चंदन कुमार जजवाड़े, बीबीसी संवाददाता, पटना (बिहार) से
लालू प्रसाद यादव समाजवादी विचारधारा की राजनीति करते रहे हैं, जबकि बाला साहब ठाकरे के ज़माने से ही शिवसेना कट्टर हिंदुवादी पार्टी मानी जाती रही है। बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव लालू के बेटे हैं, जबकि महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री आदित्य ठाकरे बाला साहब ठाकरे के पोते हैं।
महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बेटे और राज्य सरकार में मंत्री रहे आदित्य ठाकरे बुधवार को पटना पहुँचे। यहाँ आदित्य ठाकरे ने बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के मुलाक़ात की। बाद में आदित्य और तेजस्वी एक साथ ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से भी मिलने पहुँचे।
शिवसेना इस मुलाक़ात को 'संविधान और प्रजातंत्र को बचाने' की मुलाक़ात बता रही है। वहीं, जेडीयू ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ मुलाक़ात को शिष्टाचार के नाते मिलना बताया है। जबकि तेजस्वी यादव ने लोकतंत्र और विपक्षी एकता की बात की है। बीजेपी ने इस मुलाक़ात पर नीतीश कुमार पर निशाना साधा है।
बिहार बीजेपी के अध्यक्ष संजय जायसवाल ने बीबीसी से कहा, "आदित्य ठाकरे जी अपनी ज़मीन तलाश कर रहे हैं। एक तरह से उनका सीधे तेजस्वी यादव से मिलना यह बताता है कि बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार अप्रासंगिक हो गए हैं।"
संजय जायसवाल का कहना है कि तेजस्वी यादव ने एक औपचारिकता के तौर पर आदित्य ठाकरे को नीतीश कुमार से मिलवा दिया। लेकिन अब कोई बाहर का भी आता है तो वो सीधा तेजस्वी से ही मिलना पसंद करता है।
महाराष्ट्र की राजनीति
हालाँकि महाराष्ट्र में इस मुलाक़ात के अलग मायने निकाले जा रहे हैं। महाराष्ट्र की राजनीति पर नज़र रखने वाली वरिष्ठ पत्रकार सुजाता आनंदन मानती हैं कि ये विपक्षी एकता का ही एक हिस्सा है। हालाँकि आदित्य ठाकरे शिवसेना में टूट के बाद पार्टी को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं।
शिवसेना का महाराष्ट्र में पहला मुक़ाबला बाला साहब ठाकरे के 'असली उत्तराधिकारी' होने का दावा करने वाले एकनाथ शिंदे गुट से है। हालांकि सुजाता आनंदन मानती हैं कि बाला साहब ठाकरे की कोई विचारधारा नहीं थी, वो एक अलग किस्म के नेता थे और उनकी विचारधारा वो ख़ुद थे।
जब लालू यादव ने दी थी बाला साहब ठाकरे को चुनौती
दूसरी तरफ़, तेजस्वी यादव को लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक ज़मीन पर चलना है, जो हमेशा से कट्टर हिन्दुत्व के ख़िलाफ़ रही है। महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार की राजनीति 'एंटी नॉर्थ इंडिया' या 'यूपी-बिहार जैसे राज्यों से मुंबई में बसने वालों के ख़िलाफ़' रही है।
शिवसेना का मुंबई में रहने वाले यूपी और बिहार के लोगों के ख़िलाफ़ बयानबाज़ी का इतिहास रहा है। कई बार इस तरह के विरोध में हिंसा भी हुई है।
सुजाता आनंदन याद करती हैं, "जब 1995 में शिवसेना पहली बार सत्ता में आई थी तो बाला साहब ठाकरे ने कहा था कि उत्तर भारतीयों को राशन कार्ड नहीं देना चाहिए। बाद में लालू यादव ने शिवाजी पार्क में एक रैली की और उसमें बहुत भारी भीड़ जुटी थी। उसके बाद बाला साहब ठाकरे पीछे हट गए।"
लेकिन अब राजनीति की इस नई तस्वीर में एक तरफ बाला साहब ठाकरे के पोते आदित्य ठाकरे हैं तो दूसरी तरफ लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव हैं।
विपक्षी एकता की कोशिश
बाला साहब ठाकरे और लालू प्रसाद यादव दोनों एक-दूसरे के कट्टर विरोधी रहे हैं।
सुजाता आनंदन बताती हैं, "लालू यादव और बाला साहब ठाकरे के बीच कभी सीधा टकराव नहीं हुआ, लेकिन वो दोनों कभी एक-दूसरे के साथ भी नहीं थे। वो ज़माना भी अलग था। उस समय शिवसेना और बीजेपी साथ थी। उस समय की बीजेपी भी आज से अलग थी।"
ऐसे में दोनों परिवारों के युवा नेताओं की इस मुलाक़ात को 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए विपक्षी एकता के तौर पर भी पेश किया जा रहा है।
आदित्य ठाकरे इससे पहले राहुल गांधी की 'भारत जोड़ो यात्रा' में शामिल हो चुके हैं। वहीं, तेजस्वी यादव ने महाराष्ट में उद्धव ठाकरे की सरकार को गिराने के लिए सरकारी एजेंसियों और पैसे के दुरुपयोग की बात कही थी। विपक्ष की एकता तैयार करने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी लगातार सक्रिय हैं।
दोस्ती या बिहारी वोटरों पर निशाना
पटना के एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट के पूर्व निदेशक और राजनीतिक मामलों के जानकार प्रोफ़ेसर डीएम दिवाकर इसके पीछे एक और वजह देखते हैं।
उनका मानना है कि आज पूरे देश में एक तरह से पहचान के संकट की राजनीति चल रही है जिसमें जाति और क्षेत्र दोनों का महत्व है।
डीएम दिवाकर बताते हैं, "बिहार जाति, धर्म और क्षेत्र तीनों का प्रतिनिधित्व करता है। तेजस्वी यादव आज की तारीख़ में बिहार के सबसे बड़े युवा नेता हैं। बिहार के मास लीडर हैं। ऐसा माना जाता है कि वो लालू यादव की विरासत को बेहतर तरीक़े से आगे ले जा रहे हैं।"
उन्होंने कहा, "मुंबई बिहारियों का एक तरह से अड्डा है। वहाँ काम करने वाले मज़दूर, ऑटो रिक्शा या बाक़ी गाड़ियाँ चलाने वाले ड्राइवर, सड़क किनारे के छोटे-मोटे कारोबार - इन सबमें बड़ी संख्या में बिहार के लोग काम करते हैं। आदित्य ठाकरे के मन में इन्हीं वोटरों को लुभाना हो सकता है, इसलिए वो राज्य के नेताओं से मुलाक़ात कर रहे हैं।"
दरअसल, शिवसेना के टूटने के बाद इसके दोनों ही गुट ख़ुद को बाला साहब ठाकरे के असली उत्तराधिकारी बता रहे हैं। ऐसे में बिहार और यूपी से आकर बसे वोटरों पर आदित्य ठाकरे की नज़र हो सकती है।
महंगाई और बेरोज़गारी का मुद्दा
डीएम दिवाकर मानते हैं, "अगर तेजस्वी यादव साथ खड़े हो जाते हैं तो इसका लाभ आदित्य ठाकरे को मिल सकता है। इसी उम्मीद में आदित्य ठाकरे ने तेजस्वी यादव से मुलाक़ात की है। बिना फ़ायदे के कोई किसी से नहीं मिलता।"
वरिष्ठ पत्रकार सुजाता आनंदन भी मानती हैं कि मुंबई महानगरपालिका के चुनाव आने वाले हैं। वहाँ बड़ी संख्या में बिहारी और उत्तर भारतीय हैं। उनके लिए भी महंगाई और बेरोज़गारी एक मुद्दा है। तेजस्वी के साथ आने से ऐसे वोटर उद्धव ठाकरे वाली शिव सेना की तरफ़ मुड़ सकते हैं।
साल 2011 की जनसंख्या के आधार पर 22 जुलाई 2019 को टाइम्स ऑफ़ इंडिया अख़बार में एक रिपोर्ट छपी थी। इसके मुताबिक़ मुंबई में क़रीब 18 फ़ीसदी आबादी उत्तर प्रदेश की थी जबकि महज़ 2।8 फ़ीसदी आबादी बिहार से आकर बसे लोगों की थी। अब इस संख्या में अच्छी-ख़ासी बढ़ोतरी हुई होगी।
तेजस्वी को क्या हो सकता है फ़ायदा?
वहीं, इस मुलाक़ात से तेजस्वी यादव को भी फ़ायदा हो सकता है। दरअसल बिहार और यूपी जैसे राज्यों से मुंबई, दिल्ली या सूरत जैसे शहरों में लगातार लोगों का पलायन हो रहा है।
डीएम दिवाकर का मानना है कि भारत में जिस तरह के विकास को अपनाया गया है उसमें बिहार में दूर-दूर तक उद्योग की संभावना ख़त्म हो गई है। भविष्य में भी बिहारियों का पलायन जारी रहेगा।
इस कारण बिहार के लोग बड़ी संख्या में दूसरे बड़े शहरों के वोटर बनते रहेंगे। इस नए बन रहे वोटरों का दबाव दूसरी पार्टियों पर भी होगा और उन्हें लुभाने की कोशिश दूसरी पार्टियाँ भी कर सकती हैं।
डीएम दिवाकर मानते हैं कि इसका फ़ायदा माइग्रेंट लेबरर्स को हो सकता है और हो सकता है कि इससे भविष्य में उनकी स्थिति थोड़ी बेहतर हो जाए। यानी मुंबई जैसे शहरों में बसे बिहार के लोगों की बेहतरी के लिए अगर भविष्य में कुछ होता है तो तेजस्वी यादव इसका क्रेडिट लेने के लिए दावा कर सकते हैं।
मराठी मानुष की राजनीति
दूसरी तरफ़, शिवसेना की राजनीति में बिहार और यूपी जैसे राज्यों के लोगों के ख़िलाफ़ बयान या हिंसा का भी इतिहास रहा है।
इस मुद्दे पर बीबीसी ने शिवसेना (उद्धव गुट) सांसद प्रियंका चतुर्वेदी से सवाल पूछा। इस पर प्रियंका चतुर्वेदी ने जवाब दिया, "आप कौन से साल, कौन सी सदी की बात कर रहे हैं?"
ज़ाहिर है फ़िलहाल शिवसेना पुरानी बातों को याद नहीं करना चाहती। वहीं तेजस्वी यादव ने कहा है कि 'हमें हर किसी को साथ लेकर चलना है।'
लेकिन शिवसेना की राजनीति में मराठा पहचान भी अहम मुद्दा रही है। मराठी मानुष की राजनीति का दबाव भी उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे पर हो सकता है।
ऐसे में मराठी वोटरों और बिहारी वोटरों को एक साथ रख पाना कितना आसान होगा? डीएम दिवाकर मानते हैं कि नेताओं को यह काम बहुत बेहतर तरीके से आता है।
वो कहते हैं, "नेता लोग रंग बदल लेते हैं और वो मराठों से भी बात कर लेंगे। हो सकता है कि अब इतने आक्रमक ना हों कि 'बिहारियों को मुंबई से भगाओ' की बात करें, लेकिन मराठी लोगों को अलग सुविधा या क्षेत्रीय वादे की बात करके उन्हें भी लुभा सकते हैं।"
चित्र सौजन्य: आदित्य ठाकरे ट्विटर अकाउंट