये मैं उनके घर पर था..घर पर एक बार फिर लिखने-पढ़ने सुनने-सुनाने की बात चली.. पचास साल के शायरी का करियर और एक तिहाई दुनिया में अपने बेशक़ीमती शे’रों से नवाज़ने वाले डॉ. राहत इंदौरी से एक बार फिर मैं मुखातिब था..इस दौरान शब्दों के इस जादूगर से भी उर्दू-हिंदी साहित्य और रचनाकर्म की बेशकीमती जानकारियां मिलीं.. और ऐसा तब हुआ..जब 25 साल बाद उन्हें एक बार फिर मुझे भी कुछ सुनाने की इजाज़त मिली...मेरे लिए ये किसी इम्तेहान से कम नहीं था..मैं पढ़ने लगा..
सदी आगे निकल गई धर्म पीछे अटक गया है
मुद्दतों से मेरा मुकद्दर सूली पर लटक गया है
कठमुल्ले लकीर घिस रहे हैं
पढ़े-लिखे पिट रहे हैं
किस दर पर आकर मेरा ये सिर झुक गया है
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आओ हम इतिहास बदल डालें
मन के सब नाम और धाम कर डालें
आओ हम इतिहास बदल डालें
खोद डाली हम सारी क़ब्रें
काम के मुर्दे उखाड़ डाले
आओ हम इतिहास बदल डालें
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हज़ार नग़मे साथ लिये
ज़िदंगी हज़ार जीता हूं
बिखरा हूं यहां वहां
खंडहर-खंडहर बीता हूं
राहत साहब ने ग़ौर सुना..हौसला दिया और कहने लगे...., अब खुद लिखकर अपने तक ना रखिए, पब्लिश होते रहिए। और हां आलोचना के बारे में ना सोचिए, वो बाद की बात है। पाठक महत्वपूर्ण हैं। उनकी प्रतिक्रियाओं पर तवज्जोह दीजिए। मैंने जब बहर,रदीफ़,काफिया की बात की तो कहने लगे ....ग़ज़ल कविता की एक विधा है..कविता में कई विधाएं हैं..वो लिखना भी रचनाकर्म है..बड़ी बात है लिखते रहना... इसके साथ ही राहत साहब ने एक बड़ी बात और कही... ‘दुनिया में कुछ भी बाक़ी नहीं रहता...सिर्फ शब्द और आवाज़ ही रह जाते हैं...” मैं इन लफ्ज़ों को सीने से लगाए...उनसे गले मिला...शुक्रिया कहा, सेहतयाबी की दुआएं दी...और इस सुखनवर के बेशक़ीमती शे’रो को याद करते हुए लौटने लगा...ये मशहूर ग़ज़ल भी मेरे ज़हनो दिल में उनके ही अंदाज़ में गूंजने लगी...
रोज़ तारों की नुमाइश में ख़लल पड़ता है
चांद पागल है अंधेरे में निकल पड़ता है
एक दीवाना मुसाफिर है मेरी आंखों में
वक्त बे वक्त ठहर जाता है चल पड़ता है
रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं
रोज़ शीशों से कोई काम निकल पड़ता है
उस की याद आई है सांसों ज़रा आहिस्ता चलो
धड़कनों से भी इबादत में खलल पड़ता है
(रंगकर्म और सृजनात्मक गतिविधियों से जुड़े रहे सीनियर जर्नलिस्ट शकील अख़्तर का इंदौर से गहरा नाता रहा है। नईदुनिया के साथ ही कई प्रमुख पत्रों में सेवाएं दे चुके हैं। संप्रति: सीनियर एडिटर, इंडिया टीवी, नोएडा,यूपी)