नए कृषि कानूनों को वापस लेने के मोदी सरकार के फैसले को सीधे पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है। अब जब संभवत: विधानसभा चुनाव में 100 से भी कम का समय बचा है तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक से कृषि कानूनों को वापस लेकर किसान आंदोलन से हुए डैमेज को कंट्रोल करने की कोशिश की है। राजनीति के जानकार मोदी सरकार के इस फैसलों को सीधे विधानसभा चुनावों से जोड़कर देख रहे है।
वैसे तो कृषि कानूनों के विरोध में पूरे देश में किसान आंदोलन कर रहे थे लेकिन इसका सबसे अधिक असर पश्चिम उत्तर प्रदेश और पंजाब में दिखाई दे रहा था। पश्चिमी उत्तरप्रदेश में आने वाले लगभग डेढ़ सौ विधानसभा सीटों पर किसान आंदोलन का खासा असर देखा जा रहा था और सियासत के जानकार मान रहे थे कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश सहित पूरे उत्तरप्रदेश में भाजपा को इसकी बड़ी कीमत उठानी पड़ सकती है।
किसान आंदोलन और उसके प्रभाव को करीब से देखने उत्तरप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार मनोज कहते हैं कि किसान आंदोलन के चलते पश्चिम उत्तरप्रदेश में ऐसी स्थिति और समीकरण बन गए है जो भाजपा के खिलाफ जा रहे है। किसान आंदोलन के कारण पश्चिमी उत्तरप्रदेश में एक एंटी बीजेपी का माहौल बन गया है।
जबकि 2017 में पश्चिमी उत्तरप्रदेश में भाजपा ने क्लीन स्वीप किया था। 2017 क विधानसभा चुनाव में मुजफ्फरनगर हिंसा के बाद जो ध्रुवीकरण हुआ था उसका सीधा फायदा भाजपा को मिला था और भाजपा ने पश्चिम उत्तर प्रदेश में तगड़ी जीत हासिल की थी।
पश्चिमी उत्तरप्रदेश में कृषि कानूनों के विरोध में हुए किसान आंदोलन और उसके राजनीतिक असर की धार को कुंद करने की जिम्मेदारी जब भाजपा के चाणक्य समझे जाने वाले गृहमंत्री ने अमित शाह ने संभाली तब इस फैसले को सियासी गलियारों में शाह के सामने एक बड़ी चुनौती के रूप में देखा गया। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृषि कानूनों की वापसी का एलान कर बहुत कुछ अपने 'सिपाहसालार' और भाजपा की राह को आसान करने की कोशिश की है।
दरअसल उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में अमित शाह ब्रज और पश्चिमी उत्तरप्रदेश की कमान खुद अपने हाथों में संभालेंगे। शाह बूथ कार्यकर्ताओं को जीत का मंत्र देने के साथ किसान आंदोलन की धार को कुंद करने का काम करेंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कृषि कानूनों की वापसी के फैसले का स्वागत करते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने इसे स्टेट्समैनशिप बताया। अमित शाह ने लिखा कि पीएम नरेंद्र मोदी की कृषि कानूनों से संबंधित घोषणा एक स्वागत योग्य और राजनेता जैसा कदम है। जैसा कि प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में कहा,भारत सरकार हमारे किसानों की सेवा करती रहेगी और उनके प्रयासों में हमेशा उनका समर्थन करेगी। प्रधानमंत्री जी प्रत्येक भारतीय के कल्याण के अलावा और कुछ विचार नहीं करते हैं। उन्होंने बेहतरीन स्टेट्समैनशिप दिखाई है।
उत्तरप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि किसानों ने देश भर में गांव–गांव तक आंदोलन की अलख जगाकर यह राजनीतिक संदेश दे दिया था कि इन क़ानूनों पर सरकार की ज़िद के चलते स्वयं प्रधानमंत्री मोदी के राजनीतिक अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। वैसे कहने को तो उन्होंने प्रकाश पर्व पर यह घोषणा करके यह जताने की कोशिश की है कि वह पंजाब के किसानों को खुश करने के लिए यह निर्णय ले रहे हैं।
लेकिन वास्तविकता यह है कि भारतीय जनता पार्टी को किसान आंदोलन के चलते उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में अपनी नाव पार लगाना मुश्किल लग रहा है। एक बार अगर उत्तरप्रदेश हाथ से निकला तो दिल्ली की गद्दी भी सलामत नहीं रहेगी।
रामदत्त त्रिपाठी आगे कहते हैं कि चुनाव जीतने के लिए राम मंदिर या एक्सप्रेसवे बनाना पर्याप्त नहीं बल्कि आम लोगों का विश्वास ज़रूरी है और यह देश किसानों, मज़दूरों आम लोगों का है। मोदी सरकार ने कृषि कानूनों को वापस लेकर लोगों के इसी विश्वास को फिर से लनेने की कोशिश की है।
दरअसल उत्तरप्रदेश चुनाव से ठीक पहले किसान आंदोलन की अगुवाई करने वाले संयुक्त किसान मोर्चा ने अपना पूरा फोकस राज्य पर कर दिया था। प्रदेशों के किसान संगठन सहित पूरे देश के किसान संगठनों ने अपनी पूरी ऊर्जा उत्तर प्रदेश में आंदोलन की धार तेज करने पर लगा दी। भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने दिल्ली की तरह उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को घेरने का एलान कर दिया था। इसके साथ राकेश टिकैत के संगठन का पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खासा असर देखा जा रहा था।
ऐसे में किसान आंदोलन के चलते भाजपा को चुनाव में बड़ा नुकसान होता दिख रहा था और कानून वापसी के जरिए उसने डैमेज कंट्रोल करने की कोशिश की है। वहीं दूसरी ओर किसान आंदोलन की अगुवाई करने वाले किसान नेता अब भी पीछे हटने को तैयार नहीं दिख रहे है। कृषि कानूनों की वापसी के बाद अब किसान नेताओं ने MSP पर गांरटी कानून बनाने की मांग तेज कर दी है।