- सलमान रावी
वैसे तो किसी भी चुनाव में जीत का श्रेय किसी अकेले शख्स को नहीं दिया जा सकता। इसके पीछे पार्टी संगठन की रणनीति, चुनाव प्रचार, कार्यकर्ताओं की ताक़त और प्रतिबद्धता होती है।
लेकिन इन सबके बावजूद कुछ चेहरे ऐसे होते हैं जिन्हें इस सफलता की अहम कड़ी कहा जा सकता है। पाँच साल पहले पूर्वोत्तर के जिस राज्य त्रिपुरा में बीजेपी अपना खाता भी नहीं खोल सकी थी और वहाँ के सियासी माहौल में उसे गंभीरता से भी नहीं लिया जाता था, उसने सभी राजनीतिक विश्लेषकों को चौंकाते हुए त्रिपुरा में बेहतरीन प्रदर्शन किया है।
जन्म से मराठी मानुष, सुनील देवधर पूर्वोत्तर भारत में भारतीय जनता पार्टी का वो चेहरा हैं जिसने खुद न तो कभी यहाँ चुनाव लड़ा और ना ही खुद को समाचारों में ही रखा। मगर त्रिपुरा में 25 सालों की वाम सरकार को चुनौती देने और उससे सत्ता छीन लेने का सेहरा भी भारतीय जनता पार्टी सुनील देवधर के सर ही बांधती है।
वर्ष 2013 में विधानसभा के चुनावों में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को 49 सीटें आयीं थीं। जबकि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी यानी सीपीआई को एक। दस सीटों से साथ त्रिपुरा में कांग्रेस पार्टी मुख्य विपक्षी दल थी।
मगर इस बार भारतीय जनता पार्टी वाम दलों को टक्कर देने की स्थिति में अगर आई है तो इसके पीछे सुनील देवधर की भी बड़ी भूमिका है जिन्होंने एक-एक बूथ स्तर पर संगठन खड़ा करना शुरू किया। ये न सिर्फ मेघालय और त्रिपुरा में सक्रिय रहे, बल्कि पूर्वोत्तर भारत के सभी राज्यों में संघ यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के रूप में सक्रिय रहे।
अमित शाह ने जब भाजपा की कमान संभाली तो उन्होंने सुनील देवधर को महाराष्ट्र से वाराणसी भेजा था जहां नरेंद्र मोदी लोक सभा का चुनाव लड़ रहे थे।
पूर्वोत्तर भारत में काम करते करते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे सुनील देवधर ने स्थानीय भाषाएँ सीखीं। जब वो मेघालय के खासी और गारो जनजाति के लोगों से उन्हीं की भाषा में बात करने लगे तो लोग हैरान हो गए। उसी तरह वो फ़र्राटे से बांग्ला भाषा भी बोलते हैं।
कहते हैं कि त्रिपुरा में वाम दलों, कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में सेंध मारने का काम भी उन्होंने ही किया है। विधानसभा के चुनावों से ठीक पहले इन दलों के कई नेता और विधायक भाजपा में शामिल हो गए।
सुनील देवधर का सबसे मज़बूत पक्ष रहा निचले स्तर पर कार्यकर्ताओं को ढूंढना और उन्हें पार्टी में अहमियत देना। बीबीसी से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि उन्होंने सबसे पहले बूथ के स्तर पर संगठन को मज़बूत करना शुरू किया। त्रिपुरा में वाम दलों की जो कार्यशैली रही है मसलन जिस तरह वो अपने कैडर बनाते हैं, उसी को सुनील देवधर ने चुनौती देने का काम किया। त्रिपुरा में यही भाजपा की सफलता की कुंजी के रूप में साबित हुई।
बीबीसी से बात करते हुए सुनील देवधर कहते हैं, "यहाँ पर कांग्रेस की छवि वैसी नहीं है जैसी बाक़ी के राज्यों में है। यहाँ इतने सालों तक कांग्रेस अकेले ही वाम दलों को चुनौती देती रही है। यहाँ कांग्रेस में अच्छे नेता रहे हैं।"
उनका कहना है कि जब वो पूर्वोत्तर भारत का दौरा करते थे तो कांग्रेस के कई नेताओं से उनकी मुलाक़ात होती थी। उन्होंने वहीँ से ऐसे नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करना शुरू किया। फिर बारी आई नाराज़ मार्क्सवादी नेताओं की। इस तरह संगठन फैलता चला गया और मज़बूत होता चला गया।
पूर्वोतर मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार संदीप फुकन ने भी बीबीसी हिंदी से बातचीत में कहा कि सुनील देवधर ने पिछले पांच साल में त्रिपुरा में पार्टी कैडर को मजबूती देने में अहम भूमिका निभाई।