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Written By BBC Hindi
Last Modified: मंगलवार, 27 दिसंबर 2022 (07:47 IST)

नेपाल में प्रचंड बने पीएम लेकिन चर्चा प्रमोद महाजन की क्यों?

नेपाल में प्रचंड बने पीएम लेकिन चर्चा प्रमोद महाजन की क्यों? - prachand becomes nepal pm, why people are discussing about pramod mahajan
रजनीश कुमार, बीबीसी संवाददाता
नेपाल में 2008 में 239 साल पुरानी राजशाही व्यवस्था ख़त्म कर लोकतंत्र आया था। नेपाल का लोकतंत्र अभी 14 साल का हुआ है और 10 सरकारें बदल चुकी हैं।
 
नेपाल के लोकतंत्र को लेकर कई लोग टिप्पणी करते हैं कि यहाँ के नेता सत्ता के लिए जोड़-तोड़ करने में बहुत जल्दी माहिर हो गए। किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने के कारण भारतीय लोकतंत्र में भी यह स्थिति 90 के दशक में थी। रविवार को नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने पूर्व माओवादी गुरिल्ला पुष्प कमल दाहाल प्रचंड को प्रधानमंत्री नियुक्त किया।
 
प्रचंड ने नेपाल में राजशाही के ख़िलाफ़ एक दशक लंबा हिसंक विद्रोह का नेतृत्व किया किया था। वह तीसरी बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने हैं।
 
नेपाल की 275 सदस्यों वाली प्रतिनिधि सभा में प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) के महज़ 32 सदस्य हैं। प्रचंड को केपी शर्मा ओली की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) का समर्थन मिला है। ओली की पार्टी के पास 78 सीटें हैं।
 
अपनी पार्टी के महज़ 32 सदस्यों के साथ प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने पर नेपाल के लोग बीजेपी के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन के एक भाषण को सोशल मीडिया पर शेयर कर रहे हैं।
 
प्रमोद महाजन ने 1997 में लोकसभा में भाषण देते हुए देवगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने पर तंज़ करते हुए एक वाक़या सुनाया था। देवगौड़ा भी एक जून, 1996 को अपनी पार्टी जनता दल के महज़ 46 सांसदों के साथ भारत के प्रधानमंत्री बन गए थे। देवगौड़ा को 13 पार्टियों का समर्थन मिला था और इसे संयुक्त मोर्चा नाम दिया गया था।
 
देवगौड़ा कुल 324 दिनों तक यानी एक जून, 1996 से 21 अप्रैल, 1997 तक प्रधानमंत्री रहे थे। अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन की सरकार 27 मई, 1996 को संख्या बल में कमी के कारण गिर गई थी, तभी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने थे।
 
भारतीय संसद में महाजन का वो भाषण
प्रमोद महाजन ने लोकसभा में देवगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने की पृष्ठभूमि में अपने चीन दौरे का ज़िक्र करते हुए तंज़ किया था।
 
प्रमोद महाजन ने अपने भाषण में कहा था, ''मैं एक संसदीय प्रतिनिधिमंडल के साथ चीन गया था। एक चीनी सांसद ने भारत के लोकतंत्र के बारे में पूछा। मैंने उन्हें भारत के लोकतंत्र को समझाने के लिए एक संदर्भ का उल्लेख किया।''
 
''चीनी सांसद से मैंने कहा कि मैं लोकसभा सांसद हूँ और मेरी पार्टी संख्या बल के लिहाज़ से अभी सबसे बड़ी है। इसके बावजूद हम विपक्ष में हैं। मेरे साथी पानीग्रही दूसरी सबसे बड़ी पार्टी से हैं और ये सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं। एमए देवी तीसरी सबसे बड़ी पार्टी से हैं और ये संयुक्त मोर्चा में हैं लेकिन सरकार के बाहर हैं। ये रामाकांत खलप (गोवा से सांसद) हैं और अपनी पार्टी के एकलौते सांसद हैं लेकिन यह सरकार में हैं। भारत में लोकतंत्र ऐसे ही काम कर रहा है।''
 
प्रमोद महाजन के इस भाषण पर लोकसभा में सारे सदस्य देर तक हँसते रहे थे। जब देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाया गया था तब वह संसद के किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे। तब देवगौड़ा कर्नाटक के मुख्यमंत्री थे।
 
महेश्वर गिरी नेपाल के हैं और वह नई दिल्ली स्थित साउथ एशियन यूनिवर्सिटी में पीएचडी कर रहे हैं। उन्होंने प्रमोद महाजन के इस वीडियो को शेयर करते हुए लिखा है, ''प्रमोद महाजन ने अपने भाषण में बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की सच्चाई बताई थी। नेपाल में भी इसे देखा जा सकता है।''
 
प्रचंड जिस तरह से अपने 32 सांसदों के साथ प्रधानमंत्री बन गए उसी तरह से नेपाल के पड़ोसी राज्य बिहार में 243 सदस्यों वाली विधानसभा में नीतीश कुमार के मात्र 43 विधायक हैं और वह मुख्यमंत्री बने हुए हैं। आरजेडी के 80 विधायक हैं और तेजस्वी यादव उपमुख्यमंत्री हैं। कई लोग कहते हैं कि भारतीय लोकतंत्र की बीमारी नेपाली लोकतंत्र को बहुत जल्दी लग गई।
 
प्रचंड ने 2022 के नवंबर महीने में हुए आम चुनाव नेपाली कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा था। नेपाली कांग्रेस चुनाव में 89 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी।
 
ऐसा माना जा रहा था कि नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा ही प्रधानमंत्री रहेंगे लेकिन प्रचंड ने ऐन मौक़े पर पाला बदल लिया। प्रचंड चाहते थे कि नेपाली कांग्रेस उन्हें प्रधानमंत्री बनाए लेकिन उनकी मांग नहीं मानी गई थी। जून 2021 में प्रचंड के समर्थन से ही देउबा प्रधानमंत्री बने थे।
 
नवंबर 2017 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की पार्टी सीपीएन-यूएमएल यानी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-यूनाइटेड मार्क्सवादी लेनिनवादी और प्रचंड की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) मिलकर चुनाव लड़ी थी।
 
फ़रवरी 2018 में ओली पीएम बने और सत्ता में आने के कुछ महीने बाद प्रचंड और ओली की पार्टी ने आपस में विलय कर लिया था। विलय के बाद नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी बनी। संसद में इनका दो तिहाई बहुमत था। लेकिन ओली और प्रचंड के बीच की यह एकता लंबे समय तक नहीं रही थी।
 
सरकार के स्थिर होने पर सवाल
जब पार्टी का विलय हुआ था, तो यह बात हुई थी कि ओली ढाई साल प्रधानमंत्री रहेंगे और ढाई साल प्रचंड। लेकिन ढाई साल होने के बाद ओली ने कुर्सी छोड़ने से इनकार कर दिया था। इसके बाद से प्रचंड बनाम ओली का खेल शुरू हुआ था और 2021 में संसद भंग कर दी गई। फिर मामला सुप्रीम कोर्ट में गया था और संसद भंग करने के फ़ैसले को रद्द कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के इसी फ़ैसले के बाद शेर बहादुर देउबा प्रधानमंत्री बने थे।
 
अब एक बार फिर से प्रचंड ने पाला बदल लिया है और ओली के खेमे में चले गए हैं। प्रतिनिधि सभा में बहुमत के लिए 138 सीटें चाहिए लेकिन ओली और प्रचंड की सीटें जोड़ लें तब भी बहुमत का आँकड़ा पूरा नहीं होता है। ऐसे में प्रचंड कितने दिनों तक प्रधानमंत्री रहेंगे यह उन छोटी पार्टियों पर निर्भर करेगा, जिन्होंने अभी समर्थन देने की घोषणा की है।
 
रविवार को ओली की पार्टी यूएमएल, प्रचंड की माओवादी सेंटर, राष्ट्रीय स्वतंत्रता पार्टी, राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी, जनमत पार्टी, जनता समाजवादी पार्टी और नागरिक उन्मुक्ति पार्टी की बैठक हुई थी। इसी बैठक में फ़ैसला हुआ था कि पाँच साल के कार्यकाल में पहले ढाई साल प्रचंड प्रधानमंत्री रहेंगे और आगे के ढाई साल ओली पीएम बनेंगे। कहा जा रहा है कि ओली राष्ट्रपति और स्पीकर के पद पर अपना दावा करेंगे।
 
प्रचंड भले अभी प्रधानमंत्री बन गए हैं लेकिन कहा जा रहा है कि वह स्थिर सरकार देने में कामयाब नहीं रहेंगे। 2021 में नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में प्रचंड और अन्य तीन पार्टियों का एक गठबंधन बना था। नेपाल के अंग्रेज़ी अख़बार काठमांडू पोस्ट ने लिखा है कि यह ओली की जीत से बड़ी नेपाली कांग्रेस की हार है। 20 नवंबर को मतदान के बाद से पार्टियाँ एक दूसरे के संपर्क में थीं। ऐसे में ओली और प्रचंड का साथ आना बहुत अप्रत्याशित नहीं है।''
 
प्रचंड के समर्थन में अभी 169 सांसद हैं। इनमें 78 सांसद ओली की पार्टी के हैं, 32 प्रचंड की पार्टी के, 20 राष्ट्रीय स्वतंत्रता पार्टी के, 14 राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी से, 12 सासंद जनता समाजवादी पार्टी से, छह जनमत पार्टी और चार नागरिक उन्मुक्ति पार्टी से हैं। इसके अलावा निर्दलीय सासंद प्रभु शाह, किरण कुमार शाह और अमरेश कुमार सिंह का भी समर्थन है।
 
नेपाल में भारत के राजदूत रहे रंजीत राय से पूछा कि प्रचंड के प्रधानमंत्री बनने को वह कैसे देखते हैं?
 
रंजीत राय कहते हैं, ''इसमें सबसे बड़ी जीत केपी ओली की है। कहाँ वह विपक्ष में रहने वाले थे और अचानक से सत्ता के केंद्र में आ गए हैं। ओली अपना राष्ट्रपति बनाएंगे, स्पीकर बनाएंगे और बाक़ी जो राजनीतिक नियुक्तियां होंगी, उन पर भी उनकी चलेगी।"
 
"राजदूतों की नियुक्ति में भी ओली की चलेगी। दूसरी तरफ़ नेपाली कांग्रेस जीतकर भी हार गई है। अब तो नेपाली कांग्रेस के पास कुछ भी नहीं रहेगा। किसी प्रांत में भी कोई सरकार नहीं होगी। अगर प्रचंड नहीं मान रहे थे तो देउबा को उन्हें प्रधानमंत्री बना देना चाहिए था। नेपाली कांग्रेस पार्टी के पास ज़्यादा सांसद थे और प्रचंड को पीएम बना भी देते तो ऐसा नहीं था कि उनकी मनमानी चलती।''
 
रंजीत राय कहते हैं, ''देउबा पिछले डेढ़ साल से प्रचंड के समर्थन से ही प्रधानमंत्री थे। शेर बहादुर देउबा पाँच बार प्रधानमंत्री बन चुके हैं। ऐसे में उन्हें अड़ने के बरक्स समझदारी दिखानी चाहिए थी।''
 
प्रचंड का पीएम बनना भारत के लिए कैसा रहेगा?
रंजीत राय कहते हैं, ''अच्छा तो यही होता कि नेपाली कांग्रेस और प्रचंड का गठबंधन बना रहता। चीन के लिए हमेशा यह अच्छा होता है कि नेपाल की सारी कम्युनिस्ट पार्टियाँ एक हो जाएं। ओली और प्रचंड का भारत से भी अच्छा सहयोग रहा है लेकिन नेपाल में कम्युनिस्टों के एक होने से चीन को डील करना आसान हो जाता है।''
 
प्रचंड क्या स्थिर सरकार दे पाएंगे?
रंजीत राय कहते हैं, ''प्रधानमंत्री बनने के बाद दो साल से पहले कोई अविश्वास प्रस्ताव तो आएगा नहीं। ऐसे में दो साल तक प्रचंड प्रधानमंत्री तो रहेंगे ही। दो साल के बाद क्या होगा, इसे अभी कहना मुश्किल है।"
 
"लेकिन पूरे घटनाक्रम में नेपाली कांग्रेस की अपरिपक्वता उभरकर सामने आई है। पहले तो देउबा को चुनाव में प्रचंड से गठबंधन नहीं करना चाहिए था। प्रचंड से गठबंधन के कारण नेपाली कांग्रेस के समर्थकों में निराशा थी और इसका असर नतीजों पर भी पड़ा। आपने गठबंधन कर भी लिया था तो प्रचंड के दिमाग़ को समझना चाहिए था। देउबा अगर प्रचंड को पीएम नहीं बनाना चाहते थे तो ओली से संपर्क रखना चाहिए था। अब तो नेपाली कांग्रेस के हाथ से सब कुछ फिसल गया है।''
 
देउबा की ज़िद पड़ी भारी
नेपाल के पूर्व विदेश मंत्री और जनता समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष उपेंद्र यादव से पूछा कि वह प्रचंड के तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने को कैसे देखते हैं? उपेंद्र यादव कहते हैं, ''शेर बहादुर देउबा की ज़िद के कारण ओली सत्ता में आ गए और प्रचंड महज़ 32 सीटें जीत कर प्रधानमंत्री बन गए। पहले तो देउवा को गठबंधन नहीं करना चाहिए था और गठबंधन कर लिया था तो प्रचंड को मौक़ा दे देना चाहिए था।''
 
उपेंद्र यादव की पार्टी भी प्रचंड का समर्थन कर रही है। यादव से पूछा कि भारत से अच्छे संबंध के लिहाज़ से इस बार प्रचंड का पीएम बनना कैसा रहेगा? उपेंद्र यादव कहते हैं, ''यहाँ के वामपंथियों को समझ लेना चाहिए कि कौन दोस्त है और कौन दुश्मन। प्रचंड अब पहले से बहुत बदले हैं और भारत को लेकर उनकी सोच अब पहले की तरह नहीं है।''
 
चुनावी नतीजे आने के बाद प्रचंड 32 सीटों से ख़ुश नहीं थे। उन्होंने नतीजे से निराश होकर कहा था कि विदेशी ताक़तों ने नेपाल के चुनाव में हस्तक्षेप किया है, इसलिए उनकी पार्टी का प्रदर्शन ठीक नहीं रहा।
 
भारत में 1996-97 में नेपाल के राजदूत रहे लोकराज बराल कहते हैं, ''नेपाल में विदेशी हस्तक्षेप ख़ुद से नहीं आता। हम इसे इन्वाइटेड हस्तक्षेप कहते हैं। यानी आमंत्रित हस्तक्षेप। ये आज की बात नहीं है। ऐसा नेहरू के ज़माने से हो रहा है। हर बार यहाँ की राजनीतिक पार्टियाँ अपनी सत्ता बचाने के भारत या चीन का सहारा लेती हैं और कहती हैं कि बाहरी हस्तक्षेप हो रहा है।''
 
नेपाल और चीन
नेपाल और चीन के बीच एक अगस्त 1955 को राजनयिक रिश्ते की बुनियाद रखी गई। दोनों देशों के बीच 1,414 किलोमीटर लंबी सीमा है। नेपाल और चीन के बीच की यह सीमा ऊँचे और बर्फ़ीले पहाड़ों से घिरी हुई है। हिमालय की इस लाइन में नेपाल के 16.39 फ़ीसदी इलाक़े आते हैं।
 
यह सीमा नेपाल के उत्तरी हिस्से के हिमालयन रेंज में है। हालाँकि यह सीमा नेपाल और तिब्बत के बीच थी, लेकिन चीन ने तिब्बत को भी अपना हिस्सा बना लिया था। नेपाल हमेशा से चीन को लेकर संवेदनशील रहा। वन चाइना पॉलिसी का नेपाल ने हर हाल में पालन किया है और चीन के हिसाब से क़दम भी उठाया है।
 
21 जनवरी 2005 को नेपाल की सरकार ने दलाई लामा के प्रतिनिधि ऑफिस, जिसे तिब्बती शरणार्थी कल्याण कार्यालय के नाम से जाना जाता था, उसे बंद कर दिया। काठमांडू स्थित अमेरिकी दूतावास ने इसे लेकर कड़ी आपत्ति जताई थी, लेकिन नेपाल अपने फ़ैसले पर अडिग रहा। चीन ने नेपाल के इस फ़ैसले का स्वागत किया था।
 
1962 के भारत-चीन युद्ध के समय नेपाल ने ख़ुद को तटस्थ रखा। नेपाल ने किसी का पक्ष लेने से इनकार कर दिया। नेपाली डिप्लोमैट हिरण्य लाल श्रेष्ठ कहते हैं कि भारत का पूरा दबाव था कि इस जंग में भारत के साथ नेपाल खुलकर आए।
 
प्रचंड इसी साल जुलाई में बीजेपी मुख्यालय दिल्ली आए थे और उन्होंने बीजेपी प्रमुख जेपी नड्डा से भी मुलाक़ात की थी।
 
उनकी पार्टी के एक नेता का कहना है कि तब प्रचंड की मुलाक़ात भारतीय प्रधानमंत्री मोदी से भी होनी थी लेकिन नहीं हो पाई थी। नेपाल पहुँचने के बाद प्रचंड से पत्रकारों ने पूछा था कि उनकी मुलाक़ात पीएम मोदी से क्यों नहीं हो पाई तो उन्होंने कहा था- मुझे नहीं पता कि मुलाक़ात क्यों नहीं हुई।
 
प्रचंड पहली बार जब 2008 में नेपाल के प्रधानमंत्री बने थे तब उन्होंने पहला विदेशी दौरा चीन का किया था। नेपाल में अब तक परंपरा थी कि प्रधानमंत्री शपथ लेने के बाद पहला विदेशी दौरा भारत का करता था। प्रचंड ने यह परंपरा तोड़ी थी और इसे उनके चीन के क़रीब होने से जोड़ा गया था।
 
प्रधानमंत्री नियुक्त किए जाने के बाद सोमवार को प्रचंड के आधिकारिक ट्विटर अकाउंट से चीन के क्रांतिकारी नेता माओत्से तुंग की 130वीं जयंती की बधाई देते हुए लिखा गया है, ''अंतरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग के महान नेता कॉमरेड माओत्से तुंग की 130वीं जयंती पर सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।''
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