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Written By BBC Hindi
Last Modified: सोमवार, 6 फ़रवरी 2023 (10:24 IST)

परवेज़ मुशर्रफ़- भारत के साथ कभी प्यार, कभी नफ़रत का नाता रखने वाले पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति

Pervez Musharraf
- सौतिक बिस्वास
2001 में परवेज़ मुशर्रफ़ को लगा कि भारत के साथ उनके मुल्क के टूटे बिखरे रिश्ते को फिर से बहाल करने का वक्त आ गया है। उन्होंने इसके लिए 'नया इतिहास' बनाने की पहल भी की।

ये दुनिया को पता है परमाणु शक्ति संपन्न दोनों पड़ोसी देश अब तक 3 बार युद्ध लड़ चुके हैं और इनके बीच कश्मीर के विवादित हिस्सों को लेकर संघर्ष बरसों से जारी है। इसकी वजह से कश्मीर से लगी सरहद पर लगातार अशांति बनी रहती थी। ऐसे में मुशर्रफ़ के लिए वो मौक़ा कतई वाजिब नहीं था कि वो अपने पड़ोसी देश के साथ शांति की पहल कर सकें।

भारत की नज़र में खुद मुशर्रफ़ की छवि को लेकर भी सवाल थे। भारत उन्हें 1999 के करगिल युद्ध के 'कर्ता-धर्ता' के रूप में देख रहा था। भारत को ये भी शक़ था कि 1999 में इंडियन एयरलाइंस के विमान को हाइजैक कराने में भी पाकिस्तानी जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ और उनकी सेना का हाथ था।

अक्टूबर 1999 में मुशर्रफ़ ने जिस तरह तख़्तापलट करते हुए प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ को सत्ता से बाहर किया, भारत इस वजह से भी मुशर्रफ़ को लेकर सतर्कता बरत रहा था। उस वक्त के हालात को मुशर्रफ़ अपने संस्मरण में बयां करते हैं। वो लिखते हैं भारत के साथ शांति के लिए मुफ़ीद वक्त इसलिए लगा था क्योंकि 2001 के गुजरात भूकंप के बाद वहां संकट की स्थिति थी।

मुशर्रफ़ और भारत के साथ उनका 'पीस प्लान'
मुशर्रफ़ का जन्म खुद अविभाजित भारत की राजधानी दिल्ली में हुआ था। भूकंप के बाद उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को फ़ोन किया और उस कुदरती आफ़त पर शोक व्यक्त करने के साथ राहत समग्री भी भेजी।

मुशर्रफ़ कहते हैं, उस पहल के बाद उनकी कड़वाहट थोड़ी कम हुई और उन्हें भारत आने और बैठक करने का न्योता मिला। हालांकि पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री ख़ुर्शीद महमूद कसूरी के संस्मरण में इन घटनाओं का अलग ही ब्योरा मिलता है।

वो लिखते हैं, दरअसल ये पूरा घटनाक्रम उस वक्त के भारत के उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के 'हृदय परिवर्तन' की वजह से संभव हुआ। मुशर्रफ़ को भारत आने के लिए न्योता देने का आइडिया उन्हीं का था। उनको लगता था इस न्योते का स्वागत भारतीय प्रधानमंत्री की तरफ से 'बड़ी राजनीतिक पहल' के तौर पर किया जाएगा।

इस तरह मुशर्रफ़ के भारत आने और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ बैठक जुलाई 2002 में तय की गई, लेकिन आगरा में चली 2 दिवसीय बैठक नाटकीय घटनाक्रमों से भरी रही। दोनों मुल्कों के नेताओं और विदेश मंत्रियों के साथ बैठक तय समय से लंबी चली। लेकिन संयुक्त समझौते को लेकर दो-दो कोशिशों के बाद भी दोनों देशों की तरफ से संयुक्त समझौते पर सहमति नहीं बनी। इस नाकामी की वजह से मुशर्रफ़ नाराज़ हुए और तैश में आकर आगरा से वापस लौट गए।

मुशर्रफ़ की वजह से आगरा शिखर बैठक नाकाम?
मुशर्रफ़ के मुताबिक़, आगरा छोड़ने से पहले रात में ही उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी को फ़ोन किया था। अपने संस्मरण में वो लिखते हैं, मैंने वाजपेयी को दो टूक कह दिया था कि ऐसा लगता है कि यहां कोई ऐसा है जो हम दोनों से ऊपर है और हमारे फ़ैसले रद्द करने की ताक़ रखता है। मैंने वायपेयी से ये भी कहा कि आज हम दोनों ही इस वजह से शर्मिंदा हुए हैं।

मुशर्रफ़ आगे लिखते हैं, वो (वाजपेयी) चुपचाप, बिलकुल खामोश बैठे थे। मैंने उन्हें शुक्रिया कहा और अचानक वहां से चला आया। मुशर्रफ़ मानते हैं कि वाजपेयी उस 'ऐतिहासिक मौक़े' का फ़ायदा उठाने से चूक गए। इस पूरे घटनाक्रम को लेकर भारत की व्याख्या बिलकुल अलग और ज्यादा संजीदा है। भारत के मुताबिक़ आगरा शिखर बैठक मुशर्रफ़ के 'बड़ा बनने' की फ़ितरत की वजह से नाकाम हुआ।

मुशर्रफ़ की 'सैनिक तानाशाही' ने बिगाड़ा माहौल?
भारत के तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह उस दिन को याद करते हुए कहते हैं, पूरा माहौल दरअसल भारतीय पत्रकारों के साथ मुशर्रफ़ की उस प्रेस कॉन्फ्रेंस से ख़राब हुआ, जो वाजपेयी जी से द्विपक्षीय बातचीत से पहले उन्होंने की।

दरअसल उस अनौपचारिक प्रेस कॉन्फ्रेंस में शामिल कुछ पत्रकारों ने मुशर्रफ़ की 'ऑफ़ द रिकार्ड' बातचीत रिकार्ड कर ली। इसके वीडियो भारतीय समाचार मीडियम तक पहुंच गए। उस बैठक में शामिल एक संपादक के मुताबिक़, इस तरह दो नेताओं के बीच होने वाली निजी बैठक सार्वजनिक तमाशे में बदल गई।

अपने संस्मरण में जसवंत सिंह लिखते हैं, मुशर्रफ़ के बड़बोले स्वभाव ने यहां भी अपना रंग दिखाया। वो कई ऐसी टिप्पणियां कर बैठे, जो अकारण और अनर्गल थीं। जसवंत सिंह के मुताबिक, मुशर्रफ़ इस बात को समझ ही नहीं सके कि करगिल युद्ध की वजह से दोनों देशों के बीच विश्वास का माहौल कितना कमज़ोर हुआ है, फिर भी प्रधानमंत्री वाजपेयी उन्हें एक 'नई शुरुआत' का मौक़ा दे रहे हैं।

जसवंत सिंह लिखते हैं, उस कॉन्फ्रेंस में मुशर्रफ़ ने यहां तक कह दिया कि कश्मीर में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद नहीं है और वो कश्मीर मुद्दे को सुलझाना चाहते हैं।जसवंत सिंह के मुताबिक पाकिस्तानी जनरल जैसे भारत के साथ किसी भी तरह से समझौते के लिए हड़बड़ी में थे।

वो अपनी किताब में लिखते हैं कि जब समझौते का प्रारूप प्रधानमंत्री वाजपेयी और कैबिनट के सदस्यों को दिखाया गया, तो उनकी सामूहिक राय ये थी कि इसमें आतंकवाद के मसले पर पर्याप्त ज़ोर नहीं दिया गया है। ख़ासतौर से आतंकवाद को ख़त्म करने को लेकर। ये ऐसा मसला था जो पाकिस्तान से जुड़ा था। ये उसकी प्राथमिकता थी। इस पर हम कैसे आगे बढ़ सकते थे।

जसवंत सिंह ने अपनी किताब में ये भी लिखा है कि प्रधानमंत्री वाजपेयी ने बाद में उन्हें खुद ये कहा कि जनरल साहब (मुशर्रफ़) बैठक में लगातार बोले जा रहे थे और मैं सुनता जा रहा था। जसवंत सिंह के मुताबिक़ आगरा शिखर बैठक से सबसे बड़ा सबक ये मिला कि दोनों देशों के बीच शिखर बैठक के लिए बड़बोलापन कतई अच्छा नहीं है। वो लिखते हैं, इस तरह की राजनयिक बैठकें सैन्य युद्धाभ्यास या फैशन के अनुकूल आसानी से नहीं होती।

जब मुशर्रफ़ ने वाजपेयी की तरफ हाथ बढ़ाया
मुशर्रफ़ ने अपने संस्मरण में उसी साल की एक और दिलचस्प घटना का जिक्र किया है। ये नेपाल में हो रहे क्षेत्रीय सम्मेलन की बात है। मुशर्रफ़ ने लिखा है, सम्मेलन के दौरान वो उस टेबल के सामने गए जहां वाजपेयी बैठे थे। उन्होंने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। इस तरह उन्होंने वाजपेयी के लिए पास खड़े होने और उनसे हाथ मिलाने के सिवा कोई चारा नहीं छोड़ा।

मुशर्रफ़ मानते हैं कि नेपाल में उस 'हाथ मिलाने' की घटना असरदार साबित हुई और वाजपेयी जनवरी 2002 में क्षेत्रीय सम्मेलन में हिस्सा लेने पाकिस्तान आने को तैयार हुए। इसी दौरान दोनों देश शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने पर सहमत हुए। हालांकि उस साल अप्रैल-मई में हुए आम चुनावों में बीजेपी सत्ता से बाहर हो गई।

2004 के सितंबर में मुशर्रफ़ भारत के नए प्रधानमंत्री मनोहन सिंह से न्यूयॉर्क के संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में मिले। 2005 में वो भारत और पाकिस्तान के बीच एक क्रिकेट मैच देखने भारत आए और दोनों नेता 'बिलकुल अलग सोच' के साथ समाधान निकालने के लिए शांति प्रक्रिया आगे बढ़ाने पर राज़ी हुए।

क्या कामयाब होता मुशर्रफ़ का '4 सूत्री प्लान'?
2006 में मुशर्रफ़ ने कश्मीर समस्या पर 'चार सूत्री योजना' पेश की थी। कई विशेषज्ञ भारत के साथ गतिरोध ख़त्म करने की दिशा में इस योजना को व्यावहारिक मानते हैं। इनके मुताबिक़ मुशर्रफ़ की योजना का सबसे बेहतरीन हिस्सा था पाकिस्तान की तरफ से वो पेशकश, जिसमें कहा गया था, हम भारत पर कब्ज़े वाले कश्मीर पर से अपना दावा छोड़ देंगे अगर इसके दोनों हिस्से में बसे लोगों को आने-जाने की आज़ादी मिले।

हालांकि भारत की राय मुशर्रफ़ को लेकर हमेशा बंटी रही। जसवंत सिंह मुशर्रफ़ के दोहरे रूप पर सवाल खड़े करते हुए लिखते हैं, क्या वो शांतिप्रिय व्यक्ति लगते हैं? या वो एक धूर्त और लोक-लुभावनवादी हैं, जिसने 'आत्म-निर्णय' के लिए कश्मीर आंदोलन का समर्थन किया। और अब अपनी भारत विरोधी छवि को दबाते हुए भारत के प्रति तुष्टिकरण का रवैया अपना रहे हैं?

जसवंत सिंह की इस राय का समर्थन माइकल कूगलमैन भी करते हैं। वॉशिंग्टन के रहने वाले माइकल कूगलमैन एशियाई मामलों के विश्लेषक हैं और विल्सन सेंटर में एशिया प्रोग्राम के डिप्टी डायरेक्टर हैं।

कूगलमैन कहते हैं, भारत के प्रति दुश्मनी और मुशर्रफ़ की क्रूरता जगजाहिर है। इसके सबूत भारत को लेकर खुद उनकी बनाई नीतियां हैं, जिसमें अमेरिका से मिली आर्थिक मदद का कुछ हिस्सा आतंकवादियों तक पहुंचाने से लेकर उनकी ट्रेनिंग सुनिश्चित की जाती रहीं। ये सब ज़ाहिर है भारत को निशाना बनाने के लिए किया गया।

लेकिन कूगलमैन मुशर्रफ़ की उस पहल की तारीफ भी करते हैं, जिसमें उन्होंने भारत के साथ शांति का सपना देखा। कूगलमैन कहते हैं, हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि मुशर्रफ़ पाकिस्तान के वो पहले नेता थे, जो भारत के साथ शांति कायम करने की दिशा में इतने करीब पहुंच चुके थे।

कूगलमैन मानते हैं कि इस मामले में कुछ विरोधाभासी तथ्य भी हैं। वो ये कि अगर 2007 में पाकिस्तान में 'लोकतंत्र समर्थित आंदोलन' नहीं क़ामयाब हुआ होता, जिसकी वजह से मुशर्रफ़ सत्ता से बाहर हुए और 2008 में मुंबई आतंकी हमले नहीं हुए होते, तो वो भारत के साथ स्थाई शांति समझौता करने में कामयाब हो सकते थे।

कूगलमैन के मुताबिक़, अगर ऐसा हुआ होता तो मुशर्रफ़ के निधन के बाद उनकी विरासत के बारे में जो बाते कर रहे हैं, उन्हें हम बिलकुल अलग तरीके से याद कर रहे होते।
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