अनंत प्रकाश, बीबीसी संवाददाता, कोटा से लौटकर
"मैं अपने बच्चे के निमोनिया का इलाज कराने के लिए यहां से 50 किलोमीटर दूर से आया हूं। इतनी सर्दी थी रास्ते में। बच्चे की सांस तेज़ चल रही थी। बच्चे की हालत देखकर ही डर लग रहा था...
ये शब्द मोहन मेघवाल के हैं जो अपने बच्चे का इलाज कराने के लिए राजस्थान में कोटा के जेके लोन अस्पताल आए थे। ये वही अस्पताल है, जहां बीते 30 दिनों में 100 से ज़्यादा बच्चों ने दम तोड़ दिया है।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने राजस्थान सीएम अशोक गहलोत को पत्र लिखकर जेके लोन अस्पताल में शिशुओं की असमय मृत्यु की प्रतिदिन बढ़ती संख्या को देखते हुए संवेदनशीलता के साथ चिकित्सा सुविधाओं के मज़बूत बनाने के लिए आग्रह किया है।
इसके साथ ही मायावती ने अपने आधिकारिक ट्वविटर अकाउंट से ट्वीट करके अशोक गहलोत और प्रियंका गाँधी पर निशाना साधा है।
लेकिन राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने इस मुद्दे पर राजनीति नहीं किए जाने की अपील की है। उन्होंने कहा है, "हम लोग बार-बार कह रहे हैं कि पूरे पांच-छह साल में सबसे कम आंकड़े अब आ रहे हैं। इतनी शानदार व्यवस्था वहां कर रखी है। मैं किसी को इस मौक़े पर दोष नहीं देना चाहता हूं। पिछले पांच साल के आंकड़े थे। इनमें बीजेपी के शासन में ही ये आंकड़े कम होते गए। हमारी सरकार बनने के बाद ये आंकड़े और कम हो गए।"
"नागरिकता संशोधन क़ानून के बाद में देश और प्रदेश में जो माहौल बना हुआ है। ऐसे में कुछ लोग जानबूझकर ध्यान हटाने के लिए ये शरारत कर रहे हैं।"
वहीं, राजस्थान सरकार के स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा कहते हैं, "ये सब प्रधानमंत्री कार्यालय से हो रहा है। सीएए और एनआरसी को लेकर राजस्थान में विरोध प्रदर्शन हुए हैं, अब उन्हें कोई और चीज़ तो मिलती नहीं है। पहला सवाल तो ये है कि जब योगी आदित्यनाथ के गृह क्षेत्र गोरखपुर में ऑक्सीजन की कमी से सौ से ज़्यादा बच्चों की मौत हुई थी। तब बीजेपी का एक भी डेलिगेशन गया था वहां? यहां राजनीति करने आ रहे हैं, तो एक जवाब दें कि जब 2015 में अस्पताल प्रशासन ने 8 करोड़ रुपए मांगे तो बीजेपी सत्ता में थी, ऐसे में अस्पताल को पैसे क्यों नहीं दिए गए।"
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने राजस्थान सरकार को हरसंभव मदद का आश्वासन दिया है। राजनीतिक स्तर पर बयानबाजी का सिलसिला जारी है। और इसके साथ ही बच्चों की मौत का सिलसिला भी जारी है।
ऐसे में सवाल ये उठता है कि इन बच्चों की मौत के लिए कौन ज़िम्मेदार हैं और क्या दिन प्रति दिन मरते हुए इन बच्चों को बचाया जा सकता है?
ख़राब उपकरण और डॉक्टरों की कम संख्या
बीते एक साल में कोटा के इस अस्पताल में भर्ती होने वाले लगभग 16,892 बच्चों में से 960 से ज़्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है।
जेके लोन अस्पताल के शिशु औषधि विभाग के एचओडी अमृत लाल बैरवा बताते हैं, "बीते एक महीने में यहां मरने वाले बच्चों में से लगभग 60 बच्चों का जन्म यहीं हुआ था, बाक़ी के बच्चे आसपास के अस्पतालों से क्रिटिकल कंडीशन में रेफ़र होकर यहां लाए गए थे। ये एक ऐसा अस्पताल है जहां पर आसपास के तीन चार ज़िलों से बच्चों को लाया जाता है। इसके साथ ही मध्य प्रदेश के झाबुआ से भी बच्चों को यहां लाया जाता है।"
"लेकिन इस अस्पताल में मौजूद संसाधन और स्वास्थ्य कर्मचारियों की कम संख्या इतनी बड़ी संख्या में मरीजों का इलाज करना एक चुनौती पेश करता है।"
बैरवा की ओर से बीती 27 दिसंबर की ओर अस्पताल के सुपरिटेन्डेंट को भेजी गई रिपोर्ट के मुताबिक़, अस्पताल में मौजूद 533 उपकरणों में से 320 ख़राब हैं।
इनमें 111 इनफ़्यूज़न पंप में से 80 ख़राब हैं। 71 वॉर्मरों में से 44 ख़राब हैं। 27 फ़ोटोथेरेपी मशीनों में से 7 ख़राब हैं और 19 वेंटिलेटर मशीनों में से 19 ख़राब हैं।
वहीं, अगर स्टाफ़ की कमी की बात करें तो एनआईसूयी में कुल 24 बेड के लिए 12 स्टाफ़ उपलब्ध हैं। जबकि भारत सरकार के नियमों के मुताबिक़, 12 बेड पर कम से कम 10 कर्मचारी तैनात होने चाहिए।
इसी तरह एनएनडब्ल्यू में सिर्फ़ 8 लोगों की तैनाती है। इस तरह 42 बेड के एनआईसीयू में उपलब्ध 42 बेड के लिए कुल 20 लोगों की स्टाफ़ उपलब्ध है जबकि ये संख्या 32 होनी चाहिए। वहीं, इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इस अस्पताल में प्रोफ़ेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के चार पद ख़ाली पड़े हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या संसाधनों की कमी और डॉक्टरों की कम संख्या इन बच्चों की मौत के लिए ज़िम्मेदार है?
बैरवा इस बात से सहमत नज़र नहीं आते हैं। वे कहते हैं, "इन बच्चों की मौत के लिए संसाधनों की कमी ज़िम्मेदार नहीं है। हालांकि, हमारे अस्पताल में एनआईसीयू आदि में मानकों का पालन नहीं हो रहा है। लेकिन ये बात भी अहम है कि सरकार को आसपास के अस्पतालों को मज़बूत करना चाहिए।"
6 सालों में 6 हज़ार बच्चों की मौत
जेके लोन अस्पताल की बात करें तो बीते 6 सालों में इस अस्पताल में 6 हज़ार बच्चे दम तोड़ चुके हैं। इनमें से 4,292 बच्चे गंभीर हालत में आस पास के ज़िलों से इस अस्पताल में लाए गए थे।
डॉ. अमृत लाल बैरवा इन बच्चों की मौत के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में व्याप्त अव्यवस्था और ज़िला अस्पतालों में डॉक्टरों की कम संख्या को ज़िम्मेदार मानते हैं।
वे कहते हैं, "ये मेडिकल कॉलेज का अस्पताल है। टर्सरी लेवल का अस्पताल है। और यहां पर कोटा, बूंदी, बारा, झालाबाड़, टोंक, सवाई माधोपुर, भरतपुर और मध्य प्रदेश से लोग अपने बच्चों को लेकर आते हैं। और ये मरीज़ रेफर्ड मरीज़ होते हैं। सारे पेशेंट बहुत ही क्रिटिकल कंडीशन में होते हैं। और हमारे पास बहुत ज़्यादा वर्क लोड है। जितने हमारे पास संसाधन हैं, उससे ज़्यादा भी मरीज़ आते हैं। और इन बच्चों की मौत के यही कारण हैं।"
सामुदायिक अस्पतालों का बुरा हाल
कोटा से 50 किलोमीटर दूर डाबी कस्बे में रहने वाले मोहन मेघवाल निमोनिया की शिकायत होने पर अपने बच्चे को सीधे जेके लोन अस्पताल लेकर आए हैं।
वे कहते हैं, "मैंने पहले अपने घर के नज़दीक स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर बच्चे का इलाज कराया है। लेकिन उस अस्पताल से दस्त और ख़ाँसी-जुकाम जैसी सामान्य बीमारियां सही नहीं होती हैं। ऐसे में जब मेरे बच्चे की साँसें तेज़ चलना शुरू हो गईं तो मैं अपने बच्चे को लेकर एक निजी अस्पताल में गया। वहां मुझे बताया गया कि बच्चे की हालत गंभीर है और उसे जेके लोन में ले जाना चाहिए।"
समय-समय पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में इंतजामों के बुरी हालत से जुड़ी ख़बरें सामने आती रही हैं।
स्वास्थ्य क्षेत्र कवर करने वालीं वरिष्ठ पत्रकार स्वागता यादावार बताती हैं, "ये कोई नई बात नहीं है कि सीएचसी और पीएचसी की हालत ख़राब होती है। मैंने अपनी पड़ताल में पाया है कि अक्सर इन संस्थानों के ताले बंद रहते हैं। यहां ज़रूरी उपकरण और डॉक्टर मौजूद नहीं होते हैं।"
"ऐसे में ग़रीब लोगों को निजी अस्पतालों में जाना पड़ता है। कभी-कभी प्राथमिक स्तर पर सरकारी सुविधाओं में कमी लोगों को उन लोगों के पास भी जाने के लिए मजबूर करती हैं जो डॉक्टर भी नहीं होते हैं।"
"सीएचसी के स्तर पर एक स्पेशलिस्ट, एक शिशु रोग विशेषज्ञ, गायनकोलॉजिस्ट होना चाहिए। ये विशेषज्ञ उपलब्ध नहीं होते हैं। जिन दवाओं की ज़रूरत होनी चाहिए, वैसी दवाएँ उपलब्ध नहीं होनी चाहिए। एएनएम उपलब्ध नहीं होती हैं। ऐसे में ग्रामीण और कस्बाई इलाक़ों में रहने वाले लोग, अपने बच्चों के बीमार होने पर ग़ैर-पंजीकृत डॉक्टरों के पास लेकर जाते हैं। ये डॉक्टर उन्हें एंटी-बायोटिक्स दे देते हैं। लेकिन जब कई दिनों तक बच्चे ठीक नहीं होते हैं तब जाकर माँ-बाप अपने बच्चे को लेकर शहर के अस्पताल जाने का सोचते हैं।"
ऐसे में सवाल उठता है कि आख़िर कब तक ख़राब उपकरणों, स्वास्थ्य कर्मचारियों की कम संख्या और शासन का उदासीन रवैया इन जैसे लाखों बच्चों की मौत की वजह बनता रहेगा।