गुरुवार, 19 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. बीबीसी हिंदी
  3. बीबीसी समाचार
  4. joshimath crisis : How people are living in cramp effected city
Written By BBC Hindi
Last Modified: बुधवार, 11 जनवरी 2023 (07:38 IST)

जोशीमठ: ज़मीन में समाते कस्बे में जीना कैसा है?

जोशीमठ: ज़मीन में समाते कस्बे में जीना कैसा है? - joshimath crisis : How people are living in cramp effected city
सौतिक बिस्वास & राजू गोसाईं, बीबीसी संवाददाता
उत्तराखंड के जोशीमठ में रहने वाले 52 वर्षीय प्रकाश भोतियाल की दो जनवरी की तड़के सुबह एक तेज़ आवाज़ के साथ नींद खुली। भोतियाल ने लाइट ऑन करके अपने हाल ही में बने घर को चेक किया तो उन्हें 11 में से 9 कमरों में दरारें दिखाई दीं। इसके बाद से भोतियाल का परिवार अपने घर के उन दो कमरों में रह रहा है, जहां दरारें सबसे कम हैं।
 
भोतियाल कहते हैं, "हम देर रात तक जागते रहते हैं। छोटी सी आवाज़ भी हमें डरा देती हैं। जब हम सोने जाते हैं तब भी किसी भी वक़्त निकलने के लिए तैयार रहते हैं।" लेकिन भोतियाल और जोशीमठ में रहने वाले उनके जैसे दूसरे लोगों के लिए हालात घरों से बाहर भी सुरक्षित नहीं हैं।
 
स्थानीय अधिकारियों का कहना है कि दो घाटियों के मिलने की जगह पर 6,151 फीट की ऊंचाई पर पहाड़ किनारे बसे बीस हज़ार लोगों की आबादी वाले जोशीमठ शहर की ज़मीन धीरे-धीरे धंस रही है। अब तक जोशीमठ के 4500 इमारतों में से 670 से ज़्यादा इमारतों में दरारें पड़ चुकी हैं जिनमें एक स्थानीय मंदिर शामिल है।
 
गिरती दीवारों को संभालने की कोशिश
दो होटल झुककर एक दूसरे पर धंस गए हैं। और खेतों से पानी निकल रहा है जिसकी वजह अब तक स्पष्ट नहीं है।
 
स्थानीय प्रशासन ने अब तक इस शहर में रहने वाले 80 परिवारों को उनके घरों से निकालकर स्कूलों, होटलों और होमस्टे में जगह दी है।
 
केंद्र से लेकर राज्य स्तर की आपदा प्रबंधन टीमें जोशीमठ पहुंच चुकी हैं और ज़रूरत पड़ने पर बचाव अभियानों को अंजाम देने के लिए हेलीकॉप्टर मांगे गए हैं।
 
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा है, "हमारी पहली प्राथमिकता ज़िंदगियां बचाना है।" लेकिन लोग यहां जिस तरह रहते हैं, उस लिहाज़ से ये काफ़ी मुश्किल लगता है।
 
52 वर्षीय दिहाड़ी मजदूर दुर्गा प्रसाद सकलानी के तीन कमरों वाले घर में दरारें पड़ने के बाद प्रशासन ने उन्हें एक स्थानीय होटल में शिफ़्ट कर दिया है।
 
लेकिन सकलानी दिन में अपनी गायों को चारा डालने और खाना बनाने के लिए अपने ज़मीन में समाते घर में लौट आते हैं।
 
सकलानी के परिवार ने अपने गिरती दीवारों को संभालने के लिए लकड़ी के लट्ठे लगा दिए हैं। सकलानी की पत्नी की हाल ही में एक स्थानीय क्लिनिक में सर्जरी हुई है। और परिवार को समझ नहीं आ रहा है कि वह उस संकरे से होटल में कैसे ठीक हो पाएंगी।
 
इस परिवार की सदस्य नेहा सकलानी कहती हैं, "हम धीरे-धीरे अपने घर को बिखरते देख रहे हैं क्योंकि हर बीतते दिन के साथ दरारें चौड़ी होती जा रही हैं। ये देखना काफ़ी डरावना है।'
 
भूस्खलन के मलबे पर टिका जोशीमठ?
जोशीमठ पर इस समय जो संकट मंडरा रहा है, उस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जोशीमठ कुछ ऐसे ही भौगोलिक हालात में अस्तित्व में आया था। ये पूरा कस्बा एक पहाड़ की ढलान पर कुछ सौ साल पहले आए भूकंप की वजह से हुए भूस्खलन के मलबे पर टिका हुआ है। यही नहीं, ये इलाका भूकंप प्रभावित क्षेत्र में भी आता है।
 
ऐसे में इस क्षेत्र की ज़मीन कई कारणों से धसक सकती है। इनमें पृथ्वी की क्रस्ट में होती गतिविधियों से लेकर भूकंप आदि शामिल हैं जिनकी वजह से ज़मीन की ऊंचाई में बदलाव हो सकते हैं।
 
यही नहीं, भूगर्भीय जल के लगातार बहने की वजह से ज़मीन अपने ठीक नीचे वाली सतह के क्षरण से धंस सकती है।
 
भूगर्भशास्त्री मानते हैं कि भूगर्भीय जल स्रोतों के अति-दोहन से भी ज़मीन धंस सकती है। इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता इसकी उदाहरण है जो दुनिया के किसी दूसरे शहर से तेज़ ज़मीन में समा रही है।
 
अमेरिकी जियोलॉजिकल सर्वे के मुताबिक़, दुनिया भर में 80 फीसद से ज़्यादा ज़मीन भूगर्भीय जल के अति दोहन की वजह से धंस रही है।
 
जोशीमठ में जो कुछ हो रहा है, उसके लिए प्राथमिक रूप से मानवीय गतिविधियां ज़िम्मेदार नज़र आती हैं। बीते कुछ दशकों में खेती के लिए काफ़ी ज़्यादा मात्रा में जल दोहन किया गया है जिससे यहां की ज़मीन कमजोर हो गयी है। और मिट्टी नीचे जाने की वजह से ये पूरा कस्बा धंस रहा है।
 
क्यों दरक रहा है जोशीमठ?
भूगर्भ शास्त्री डीपी डोभाल इस स्थिति को काफ़ी अलार्मिंग बताते हैं। साल 1976 में हुए एक अध्ययन में सामने आया था कि जोशीमठ कस्बा ज़मीन में धंस रहा है। इस अध्ययन के बाद इस क्षेत्र में भारी निर्माण पर प्रतिबंध लगाना का सुझाव दिया गया था।
 
इस अध्ययन में ये भी सामने आया था कि जल निकासी की पर्याप्त व्यवस्था न होने से यहां भूस्खलन की घटनाएं सामने आ रही हैं। इसके साथ ही चेतावनी दी गयी थी कि जोशीमठ लोगों के रहने के लिए उचित जगह नहीं है।
 
लेकिन इन चेतावनियों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। पिछले कुछ दशकों में ये शांत सा कस्बा हज़ारों लोगों की आबादी वाला शहर बन गया जहां लाखों पर्यटक पहुंचते हैं। बद्रीनाथ धाम और हेमकुंड साहिब जाने वाले तीर्थयात्रियों से लेकर ऑली में स्कीइंग करने वाले लोगों को इस कस्बे से होकर गुज़रना पड़ता है।
 
इस कस्बे के आसपास कई हाइड्रो-इलेक्ट्रिक पावर प्रोजेक्ट बना दिए गए हैं। आधारभूत ढांचे से लेकर कनेक्टिविटी करने के लिए सड़कों का जाल बिछाया गया है और सुरंगे बनाई गई हैं।
 
इस क्षेत्र में सबसे बड़ी चिंता का विषय तपोवन विष्णुगढ़ हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट जिसकी सुरंगे जोशीमठ शहर की ज़मीन के नीचे अस्थिर क्षेत्र में फैली हुई हैं।
 
भूगर्भशास्त्री एमपीएस बिष्ट और पीयूष रौतेला ने साल 2010 में क्लाइमेट साइंस में प्रकाशित अपने लेख में चेतावनी दी थी कि जोशीमठ पर एक बड़ा ख़तरा मंडरा रहा है।
 
सुरंग खोदने वाली मशीन की गलती?
भूगर्भशास्त्री रेखांकित करते हैं कि साल 2009 के दिसंबर में सुरंग खोदने वाली मशीन ने एक भूगर्भीय जल स्रोत में छेद कर दिया था जिसकी वजह से प्रतिदिन 7 करोड़ लीटर पानी बहता रहा जब तक उसे रोका नहीं गया।
 
साल 2021 की फरवरी में बाढ़ आने से हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट की दो में से एक सुरंग बंद हो गयी थी। इस हादसे में 200 से ज़्यादा लोग मारे या लापता हो गए थे।
 
उत्तराखंड का जोशीमठ क्षेत्र अपनी विशेष भौगोलिक संरचनाओं, जिनमें नदियां, पहाड़ और गहरी खाइयां शामिल हैं, की वजह से एक कमजोर स्थलाकृति तैयार करता है। ये राज्य पहले भी प्राकृतिक आपदाओं का शिकार होता रहा है। इन आपदाओं ने इस पूरे क्षेत्र में लगभग चार सौ गांवों को असुरक्षित करार दिया गया है।
 
आपदा प्रबंधन अधिकारी सुशील खंडूरी के एक अध्ययन के मुताबिक़, साल 2021 में उत्तराखंड में भूस्खलन, अचानक बाढ़ आने और हिमस्खलन (बर्फ़ की भारी मात्रा का तेज रफ़्तार से नीचे की ओर आना) से तीन सौ से ज़्यादा लोगों की मौत हुई है।
 
खंडूरी के मुताबिक़, "इन घटनाओं के लिए बेहद जोख़िमभरे क्षेत्रों में अंधाधुंध मानवीय गतिविधियों के साथ-साथ बारिश होने के ढंग और मौसम में बदलावों को मुख्य रूप से ज़िम्मेदार ठहराया जाता है।"
 
आज जोशीमठ में रहने वाले दहशत में हैं। उनके घरों के ज़मीन में समाने में कितना वक़्त लगेगा।।।ज़मीन धंसने की प्रक्रिया काफ़ी धीमी हो सकती है।
 
किसी को नहीं पता कि उनके घरों की ज़मीन हर दशक में कितने इंच नीचे जा रही है। इस क्षेत्र में भी कोई अध्ययन नहीं किए गए हैं कि किसी कस्बे का कितना हिस्सा ज़मीन में धंस सकता है।
 
इससे भी बड़ी बात ये है कि क्या इस कस्बे को बचाया जा सकता है? एक स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा कि अगर ये चलता रहा तो इस शहर के कम से कम 40 फीसद बाशिंदों को पुनर्वासित करना होगा।
 
अतुल सती कहते हैं कि "अगर यह सच है, तो शहर के बाकी हिस्सों को बचाना मुश्किल होगा।"
ये भी पढ़ें
क्या बदल जाएगी भारत में चुनाव लड़ने की उम्र? लेकिन EC सहमत नहीं