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Written By Author श्रवण गर्ग
Last Updated : बुधवार, 22 अप्रैल 2020 (14:10 IST)

आपदाएं प्रजातंत्र को भी संक्रमित कर सकती हैं?

आपदाएं प्रजातंत्र को भी संक्रमित कर सकती हैं? - indian democracy in Corona period
युद्ध या महामारी के समय घरों में बंद लोग अपनी चाकबंद सुरक्षा के अलावा किसी अन्य विषय, व्यक्ति अथवा संस्थान को लेकर भी कुछ सोचते हैं क्या? मसलन ऐसे वक्त तो व्यक्ति का सर्वाधिक ध्यान सरकारों द्वारा आगे के लिए जाने वाले निर्णयों पर ही केंद्रित रहता है।
 
ताज़ा संदर्भों में जैसे कि लॉकडाउन कब खुलेगा? या कि ज़िंदगी पहले की तरह पटरी पर आएगी भी नहीं, आदि, आदि? क्या ऐसा तो नहीं कि लॉक डाउन आगे ही बढ़ता जाएगा, अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताज़ा चेतावनी को गम्भीरता से ले लें तो? क्योंकि जब तक कोरोना संक्रमित एक भी व्यक्ति के खुले में छुट्टा घूमते रहने की आशंका बनी रहती है, तब तक कहा नहीं जा सकता कि संकट पूरी तरह से टल गया है। इस व्यक्ति का चेहरा निश्चित ही समाज के उस अंतिम व्यक्ति से अलग है जिसकी कि कल्पना गांधीजी ने की थी।

हम जैसे सोच ही नहीं पा रहे होंगे कि देश का कमज़ोर विपक्ष इस समय किस हाल में है? वह क्या कर रहा है? उसे इन परिस्थितियों में क्या करना चाहिए? या कि देश में एक चुनी हुई संसद भी है जो कि क़ानून बनाती है। उसकी बैठकों की क्या स्थिति है? या कि क्या डेमोक्रेसी या प्रजातंत्र आपात परिस्थितियों में ‘हमारा क्या होगा?’ तक ही सीमित होकर रह जाता है? मीडिया का एक बड़ा वर्ग जो कुछ भी हमें दे रहा है क्या उसे भी हम वैसे ही स्वीकार करते रहें जैसे कि दूध, सब्ज़ी और दवाएं जैसी भी और जहां से भी मिले की याचक मुद्रा में अभी स्वीकार कर रहे हैं? सनसनीख़ेज़ पत्रकारिता की शुरुआत भी कोई 200 साल पहले अमेरिका में ‘स्पेनिश वार’ की एक आपात स्थिति में ही हुई थी।

आपात स्थितियां नागरिकों की तरह ही प्रजातंत्र और उससे सम्बद्ध संस्थानों की इम्युनिटी को भी किस हद तक प्रभावित या कमज़ोर कर देती हैं उसका पता वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में नहीं लगाया जा सकता। ऐसा इसलिए कि युद्ध की विभीषिका या महामारी के प्रकोप के बाद जो भी सोच-विचार करने वाले लोग अंत में बच जाते हैं वे भी अपने अस्तित्व के लिए उसी व्यवस्था के प्रति आभार व्यक्त करने लगते हैं जो कि नागरिक अधिकारों और संस्थानों की स्वायत्तता का राष्ट्र-हित में हनन कर लेती हैं जैसा कि 2001 में हुए आतंकी हमलों के बाद अमेरिका में हुआ था।

हम अपने मीडिया की दुविधा या सुविधा के कारण दूसरे मुल्कों में इस वक्त चल रही इस तरह की बहसों से मुक्त हैं कि ऐसी परिस्थितियों को वे जो लोग जो व्यवस्था का संचालन करते हैं अपने आप को सत्ता में बनाए रखने का साधन बना लेते हैं। संकट या उसका नागरिकों पर भय जितना लम्बा चलता जाता है, व्यवस्था पर उनकी पकड़ भी उतनी ही मज़बूत होती जाती है। और ऐसे समय में विपक्ष की ओर से कोई पतली सी आवाज़ उठती भी है तो उसे जनता द्वारा ही राष्ट्र-विरोधी मानकर ख़ारिज कर दिया जाता है।
 
हम देख रहे हैं कि किस तरह से कुछ नागरिकों द्वारा निरपराध लोगों की ‘बच्चा चोर' करार देकर सरे आम हत्याएं की जा रही हैं और दूसरे नागरिक उस पर चुप्पी साधे हुए हैं। ऐसा ही व्यवहार मीडिया के उस छोटे से वर्ग के प्रति भी सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा किया जाता है जो सत्य का आईना दिखने की जुर्रत करता है। उसके ख़िलाफ़ देशद्रोह के आरोप लगा दिए जाते हैं।

चूंकि हम सब लोगों को कुछ और समय इसी तरह से फ़ुरसत में बने रहना है, ऐसी आपदाओं में विपक्ष और मीडिया की भूमिका के अलावा क्या इस आशंका पर भी विचार कर सकते हैं कि हो सकता है एक-दूसरे से छह फ़िट की दूरी बनाकर चलने और बात करने को हमारी ज़िंदगी का स्थायी हिस्सा ही बना दिया जाए? और यह भी कि ऐसे किसी कदम के देश के प्रजातंत्र के लिए क्या-क्या ख़तरे हो सकते हैं?
 
प्रसिद्ध अमेरिकी संस्थान मैसचूसेट्स इन्स्टिट्यूट आफ़ टेक्नॉलोजी (एमआयटी) की एक एसोसिएट प्रोफेसर ने मार्च के तीसरे सप्ताह में तैयार किए गए अपने एक अध्ययन में चेतावनी दी थी कि दो व्यक्तियों के बीच सोशल डिस्टेंसिंग 27 फिट का होना चाहिए। अध्ययन में दावा किया है कि कोरोना का वाइरस 23 से 27 फिट की दूरी तक संक्रमित कर सकता है। इस सुझाव को अमेरिकी सरकार द्वारा ख़ारिज कर दिया गया। हम चाहें तो इतने में ही संतोष कर सकते हैं कि अभी जो दूरी है उसमें कम से कम एक दूसरे को आवाज़ देकर मदद के लिए पुकार तो सकते हैं। प्रजातंत्र के भविष्य पर विचार तो किसी और तारीख़ के लिए भी टाला जा सकता है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
 
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