आज से करीब 30 साल पहले स्वाधीनता संग्राम और समाजवादी आन्दोलन के अग्रणी मामा बालेश्वरदयाल से एक शाम उनकी बामनिया स्थित कुटिया में देश की राजनीति पर लम्बी चर्चा के दौरान मैंने मामाजी से पूछा था आगे आने वाले समय में हमारा देश कैसा होगा? मामाजी ने जवाब दिया अनिल, जैसा देश के नौजवान चाहेंगे वैसा देश बनेगा।
हमारे देश में आज सबसे अधिक नौजवान नागरिक हैं।एक अरब पैंतीस करोड़ भारतीय नागरिकों में से लगभग एक अरब से ज्यादा नागरिक नौजवान हैं।भारत में जहां जाओ या देखो नौजवान ही नौजवान नज़र आते हैं।बहत्तर साल के लोकतंत्र में भारत के नागरिकों में लोकतांत्रिक नागरिक संस्कार और नागरिक दायित्वों की समझ और प्रतिबद्धता का स्वरूप कैसा है? इस सवाल का उत्तर ही तय करेगा भारत के नागरिक अपने जीवनकाल में नागरिक दायित्व को लेकर गंभीर हैं,लापरवाह हैं या तटस्थ हैं, उन्हें इन सबसे कोई लेना-देना नहीं है।
नागरिक उत्तरदायित्व को समझें और निभाए बिना लोकतंत्र का स्वरूप निखर नहींसकता। लोकतंत्र का अर्थ अपने मत से जनप्रतिनिधि और सरकार चुनना मात्र नहीं है।नागरिकों के हक,अधिकार और संविधान के ढांचे में गरिमामय रूप से जीते रहने के लिए कल्याणकारी राज्य व्यवस्था को देश के हर हिस्से में खड़ा करना देश के नागरिकों का दायित्व है।
लोकतंत्र सबके सामूहिक सदभाव,समझ,सहभागिता और निरन्तर जागरूकता, सक्रियता से चलने वाला राजनीतिक,सामाजिक,आर्थिक अवसरों को हर नागरिक तक बराबरी से पहुंचाने का तत्रं है।लोकतंत्र का अर्थ केवल चुनी हुई सरकार नहीं है।लोकतंत्र का अर्थ नागरिकों की जिन्दगीभर जीवन के हर आयाम में जागरूक भागीदारी है।लोकतंत्र में नागरिकों के मन में सरकार या शासक दल का भय या डर नहीं होता।सरकार और शासक दल के मन में यह सावधानी होना चाहिए कि हमसे कोई लोकविरोधी निर्णय हुआ तो लोग उसे स्वीकार नहीं करेंगे।
लोगों का यह लोकतांत्रिक दायित्व है कि राज्य,समाज,धर्म और नागरिक स्वयं भी मनमानी और अन्याय न कर सकें।सच्चा लोकतंत्र तब स्वरूप लेता है जब राज्य और समाज परस्पर नागरिकों को निर्भय,निष्पक्ष और नीतिवान बनाने का हरसंभव प्रयास करें।यह प्रयास ही राज्य और समाज का प्राणतत्व है कि दोनों मिलकर उत्तरदायित्वपूर्ण नागरिकों की निरन्तर प्राण प्रतिष्ठा करे।
कमजोर मन,संकल्पहीन,भयभीत और विचारहीन नागरिक लोकतंत्र और समाज को प्राणहीन और श्रीहीन बना देते हैं और ये नागरिक अपने कर्मों से नागरिकत्व को निष्प्राण और निष्प्रयोजन भीड़ में बदल ड़ालते हैं।भीड़तंत्र लोकतंत्र नहीं है।भीड़ को तितर-बितर करना किसी भी सरकार के लिए चुटकी बजाने जैसा आसान काम है, पर जीवन की चेतना से भरपूर सक्रियता के साथ राजकाज और समाज को लगातार चौकन्ना रखने वाले नागरिकों से संवाद करने में सरकार भी संकोच करती है।सरकार के मन में नागरिकों की चेतना का दबाव ही चैतन्य लोकतंत्र की निशानी है।
लोकतंत्र लापरवाह और मौज-मस्ती में पड़े लोगों का तंत्र नहीं है।देश के सारे नागरिक चैतन्य और सतत सक्रिय मानस के हैं तो न तो विधायिका,न कार्यपालिका और न ही न्यायपालिका नागरिक हितों की अवहेलना करने की बात सपने में भी नहीं सोच सकती।लोकतंत्र में चुने हुए जनप्रतिनिधि नागरिकों के हितों के रखवाले होते हैं।उत्तरदायी और कल्याणकारी लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था में जनप्रतिनिधियों को नागरिकों के कल्याण के लिए सतत सक्रिय और प्रतिबद्ध होना पहली अनिवार्यता है।
लोकतंत्र नागरिकों,जनप्रतिनिधि यानी पंच-सरपंच से लेकर पार्षद,विधायक,सांसद तथा मंत्री,मुख्यमंत्री,प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक से यह अपेक्षा करता है कि इनमें से हर कोई नागरिकों के प्रति अपने उत्तर दायित्व के प्रति हर समय चैतन्य रहे और लापरवाही,मनमानी और निष्क्रियता से लोकतंत्र के मूल स्वरूप को कमजोर न होने दें।लोकतंत्र लोगों के लिए लोगों की शासन व्यवस्था है, जिसे बनाए रखना जनप्रतिनिधियों का मूल उत्तरदायित्व है।
लोकतंत्र में सरकार चुनने का अधिकार नागरिकों का संविधान सम्मत अधिकार है। पर यदि चुनी हुई सरकार अन्यायी हो जाए संविधान अनुसार काम नहीं करें जन विरोधी निर्णय ले,लोगों के गरिमामय रूप से जीवन जीने के मूलभूत अधिकार को छीन ले और चैतन्य नागरिक विचारशून्य हो जाए या अभिव्यक्ति की आजादी के मूल अधिकार के होते हुए भी मौन हो जावे तो इसे नागरिकों का अनागरिकत्व ही कहा जावेगा।लोकतंत्र में आजादी का अर्थ एकांगी नहीं होता।
अभिव्यक्ति की आजादी को सर्वसुलभ बनाना राज,समाज और नागरिकों का सामूहिक उत्तरदायित्व है।राज लापरवाह हो या मनमाना और अन्यायी हो जावे तो समाज और नागरिक अलख जगाने के उत्तरदायित्व को टाल नहीं सकते।लोकतंत्र लोगों के लिए होता है और लोग यदि अपने अधिकारों के हनन को चुपचाप टुकुर-टुकुर तमाशबीन बने सह सकते हैं तो सरकार से ज्यादा दोष नागरिकों की चुप्पी और लापरवाही का माना जाएगा।
आज़ादी के लिए लड़ने वाले समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया का लोकतंत्र को जीवंत बनाने की दृष्टि से मानना था, जिन्दा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं, यानी लोकतंत्र में मतदान कर सरकार बनाने से ही न तो लोकतंत्र चलता है, न ही नागरिकत्व। चुनी हुई सरकार के कामकाज की अखंड निगरानी से लोकतंत्र भी जीवंत होता है और नागरिक स्वयं भी अपने हाथों अपनी प्राण प्रतिष्ठा कर लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व का प्राणप्रण से निर्वाह करते हैं।
जिन्दा कौम न होना यानी ऐसे नागरिक जो जिन्दा होते हुए भी जिन्दा नहीं होते और उदास और लापरवाह बन जाते हैं।हमने तो सरकार चुन दी अब जो करना है सरकार करे, ऐसे उद्गार निकालकर कौम की जीवनी शक्ति पर ही सवाल खड़ा कर देते हैं। आज के काल के नागरिक का जीवन आभासी प्रचार माध्यमों के प्रभाव में ज्यादा आता महसूस होता है।नागरिक जीवन पर प्रचार तंत्र का प्रभाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता दिखाई देता है।राज्य की गतिविधि पर नागरिकों के अभिमत का कोई दबाव नहीं है।युवा आबादी के बुनियादी सवालों पर नागरिक समाज में छिटपुट चर्चा भी नहीं चलती।
लोकतंत्र में नागरिक ज़बान खामोश रहे और प्रचार माध्यम मनचाहे विषयों पर मनमानी और नियंत्रित बहस लोकतंत्र का जीवंत स्वरूप नहीं है।लोहिया ने कहा था, जिन्दा कौम पांच साल इंतजार नहीं करती, पर लोकतंत्र में नागरिक पहल तो दूर की बात है नागरिक जीवन के बुनियादी सवालों पर बहस तो चलती ही नहीं, चौबीस घंटे, बारह महीने प्रचार माध्यमों में बनावटी बहस चलती है।
वयोवृद्ध आबादी यदाकदा ऐतिहासिक राजनीतिक, सामाजिक बुनियादी सवालों को बुदबुदाती रहती है, पर अधिकांश नागरिक घनघोर सन्नाटे की तरह निरन्तर मौन रहकर टुकर-टुकुर देखते रहते हैं। लोकतंत्र और नागरिक दोनों की आभा उनकी वैचारिक तेजस्विता से है। निजी और सार्वजनिक जीवन में नागरिकत्व की प्राण प्रतिष्ठा नागरिक की निर्भयता,वैचारिक व्यापकता और राज और समाज को निरन्तर न्यायपूर्ण दिशा में सतत सक्रियता के साथ जीवन्त बनाए रखने से होती है।
राज और समाज की मनमानी और अनदेखी को अनदेखा कर चुप रहने से नहीं।हमारी अनदेखी और अनमनापन लोकतंत्र और नागरिकत्व दोनों की प्रखरता और तेजस्विता को क्षीण ही करता है।बेबस और कमजोर जीवन नागरिकत्व के दायित्वबोध में कमी का परिचायक है।सतत् चैतन्य नागरिक ही स्वयं अपनी और लोकतंत्र की प्राण प्रतिष्ठा का मूल कारक है।