एक समय की बात है। नेहरूजी को पुस्तकों से बहुत प्रेम था। वे पुस्तकों की इतनी देखभाल और साज-संभाल रखते थे कि वे वर्षों नई-सी बनी रहती थीं।
एक बार लखनऊ में वे अपने मित्र मोहनलाल सक्सेना के यहाँ ठहरे। स्वभाव के अनुसार उनकी नजर उनकी पुस्तकों की अलमारी पर गई। अलमारी में पुस्तकें बहुत अस्त-व्यस्त, उलटी-सीधी पड़ी देखकर उन्हें बड़ी वेदना हुई। वे उनकी धूल झाड़-पोंछकर उन्हें व्यवस्थित करने लगे।
जब मोहनलाल वापस आए, तो उनसे कहा- 'क्यों भाई मोहनलाल, तुम जब अपने घर की पूजा की मूर्तियों, तस्वीरों को साफ कर सकते हो तो पुस्तकों को क्यों नहीं करते? यदि मूर्तियाँ और तस्वीरें तुम्हें मार्गदर्शन दे सकती हैं, तो पुस्तकों को भी जीवंत प्रतिमा से कम नहीं समझा जाना चाहिए।'
मित्र से कही गई जवाहरलालजी की यह चुभती हुई उक्ति हम सब के लिए है, जो पुस्तकों की कद्र नहीं करते।