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Last Updated : शनिवार, 23 जनवरी 2021 (17:45 IST)

51वें इंटरनेशनल फिल्मोत्सव में पुरस्कारों की दौड़ में कौन-सी भारतीय फिल्में सबसे आगे?

51वें इंटरनेशनल फिल्मोत्सव में पुरस्कारों की दौड़ में कौन-सी भारतीय फिल्में सबसे आगे? - Indian films which can win award in International Film Festival of India in Goa,
- पणजी,गोवा से शकील अख़्तर
 
51वें इंटरनेशनल फिल्म उत्सव में 7 भारतीय फिल्में पुरस्कारों की दौड़ में हैं। जल्दी ही यह साफ़ हो जाएगा कि अंतरराष्ट्रीय फिल्मों के साथ किन भारतीय फिल्मों ने बाज़ी मारी है। इसमें सबसे पहला इंटरनेशनल सेक्शन है जिसमें कुल 15 फिल्में हैं। इसमें पहली बार 3 भारतीय फिल्में गोल्डन और सिल्वर अवॉर्ड की दौड़ में हैं। वहीं सेंटेनरी डेब्यू अवार्ड में दो फिल्में और आईसीएफटी गांधी मेडल के लिए चयनित दो फिल्में हैं। तीनों ही पुरस्कारों का मुकाबला कर रही सभी 7 फिल्मों में से 5 डेब्यू फिल्में हैं जो भारतीय सिनेमा के भविष्य की दृष्टि से एक अच्छी बात है।
 
51वें फिल्मोत्सव में आईं बेहतरीन फ़िल्में
तीनों ही पुरस्कारों में शामिल फिल्मों को लेकर मेरी इंडियन पैनोरमा के ज्यूरी और फिल्मों के जानकार विशेषज्ञ सतीन्दर मोहन से लंबी चर्चा हुई। यहां हम उनसे हुई बातचीत के आधार पर फिल्मों की जानकारी दे रहे हैं। प्रिव्यू कमेटी का सदस्य होने के नाते मुझे भी इन फिल्मों को देखने का अवसर मिला है। कहना ना होगा पुरस्कारों की होड़ में एक-दूसरे के सामने दावेदारी कर रही सभी फिल्में बेहद अच्छी हैं। पिछले फिल्म समारोहों की तुलना में इस बार हमें बहुत ही अच्छी फिल्में देखने को मिली हैं। यह इफ्फी के लिये प्रशंसा की बात है। इसके लिए फिल्म निदेशालय बधाई का पात्र है।
 
'ब्रिज' एक बेहद प्रभावपूर्ण फिल्म
इंटरनेशनल अवार्ड में जो तीन फिल्में पुरस्कारों की दौड़ में हैं, उनके नाम हैं - ‘ब्रिज’, 'ए डॉग एंड हिज़ मैन' और ‘थेन’। यहां यह बताना ज़रूरी है कि ‘ब्रिज’ (निर्देशक:कृपाल कलिता) और ‘ए डॉग एंड हिज़ मैन’ (निर्देशक:सिद्धार्थ त्रिपाठी) डेब्यू फिल्में हैं। सतीन्दर मोहन कहते हैं, मेरी नज़र में ‘ब्रिज’ तीनों फिल्मों में काफी अच्छी है। यह आसाम की बेहद सत्यपरक फिल्म है। फिल्म ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे बसे एक खेतिहर परिवार की कहानी है। उनका गांव से शहर जाने के लिये ब्रिज नहीं है। नदी पार करने के लिये महज एक बैम्बू की कामचलाऊ नाव का सहारा है। 
 
ऐसे में परिवार की लड़की का विवाह नहीं हो पाता, उससे जो लड़का शादी करना चाहता है,उसके माता-पिता ब्रिज ना होने की वजह से नदी के तट पर पहुंचकर भी लड़की से रिश्ता पक्का करने नहीं जाते। उनके लौट जाने से लड़की अविवाहित ही रह जाती है। बाद में बाढ़ में लड़की का घर ढह जाता है। उसकी मां की बाढ़ के पानी में मिर्गी का दौरा पड़ने से नदी पार करते वक्त मौत हो जाती है। अब लड़की अपने छोटे भाई के कहीं दूर जाकर फिर एक घर बनाती है। वो अपने माथे पर सिंदूर सजा लेती है। ताकि वो यह अहसास कर सके कि उसकी शादी हो गई है और उसका जीवन अब सुरक्षित है। फिल्म सत्य घटना पर आधारित है। इसमें अभिनय, निर्देशन, फिल्मांकन सभी बहुत अच्छा है। यह यथार्थपूर्ण फिल्म आसाम के हालात और वहां के तकलीफों की झकझोर देने वाली तस्वीर बनकर सामने आती है।
 
‘ए डॉग एंड हिज़ मैन’
इंटरनेशनल कॉम्पिटशन में पहुंची दूसरी भारतीय फिल्म छत्तीसगढ़ की –‘ ए डॉग एंड हिज़ मैन’ पुनर्वास और उससे जुड़ी हक़ीकत को बेहद मार्मिक तरीके से सामने रखती है। विकास के लिए सरकारें जब भी किसी देहाती इलाकें में कोई प्लांट लगाती है, उस इलाके की ज़द में आने वाले गांवों को अक्सर खाली कराया जाता है। सरकार ग्रामीणों के पुनर्वास की व्यवस्था भी करती है। मगर यह पुनर्वास कितना दर्दनाक होता है, यह इस फिल्म में नज़र आता है। 
 
इसकी कहानी एक ऐसे ही बुजुर्ग इंसान और उसके डॉग से जुड़ी है। सरकारी हुक्म के बाद पूरा गांव खाली हो जाता है। यहां तक कि बुज़ुर्ग इंसान की पत्नी और बेटा भी शहर चले जाते हैं। मगर वह गांव छोड़कर नहीं जाना चाहता। सन्नाटे से भरे पूरे गांव में अपने कुत्ते के साथ अकेला ही रह जाता है। उदास सन्नाटों में वह गांव में बसे अपने खुशहाल जीवन को याद करता है। आख़िर एक दिन नये निर्माण के दौरान लगाई बारूद का धमाका होता है। बुज़ुर्ग की ज़िदंगी का इकलौता सहारा डॉग चल बसता है। इस फिल्म का भी निर्देशन, अभिनय, फिल्मांकन, संगीत और ध्वनि बहुत प्रभावपूर्ण है। यह फिल्म भी रजत या स्वर्ण पुरस्कार पाने का पूरा दम रखती है।


 
हालात की एक और बदसूरत तस्वीर
तमिल फिल्म-‘थेन’ (निर्देशक:गणेश विनायकन) की कहानी हालात की एक और बदसूरत तस्वीर को सामने लाती है। फिल्म में सुदूर गांव में रहने वाला एक गरीब इंसान अपनी मासूम बेटी को लेकर पत्नी के इलाज के लिए शहर आता है। पत्नी को सरकारी अस्पताल में फर्श पर इलाज कराने की किसी तरह इजाज़त मिल जाती है। मगर नियमों से बंधे अस्पताल उस गरीब से आधार कार्ड की मांग करते हैं। पहचान से दूर उस गरीब के लिए आधार कार्ड बनवाना एक और मुसीबत की वजह बन जाता है। 
 
इस बीच डॉक्टरों की कोशिशों के बावजूद फर्श पर ही तड़प-त़ड़पकर पत्नी की मौत हो जाती है। पति अपनी पत्नी का अंतिम संस्कार अपने गांव में करना चाहता है, मगर शव ले जाने के लिए सरकारी उसे एम्बुलेंस नहीं मिलती, पैसे की वजह से प्राइवेट एम्बुलेंस वाला  शव ले जाने से इनकार कर देता है। आख़िरकार बेबस पति एक हाथ से पत्नी का शव कंधे पर रखकर और दूसरे हाथ से अपनी मासूम बेटी को पकड़कर गांव की ओर पैदल ही चल पड़ता है। इस तरह फिल्म में इंसानी दुनिया का कुरूप और बेरहम चेहरा सामने आता है। ज़ाहिर है कि यह फिल्म भी इंटरनेशनल अवॉर्ड पाने का माद्दा रखती है।


 
डेब्यू फिल्म अवार्ड का हक़दार कौन ?
इफ्फी में कुछ सालों से सेटेनरी अवार्ड फॉर दि बेस्ट डेब्यू डायरेक्टर का अवार्ड दिया जाने लगा है। इस बार दो डेब्यू फिल्में क्रमश: '’ब्रम्ह जानेन गोपोन कोमोती’ (निर्देशक:अरित्रा मुखर्जी) और ‘जून’ (निर्देशक:वैभव खिश्ती, सुहरूद गोडबोले) आमने-सामने  हैं। ‘ब्रम्ह जानेन’ बंगाली फिल्म है। इसमें सवाल उठाया गया है कि जब पुरूष एक पुजारी हो सकता है तो महिला पुजारी क्यों नहीं हो सकती। फिल्म की नायिका एक संस्कृत की प्रोफेसर है, उसने अपने पिता से पूजा के सभी संस्कार हासिल किए हैं। परंतु विवाह के बाद उसका परिवार और एक पुरूष पुजारी उसके पूजा करने के खिलाफ हो जाते हैं।
 
पुजारी खुद को शास्त्रों का ज्ञाता और विद्वान साबित करने के लिए महिला पुजारी को सबके सामने शास्त्रार्थ के लिये आमंत्रित करता है। शास्त्रार्थ के अंत में कन्यादान के समय पढ़े जाने वाले मंत्र के बारे महिला पुजारी से पूछता है। जब उसे जवाब नहीं मिलता तब वह मान लेता है कि महिला ने अज्ञानता की वजह से हार स्वीकार कर ली है। बाद में जब महिला का पति पूछता है कि क्या उसे कन्यादान के समय पढ़ा जाने वाला श्लोक याद नहीं ? तब वह कहती है नारी भी एक इंसान है वो दान की वस्तु नहीं। इसलिये उसने कन्यादान के समय वह श्लोक नहीं पढ़ा। उसने बचपन में ही अपने पिता से इस श्लोक के बारे में जान लिया था। तब से ही उसने कन्या को दान बताने वाले मंत्र को ना पढ़ने का प्रण लिया था। इस तरह यह फिल्म सामाजिक बदलाव और महिला सशक्तिकरण की मांग करती है। पुरूष सत्ता और परंपरावादी सोच पर कड़ा प्रहार करती है। ऐसे में लगता है कि यह डेब्लू फिल्म का पुरस्कार जीत सकती है। इस दौड़ में ‘जून’ नाम की दूसरी फिल्म पुरानी और नई पीढ़ी के टकराव की कहानी है। फिल्म बताती है कि नई पीढ़ी पुराने विचारों से अलग अपनी तरह से दुनिया जीना चाहती है।


 
‘ताहिरा’ से सुंदर कोई नहीं!
आईसीएफटी गांधी मेडल के लिए जिन दो फिल्मों में मुकाबला है। उनमें से एक है मलयालम फिल्म ‘ताहिरा’(निर्देशक:सिद्दीक पारावूर) । यह फिल्म सच्ची घटना पर आधारित है। यह ताहिरा नाम की उस युवती की कहानी है जो स्त्री जैसी सुंदर नहीं। परंतु दिखने में अच्छी ना होने के बावजूद वह अपने गुणों से बेहद सुंदर है। वो मेहनत से अपनी ज़िदंगी को बनाने और संवारने में यक़ीन रखती है। वो जीवन के हर संघर्ष को सहजता से जीती है। मगर वो रंग-रूप में औरत जैसी नहीं इसलिए उससे कोई शादी करना नहीं चाहता। 
 
आखिरकार वो एक ब्लाइंड संगीत टीचर से शादी कर लेती है। ताहिरा के जीवन में आने के साथ ही दिव्यांग युवक की ज़िदंगी भी बदल जाती है। ताहिरा के साथ अब उसकी अंधकार ज़िदंगी में नई रोशनी आ जाती है। एक दिन वह कह उठता है, इस दुनिया में ताहिरा से सुंदर कोई नहीं, वो सच में बेहद खूबसूरत है। इस फिल्म में नान एक्टर्स ने काम किया है। इसके बावजूद उनका अभिनय बेहद दमदार  है।


 
इसी अवार्ड कैटॉगरी में दूसरी फिल्म ‘प्रवास’ (निर्देशक:शंशाक उदापुरकर) है, इस फिल्म में अशोक सराफ और पदमिनी कोल्हापुरी जैसे जाने-पहचाने कलाकार हैं। फिल्म में अशोक सराफ ने किडनी के मरीज़ की भूमिका की है। अपने गंभीर मर्ज़ और इलाज के बीच एक दिन उन्हें अहसास होता है कि जीवन में जितने भी दिन है,उसका सदुपयोग करना चाहिये। इस सोच के बाद वो अपनी छोटी सी कार को एम्बुलेंस बना लेते हैं और मरीज़ों को अस्पताल पहुंचाने और वक्त रहते उनका जीवन बचाने का काम शुरू कर देते हैं। नतीजे में उनकी सेहत में भी बड़ा सुधार आता है। डॉक्टर भी इस बदलाव से खुश होता है। मौत तो आना है लेकिन फ़िल्म इंसानी ज़िदंगी को जीने का संदेश देती है।
 
 - सीनियर जर्नलिस्ट और लेखक शकील अख़्तर अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल (भारत सरकार) की प्रिव्यू कमेटी के सदस्य हैं।
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