कुछ विषय ऐसे होते हैं जिन पर विचार करना होता है कि फीचर फिल्म बनाई जाए या डॉक्यूमेंट्री? एसिड अटैक सर्वाइवर पर फिल्म बनाना ऐसी ही कठिन चुनौती है।
निर्देशक मेघना गुलजार ने इसके पहले वास्तविक घटना पर आधारित बेहतरीन फिल्म 'तलवार' बनाई थी। 'छपाक' में मेघना ने एसिड अटैक सर्वाइवर लक्ष्मी अग्रवाल के जीवन के कुछ पहलू और वास्तविक घटनाओं को जोड़ते हुए 'छपाक' बनाई है।
एसिड की एक बूंद शरीर पर गिर जाए तो रूह कांप जाती है, ऐसे में उस लड़की के दु:ख की कल्पना करना मुश्किल जिस पर कुछ बूंदों ने छपाक से गिरते ही उसकी पहचान छिन ली है। एसिड का असर उसकी आत्मा तक को छलनी कर देता है। इस दर्द से आप 'छपाक' देखते समय जूझते रहते हैं।
मेघना ने 'छपाक' को ज्यादा ड्रामेटिक नहीं किया है। उन्होंने एक एसिड सर्वाइवर की लाइफ के संघर्ष और न्याय को पाने की लंबी लड़ाई पर फिल्म को फोकस किया है।
फिल्म की हीरोइन मालती न केवल अपने ऊपर तेजाब फेंकने वाले को सजा दिलाने के लिए अदालत की शरण लेती है बल्कि वह पीआईएल भी फाइल करती है ताकि एसिड खुलेआम न बिक सके। न्याय पाने में उसे वर्षों लगते हैं, लेकिन वह हिम्मत नहीं हारती है।
दूसरी ओर उसे उस चेहरे के साथ भी जिंदगी जीना पड़ती है जिसे बिगाड़ दिया गया है। लोग उस पर तरस भी खाते हैं तो डर भी जाते हैं।
छपाक में अमोल (विक्रांत मैस्सी) का कैरेक्टर भी डाला गया है जो एसिड अटैक सर्वाइवर के लिए एनजीओ भी चलाता है। उसके लिए मालती (दीपिका पादुकोण) भी काम करती है। इन दोनों की नोक-झोक के सहारे भी फिल्म को आगे बढ़ाया गया है।
फिल्म कुछ हैरानी वाले खुलासे भी करती है। चाय फेंको या एसिड फेंको, कानून की नजर में समान है। बाद में इसमें परिवर्तन हुआ। ऋषिकेश में अंडा बैन करने वाला निर्णय फौरन लागू कर दिया, लेकिन देश में एसिड की खुलेआम बिक्री पर बैन लगाने में पसीने छूट गए।
अभी भी एसिड अटैक रूके नहीं हैं। ताजा हमला 7 दिसंबर 2019 को ही हुआ है। एसिड अटैक उन लड़कियों पर किया गया है जो पढ़ाई करना चाहती थीं, कुछ बनना चाहती थीं, जीवन में आगे बढ़ना चाहती थीं। ऐसी लड़कियां बर्दाश्त नहीं हुईं और उन्हें 'औकात' दिखाने के लिए हमले किए गए।
फिल्म की लीड कैरेक्टर मालती के जज्बे को सलाम करने का मन करता है। बिगड़े चेहरे से वह अपनी नई जिंदगी शुरू करती है। कई सर्जरी झेलती है, थाने और कचहरी के चक्कर लगाती हैं, लेकिन आखिर में कामयाबी पाती है।
मालती पर एसिड फेंकने वाले बशीर खान उर्फ बब्बू (विशाल दहिया) को फिल्म में बहुत कम जगह मिली है, लेकिन उसका एटीट्यूड ही बहुत कुछ कह देता है कि वह महिलाओं के बारे में क्या सोचता है। ऐसे व्यक्ति का कोई 'धर्म' नहीं होता है।
छपाक में इमोशन की कमी खलती है। छपाक जैसी फिल्मों से उम्मीद की जाती है कि वे दर्शकों को दहला दे। इमोशन्स से सराबोर कर दे, लेकिन इस मामले में फिल्म 'सूखी' है। कहानी का यह रूखापन अखरता है।
अमोल के कैरेक्टर को ठीक से लिखा नहीं गया है। वह हमेशा गुस्से से भरा रहता है। ठीक है, वह व्यवस्था से, अपराधों से परेशान है, लेकिन फिल्म में उसके गुस्से वाले कुछ सीन ऐसे हैं जो जायज नहीं लगते।
वह मालती को डांटता रहता है। पार्टी करने से रोकता है। मालती के खुश होने पर वह खुश नहीं होता है, ये सीन दर्शक और फिल्म में दूरी बनाते हैं। लेकिन फिल्म का विषय इतना ज्यादा पॉवरफुल है कि फिल्म को कमियों के बावजूद आप स्वीकारते हैं।
निर्देशक के रूप में मेघना गुलजार ने सारी घटनाओं को जोड़ा है और एक कठिन विषय पर फिल्म बनाकर अपनी बात रखने में सफल रही हैं। यदि वे मालती के दर्द को दर्शकों से जोड़ने में सफल रहती तो यह और बेहतर होता।
दीपिका पादुकोण ने अपने सेफ ज़ोन को तोड़ने की हिम्मत दिखाई है। पहली ही फ्रेम से भूला देती हैं कि वे दीपिका हैं बल्कि एसिड अटैक सर्वाइवर मालती लगती हैं। फिल्म में ज्यादातर समय उन्हें अपनी आंखों से अभिनय किया है। कई दृश्यों में उन्होंने स्क्रिप्ट से उठ कर एक्टिंग की है। विक्रांत मैसी का परफॉर्मेंस बहुत ही सहज है।
कुछ फिल्में मनोरंजन करती हैं, कुछ मोटिवेट करती हैं, लेकिन छपाक जैसी फिल्में डिस्टर्ब करती हैं और ऐसी फिल्में भी जरूरी हैं।
निर्माता : फॉक्स स्टार स्टूडियोज़, का प्रोडक्शन्स, मृगा फिल्म्स